Bareilly News: मोदी, मुद्दों और मुसलमानों ने तय की चुनाव की दिशा

Bareilly News:  मोदी, मुद्दों और मुसलमानों ने तय की चुनाव की दिशा

बरेली, अमृत विचार। बरेली और आंवला की सीटों पर चुनाव की दिशा काफी हद तक मोदी, मुद्दों और मुसलमानों ने तय की। मोदी और मुद्दों के बीच मुसलमानों की भूमिका और भी ज्यादा प्रमुख रही। चुनाव को ध्रुवीकरण की ओर ले जाने की कोशिशों के बीच ही भाजपा ने अपने खिलाफ इस ताकत को नाकाम करने के लिए भरपूर कोशिश की। 

विरोधी दलों के कुछ मुस्लिम नेताओं को सीधे तौर पर तोड़कर भाजपा में लाया गया तो कुछ से अंदरखाने हाथ मिलाया गया। बरेली में आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर और मौलाना शहाबुद्दीन की ओर से सपा का खुला विरोध भी भाजपा के माफिक रहा। हालांकि मुसलमानों का रुख ज्यादा नहीं बदला।

विधानसभा चुनाव 2017 के बाद मुसलमानों का सपा से जुड़ाव चुनाव दर चुनाव कमजोर होता गया। इसकी वजह चाहे भाजपा की यूपी में अपने प्रमुख विरोधी दल का वोट बैंक तोड़ने की कोशिशें रही हों या ध्रुवीकरण की राजनीति के नए दौर में मजबूर हुई सपा की बदली नीतियां, बहरहाल सपा नेता भी मानते हैं कि मुस्लिमों से कम हुए जुड़ाव की वजह से पार्टी पिछले कई चुनाव में अपना पुराना प्रदर्शन नहीं दोहरा पाई।

यह स्थिति शायद इस बार भी बहाल रहती, लेकिन महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से मुकाबले के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए भाजपा की और ज्यादा कोशिशों ने मुसलमानों को कुछ अलग ही संदेश दे दिया। यही वजह मानी जा रही है कि उन्होंने इस बार भाजपा को हराने के लिए पूरा जोर लगा दिया।

बरेली और आंवला दोनों संसदीय क्षेत्रों में इस उलझे समीकरण का साफ असर दिखाई दिया। मुसलमानों के लगभग एकतरफा ध्रुवीकरण का ही नतीजा था कि बरेली में संतोष गंगवार को लोकसभा चुनाव 2019 में मिले वोटों से ज्यादा वोट पाने के बावजूद उनकी जीत का अंतर काफी कम रह गया। 

आंवला में पूरी तरह मोदी के नाम के सहारे चुनाव लड़े धर्मेंद्र कश्यप तो हार ही गए। बसपा प्रत्याशी आबिद के 95 हजार से ज्यादा वोट पाने के बावजूद वह न जीत सके, न ही अपने पिछले रिकॉर्ड की बराबरी कर सके। इससे काफी हद तक साफ हो गया कि विपक्ष जिन मुद्दों को लेकर चुनाव में उतरा, उसने भाजपा को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचाया।

यूं तो लोकसभा चुनाव पूरे देश में मोदी, मुद्दों और मुसलमान के समीकरणों में उलझा रहा। भाजपा को उम्मीद थी कि मोदी के चेहरे और मुसलमानों के इर्द गिर्द राजनीति रखकर चुनावी नैया पार लगाई जा सकती है। इस चुनाव में मुसलमानों को लेकर भाजपा की दो तरफा राजनीति भी साफ देखने को मिली। एक तरफ तो भाजपा के नेता मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थो तो दूसरी तरफ मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी करने का भी पूरा प्रयास किया गया। भाजपा को इसका कुछ हद तक तो फायदा मिला मगर फिर भी मुसलमान एक तरफा सपा-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में नजर आए।

ध्यान में रखने की बात यह भी है कि निवर्तमान सांसद संतोष गंगवार का मुस्लिम वोटरों पर भी अच्छा प्रभाव था। धर्मेंद्र कश्यप की भी मुसलमानों में इतनी पैठ थी ही कि चुनावी समीकरण कुछ हद तक बदले जा सकते थे। लेकिन चुनावी परिस्थितियों ने शुरू से ही जिस तरह करवट ली, उसकी वजह से धर्मेंद्र कश्यप तो चुनाव हारे ही, भाजपा को भी एक सीट खोनी पड़ी।

मौलाना तौकीर और शहाबुद्दीन से अब ये सवाल चर्चा में आप ही बताइए... आपके कहने से कितने लोगों ने दबाया नोटा
लोकसभा चुनाव के दौरान आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर और आल इंडिया मुस्लिम जमात के अध्यक्ष मौलाना शहाबुद्दीन ने सपा को मुस्लिमविरोधी पार्टी बताते हुए मुसलमानों से नोटा का बटन दबाने की अपील की थी। अब नोटा को पड़े वोटों से लोग दोनों की मुसलमानों में पैठ की तुलना कर रहे हैं। 

दरअसल, बरेली में इस बार सिर्फ 6260 वोट ही नोटा को मिले हैं जो लोकसभा चुनाव 2014 की तुलना में डाले गए 6,737 वोटों से कम हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में भी नोटा को 3,824 वोट ही मिले थे। जाहिर है कि मुसलमानों पर अपने कथित प्रभाव के दम पर राजनीतिक दलों में धाक जमाने वाले इन दोनों के दावों पर सवाल खड़े हुए हैं। मौलाना शहाबुद्दीन की टिप्पणियों पर सोशल मीडिया पर उन्हें भाजपा में शामिल होने की भी सलाह दी जाती रही है।

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