शकील बदायूंनी: हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देने वाला शायर
यह साल 1944 की बात है। आज़ादी के कुछ बरस पहले की। जब मशहूर शायर शकील बदायूंनी मुंबई के किसी मुशायरें में शिरकत करने गए हुए थे। इस मुशायरे में फ़िल्मकार अब्दुल रशीद कारदार भी बैठे थे। रशीद जी को शेरो शायरी में गहरी दिलचस्पी थी और वे श्रोताओं के ही बीच बैठे थे। उन्होंने …
यह साल 1944 की बात है। आज़ादी के कुछ बरस पहले की। जब मशहूर शायर शकील बदायूंनी मुंबई के किसी मुशायरें में शिरकत करने गए हुए थे। इस मुशायरे में फ़िल्मकार अब्दुल रशीद कारदार भी बैठे थे। रशीद जी को शेरो शायरी में गहरी दिलचस्पी थी और वे श्रोताओं के ही बीच बैठे थे। उन्होंने शकील को बहुत तसल्ली के साथ सुना। बाद में उन्होंने संगीतकार नौशाद के मार्फ़त, शकील बदायूँनी से मुलाकात की और अपनी फिल्म में गीत लिखने का अनुरोध किया। शकील साहब से नौशाद की मुलाक़ात पुरानी थी। जब वे पहली बार मिले थे तो नौशाद ने उनको कहा कि आप अपनी कोई एक उम्दा लाइन सुनाएं। तब शकील साहब ने यह पंक्ति सुनाई थी- “हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे”।
बहरहाल शकील ने फ़िल्मकार अब्दुल रशीद के अनुरोध को स्वीकार कर लिया और इसके बाद फिल्मी दुनिया को ऐसा गीतकार मिला जिसके गीत आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। शकील बदायूँनी 3 अगस्त 1916 को रूहेलखण्ड के बदायूं में पैदा हुए थे। उनके पिता मौलवी जमील अहमद साहब कादरी थे। यह इलाका सूफी और संतों का इलाका था। मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया का भी जन्म स्थान है। उनका पूरा नाम शकील अहमद था। बाद में उन्होंने अपने नाम के आगे अपने इलाके को जोड़ा और शकील अहमद से ‘शकील अहमद बदायूंनी’ हो गए। लेकिन उन्हें दुनिया में शोहरत ‘शकील बदायूंनी’ के नाम से मिली।
शकील साहब की शुरूआती तालीम मौलवी अब्दुल गफ्फार, मौलवी अब्दुल रहमान और बाबू रामचंद्र जी से उर्दू, फ़ारसी, अरबी और अंग्रेजी भाषा में हुई। साल 1937 में शकील बदायूनी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। फिर यहां से इम्तिहान पास करने के बाद दिल्ली में नौकरी शुरू की। 1944 में शकील साहब अब्दुल रशीद कारदार और संगीतकार नौशाद से मुलाकात के बाद वह उन लोगों के संपर्क में रहे और फिर 1946 में उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और एकदम से मुंबई चले गए। जहां उनकी अब्दुल रशीद कारदार से अच्छी बनने लगी थी और जैसे जैसे फिल्मो में उनके गीत मशहूर हुए उनकी मांग बढ़ती गई।
1947 में आई फिल्म दर्द का वो हिट गीत ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार का’ जिसको गाया था उमा देवी खत्री ने जो बाद के सालों में भारतीय सिनेमा की पहली महिला कॉमेडियन टुनटुन के नाम से मशहूर हुई और इस गीत में संगीत दिया था नौशाद ने। शकील साहब द्वारा लिखा पहला लोकप्रिय गीत था।
