कोयले पर मतभेद
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बड़ी वैश्विक चुनौती जलवायु परिवर्तन के समाधान की तलाश के लिए विभिन्न देशों के सैकड़ों नेता इन दिनों दुबई में हैं। जलवायु शिखर सम्मेलन में शामिल हुए प्रतिनिधियों को उम्मीद है कि जीवाश्म ईंधन और अन्य विभाजनकारी विषयों पर ध्यान केंद्रित करने से पहले जलवायु परिवर्तन से प्रभावित विकासशील देशों को मुआवजा देने के लिए हानि और क्षति कोष पर समझौता हो सकता है।
यह कोष ऐसे गरीब देशों की मदद करेगा जो जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक बाढ़ या लगातार सूखे से प्रभावित होते हैं। पिछले वर्ष जलवायु परिवर्तन के कारण कई देशों में रिकॉर्ड तापमान दर्ज किया गया, तो कहीं भयानक बाढ़ आई। कहीं जंगलों की आग ने हजारों किलोमीटर की जमीन खाक कर दी। कोयले के उपयोग को लेकर सम्मेलन में विकासशील और अन्य देशों के बीच मतभेद बढ़ गए हैं। अमीर देशों ने कोयले का इस्तेमाल नहीं करने का वायदा किया है, लेकिन अन्य ईंधनों को छोड़ने के मामले में कुछ नहीं कहा।
दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं प्रतिक्रिया में कार्बन उत्सर्जन को रोकने के प्रयास में वैकल्पिक, गैर-जीवाश्म-ईंधन ऊर्जा स्रोतों की ओर रुख कर रही हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या विकासशील अर्थव्यवस्थाएं कोयले के उपयोग के बिना उच्च विकास हासिल कर सकती हैं? उधर अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार शुद्ध-शून्य उत्सर्जन हासिल करने और जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों से बचने के लिए दुनिया को 2050 तक कोयले के उपयोग 90 प्रतिशत में कटौती करने और 2040 तक कोयला बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की जरूरत है।
कोयले का उपयोग आम तौर पर बिजली पैदा करने के लिए किया जाता है। कोयले से चलने वाली बिजली को प्राकृतिक गैस से चलने वाली बिजली और काफी हद तक परमाणु ऊर्जा से अपेक्षाकृत आसानी से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। कोयले के स्थान पर पवन और सौर जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करना भी संभव है।
साथ ही यदि हमें जलवायु परिवर्तन को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना है तो बड़े पैमाने पर आर्थिक असमानता को कम करने और आर्थिक शक्ति तथा धन दोनों का पुनर्वितरण करने का एक तरीका खोजना होगा। विकासशील देशों के दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण है कि वे ऊर्जा के प्रति नए दृष्टिकोण के लिए खुले रहें और विकसित दुनिया के साथ बातचीत के लिए तैयार रहें। इससे विकसित आम समझ से अधिक प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय समझौते हो सकेंगे।
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