पीलीभीत: नेताजी! मझोला मिल: जल्द चलेगी..सुनकर टूट चुकी आस, संकट में कार्मिकों के परिवार!

पीलीभीत: नेताजी! मझोला मिल: जल्द चलेगी..सुनकर टूट चुकी आस, संकट में कार्मिकों के परिवार!

पीलीभीत, अमृत विचार। उत्तराखंड की सीमा से सटे कस्बा मझोला की बंद पड़ी चीनी मिल अभी भी बदहाल है। दशकों तक जनपद की सबसे बेहतर कही जाने वाली मझोला सहकारी चीनी मिल से जुड़े 1300 परिवारों के सामने आर्थिक संकट गहराया और पलायन तेज हो गया। परिवार के भरण पोषण के भी लाले पड़ गए। 35से 40 परिवार बाकी रह गए लेकिन उनकी उनकी मुसीबत अभी भी दूर नहीं हो सकी है। चीनी मिल को चलवाने के लिए चुनाव आने पर खूब राजनीति चमकाई गई।

किसी ने लीज पर मिल चलवाने की बात कही, तो कोई विकास की तस्वीर दिखा गया। मगर ये सिर्फ चुनावी बयानबाजी तक ही सीमित रहा। चीनी मिल जल्द चलेगी..सुन-सुनकर परिवारों की उम्मीद टूट सी गई। गृहस्थी चलाने के लिए पलायन का सिलसिला बरकरार है।  इन परिवारों के उत्पीड़न की दास्तां व्यथित करने वाली है, लेकिन आंदोलनों से जुड़े रहे यूनियन नेताओं का  मानना है कि अगर डबल इंजन की सरकार चाहे तो मिल चलने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। मगर, मौजूदा स्थिति देख ऐसा कुछ होगा उम्मीद कम है।

बताते हैं कि उत्तराखंड सीमा पर स्थित सहकारिता क्षेत्र मझोला चीनी मिल का 19  नवंबर 1965  को प्रदेश की पहली मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने उद्घाटन किया था। ऑल इंडिया को-ऑपरेटिव फेडरेशन के वाइस प्रेसिडेंट रोशन लाल शुक्ला ने इस मिल का लाइसेंस दिया था। लंबे समय तक ये चीनी मिल पूरे जनपद की सबसे अच्छी चीनी मिल की गिनती में शुमार थी। सीमावर्ती इलाका होने की वजह से उत्तराखंड के बड़ी संख्या में किसान गन्ना लेकर पहुंचते थे। इसका सीधा असर मझोला के व्यापार पर भी था। साल 2009-10 में चीनी मिल बंद हो गई।  

इसी के बाद से बंद पड़ी मझोला चीनी मिल चुनावी हर चुनाव में मुद्दों में शुमार रही। स्थानीय नेताओं ने इसे दोबारा चालू कराने को हर संभव प्रयास करने का दावा किया। मिल के कर्मचारी नेताओं ने भी बड़े-बड़े आंदोलन किए। मगर, आश्वासन की घुट्टी के सिवा उन्हें कुछ नहीं मिल सका। काम करने वाले कर्मचारियों के सामने आर्थिक संकट की स्थिति बनती चली गई। परिवार चलाना भी उन्हें मुश्किल हो गया। जब चीनी मिल चलने की आस मिटने लगी और परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी ने घेरा तो अधिकांश कार्मिक परिवार समेत पलायन कर गए। 

वर्तमान में बाकी चालीस परिवार के पास भी रोजी-रोटी का संकट बना हुआ है।  मजदूरी के लिए दूसरे प्रदेशों की दौड़ जारी है। बीते साल भी स्थानीय व्यापारियों और किसान नेताओं ने इसके लिए मांग उठाई और आंदोलन किए। उस वक्त भी जनप्रतिनिधियों ने आश्वासन दिए लेकिन सालों बाद भी उसका असर धरातल पर नहीं दिख सका है।  

जनप्रतिनिधियों ने खूब लगाई दौड़, असर नहीं
बता दें कि सत्ता चाहे किसी भी दल की रही। बसपा सरकार में मिल बंद होने के बाद सपा सत्ता में आई और फिर लगातार दो चुनावों में भाजपा की सरकार सूबे में रही है।  जनप्रतिनिधि और सत्ताधारी दल के तमाम बड़े चेहरों ने शासन स्तर पर मुख्यमंत्री समेत अन्य के साथ हुई मुलाकात के बाद चीनी मिल चालू कराने के मुद्दे पर बात होना बताया। यह भी आश्वस्त किया जाता रहा कि मिल चलाने पर शासन स्तर से प्रयास होंगे। जिससे मिल परिसर के परिवार ही नहीं क्षेत्र के व्यापारी समेत अन्य वर्गों में भी हर्ष दिखा। मगर अब समय बढ़ने के साथ ही उम्मीदें भी दम तोड़ती सी दिखाई दे रही है।

मोदी-योगी चाहें तो चल जाएगी मिल
मजदूरों का जो उत्पीड़न हुआ बयां नहीं कर सकते। औने-पौने दाम दिए गए। फॉर्म भरवाने के ढाई साल बाद बीआरएस बांटना शुरू किया। फंड नहीं दिए गए थे। बिजली कटवा दी पानी सप्लाई बंद की गई।  मल्ट्री सोसायटी एक्ट में होने की वजह से कोई नहीं चला पा रहा था। डबल इंजन की सरकार में मिल चलने में कोई दिक्कत नहीं आएगी, मगर ऐसा कुछ है नहीं।  - सत्य प्रकाश शुक्ला, मझोला चीनी मिल मजदूर संघ के अध्यक्ष

हो सकता है लोस चुनाव से पहले हो कुछ बेहतर
मझोला चीनी मिल चलवाने के पूरे प्रयास किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री तक इस मुद्दे को कई बार पहुंचाया गया है। सरकार द्वारा आश्वस्त भी किया गया है। हो सकता है आगामी लोकसभा चुनाव से पूर्व मझोला मिल को लेकर कुछ बेहतर परिणाम सामने आएं। – संजीव प्रताप सिंह, जिला अध्यक्ष, भाजपा

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