फिर 1952 में आई फिल्म ‘बैजू बावरा’ का शकील बदायूंनी द्वारा लिखा भजन ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ जिसमें संगीत दिया था नौशाद ने और इसे गाया था महान गायक मुहम्मद रफ़ी साहब ने जो खूब मशहूर हुआ। और इसी फिल्म में एक और गीत है जिसके बोल थे ‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले’ भी खूब लोकप्रिय हुआ था।
वाणी प्रकाशन के प्रथम संस्करण 2002 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित कवि व फिल्मकार उदय प्रकाश की ‘दत्तात्रेय के दुःख’ शीर्षक के साथ छपी किताब में एक किस्सा बड़ा मशहूर है। इस गीत को अमीर खान साहब को गाना था। लेकिन गाने के आखिर में नौशाद साहब एक लम्बा अलाप चाहते थे। कि अमीर खां साहब को कहना पड़ा, ‘ भई अपन से तो नहीं सधेगा। हमने सुबह रियाज के वक्त कई बार खैंच के देख लिया। हारकर नौशाद साहब ने शकील साहब से मशवरा लिया।
उन्होंने कहा, “रफ़ी से कोशिश करवा के देखो। हरी दर्शन तो उसने कमाल का गाया है।” बतातें हैं कि रफ़ी साहब को इस गाने का रियाज़ करते वक्त गला सूज गया था और उन्होंने यह बात छुपा ली थी। उनको डर था कहीं ये लोग काम देना बंद ना कर दें। रिकॉर्डिंग के वक्त जब रफ़ी साहब इस गाने के आखिर में पहुंचे ‘तू अब तो नीर बहा ले। नीर बहा ले’ और फिर वो ना खत्म होने वाला अलाप…स्टुडिओ में सभी लोगों की सांसे रुक गई थीं। शकील साहब की आंखों में आंसू थे। नौशाद पत्थर की मूरत बन गए थे।
साल 1955 में आई फिल्म “उड़न खटोला” का गाना “ओ दूर के मुसाफ़िर, हमको भी साथ ले ले रे, हम रह गए अकेले” हो या फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की वो मशहूर कव्वाली जिसके बोल थे ‘तेरी महफ़िल में किस्मत आज़माकर हम भी देखेंगे/ घड़ी भर को तेरे नज़दीक आकर हम भी देखेंगे/ तेरे क़दमों पे सर अपना झुकाकर हम भी देखेंगे’ खूब मश्हूर हुआ।
एक बार किसी ने शकील साहब से पूछा था कि उनको यह शेरो शायरी विरासत में मिली है क्या तो उन्होंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया कि ‘’मेरी शायरी का फन (कला) मारुशी (पैतृक) नहीं है क्योंकि ना मेरे वालिद शायर थे न दादा। हां, मेरी सातवीं पुश्त में जो मेरे जद्दे – अमजद (पूर्वज) थे उनके बारें में किताबों में पढ़ा है कि वो शायर थे और उनका नाम खलीफा मोहम्मद वासिल था। मुमकिन है वही जौक (अभिरुचि) सात पुश्तों की छलांग लगाकर मेरे हिस्से में आया हो।”
शकील बदायूंनी और नौशाद ने कई वर्षों तक साथ में काम किया। इन वर्षों में शकील साहब ने एक से एक मशहूर गीत लिखे, नौशाद ने संगीत दिया लेकिन इस जोड़ी को कभी फिल्मफेयर पुरस्कार नहीं मिला। शकील को तीन बार मिला जिनमें से दो बार रवि के साथ और एक बार हेमंत कुमार की जोड़ी के साथ। लेकिन फिर भी शकील और नौशाद की दोस्ती एक मिशाल थी। बताते हैं कि जब शकील साहब की तबियत नासाज होने लगी थी वो फिल्मों से दूर होने लगे थे उस वक्त नौशाद उनसे मिलने गए और कुछ फिल्मों में गीत लिखने का कॉन्ट्रैक्ट देकर आये थे।
कितने मसरूर थे जीने की दुआओं पे ‘शकील’
जब मिले रंज तो तासीर पे रोना आया
20 अप्रैल 1970 को इस मशहूर शायर ने 54 साल की बहुत कम उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
- शैलेन्द्र सिंह
ये भी पढ़ें- खोटे सिक्के…
