वेबोक्रेसी में विश्व हिंदी दिवस माने हिंदी के पराभव का आख्यान…
आज विश्व हिंदी दिवस है। यह लोकतंत्र के पराभव और वेबोक्रेसी के उत्थान का युग है। यह बौने को महान और महान को बौना बनाने का युग है। इस दिवस पर कम से कम 1 पोस्ट यूनीकोड हिंदी में किसान समस्या पर जरूर लिखें। विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित – प्रसारित …
आज विश्व हिंदी दिवस है। यह लोकतंत्र के पराभव और वेबोक्रेसी के उत्थान का युग है। यह बौने को महान और महान को बौना बनाने का युग है। इस दिवस पर कम से कम 1 पोस्ट यूनीकोड हिंदी में किसान समस्या पर जरूर लिखें।
विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित – प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलनो की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाये जाने की घोषणा की थी।
उसके बाद से भारतीय विदेश मंत्रालय ने विदेश में 10 जनवरी 2006 को पहली बार विश्व हिन्दी दिवस मनाया था। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार – प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं।
आप भी फेसबुक पर हिंदी की समस्याओं पर कुछ जरूर लिखें।लेकिन हिंदी वाले निरंतर हिंदी त्याग रहे हैं,उनके बच्चे हिंदी की बजाय अंग्रेजी में बात करना पसंद करते हैं।इनमें अधिकांश मोदी और दक्षिणपंथी विचारधारा से गहरे प्रभावित हैं।लेकिन यह सब विमर्श से गायब है।
हिंदी रसातल में है। मित्रगण और भी नीचे ले जाने में लगे हैं। हिंदी फेसबुक में सब सच लिखते हैं! कोई गलत नहीं लिखता! हिंदी महान है। यही वजह है उसके पास लेखक कम है। लेखकनुमा अधिक हैं! हिंदी साहित्य, लेखकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ सुनियोजित ढंग से घृणा पैदा की जा रही है। हिंदी के इस फिनोमिना की जड़ें कहां हैं ? असल में साहित्य संस्कारों और कला-आस्वाद से वंचित हिंदीवाले साहित्यकार और साहित्य की पीड़ा और नजरिए को नहीं समझ सकते।
इस तरह के कला शून्य मोदीभक्तों की फेसबुक पर संख्या बेशुमार है,यही वे लोग हैं जो लेखकों के द्वारा उठाए गए असहिष्णुता के सवाल को आज तक समझ नहीं पाए । वे वोटबैंक राजनीति से आगे देख नहीं पाए।
लेखक के नजरिए का संबंध उसकी सामाजिक अवस्था में मच रही हलचलों,अशान्ति और असुरक्षा से है।हर साम्प्रदायिक घटना पर प्रतिवादी लेखकों से कैफियत मांगना असहिष्णुता का घृणिततम रूप है।समाज में घट रही हर साम्प्रदायिक घटना पर कैफियत देने का दायित्व सरकार का है ,खासकर केन्द्र सरकार और साम्प्रदायिक संगठनों का है।
हाल ही में साम्प्रदायिकता ने जिस तरह आक्रामक भाव से अपने को प्रदर्शित किया है वह निंदनीय है,हम सब धर्मनिरपेक्ष लोग उनकी हरकतों की निंदा करते हैं। फेसबुक पर साम्प्रदायिक के पक्षधरों को जहरीला प्रचार करते सहज ही देखा जा सकता है। साम्प्रदायिकता माने विष है,खासकर भाषा के लिए तो यह बेहद ख़तरनाक है।
जो इसमें अमृतरस खोज रहे हैं वे भारत-विभाजन को भूल रहे हैं। साम्प्रदायिक ताकतें (बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक) एक-दूसरे को जागृत-संगठित कर रही हैं और समाज का विभाजन कर रही हैं । धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर बना रही हैं। सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्रकामी नागरिकों की यह जिम्मेदारी है कि इन दोनों ही किस्म की साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज बुलंद करें।
मुझे तीन चीजों से नफरत है एक है साम्राज्यवाद , दूसरी है वर्चस्व भावना और तीसरी है साम्प्रदायिकता। जबकि हमारे बहुत सारे फेसबुक मित्र आज भी इन तीनों से प्यार करते हैं। हम कहते हैं जरा इनसे नफरत करके तो देखो विवेक और समाज सुधर जाएगा। भाषा का समाज,लेखक, प्रकाशक , शिक्षा व्यवस्था, राजनीति, मीडिया और विज्ञापन आदि से गहरा संबंध है।
जिस तरह हिंदी लेखकों की समस्याएं हैं उसी तरह हिंदी प्रकाशकों की भी समस्याएं हैं। प्रकाशकों की मूल समस्या है पुस्तकों के प्रति अभिरुचि का अभाव। मध्यवर्ग की रूचि नौकरी में है,कम्पटीशन में है,वैभवपूर्ण उपभोक्तावाद में है। पुस्तक प्रेम को हमने सामाजिक हैसियत नहीं बनाया , बल्कि अन्य चीजों को सामाजिक हैसियत का प्रतिनिधि बना दिया। पुस्तक की मार्केटिंग बहुत ही पुरातनपंथी तरीके से होती है। इसमें जीवनशैली, सामाजिक हैसियत और ज्ञान शामिल नहीं है। हमें पुस्तक के प्रचार को सूचनात्मकता के दायरे से निकालना चाहिए।
हिंदी में अधिकांश लेखक,लेखिकाएं अपने निजी खर्चे पर लेखन करते हैं,उनको कोई रॉयल्टी नहीं मिलती।जिन गिनती के लेखकों को रॉयल्टी मिलती है उससे वे अपने घर का एक महिने का खर्चा तक नहीं निकाल सकते। यह स्थिति फिलहाल बदलती नजर नहीं आती।अब बताओ हिंदी दिवस पर खुश हों या आलोचना करें ?
हमारे युवा इंटरनेट के दीवाने हैं और उनको बताया जा रहा है कि इंटरनेट से क्या -क्या लाभ हैं , हम कभी यह भी सोचें कि इंटरनेट से हमारी किस तरह की हानि हो रही है ।इंटरनेट समग्रता में देखें तो नौकरी देने नहीं छीनने वाला माध्यम है। इंटरनेट के कारण सारी दुनिया में किस तरह नौकरियां चली गयी हैं इन पर भी हम ठंडे दिमाग से सोचें।
मसलन्, यदि ई-कॉमर्स सफल रहता है तो उससे सीधे जमीनी स्तर पर काम करने वाले लाखों लोगों का धंधा चौपट हो जाएगा। डाकतार सेवाओं में काम करने वाले हजारों -लाखों लोगों की यह माध्यम नौकरी खा चुका है।
ऑनलाइन चौर्यकर्म के कारण अखबारों-पत्रिकाओं में लेखों का दुरुपयोग हो रहा है, समस्त किस्म की सर्जनात्मकता पर इसका बुरा असर पड़़ रहा है ,लेकिन हम कभी रुककर सोच ही नहीं रहे हैं। प्रेस में इंटरनेट ने बड़े पैमाने पर नौकरियां खाई हैं।खासकर रि्पोर्टर-फोटोग्राफर की नौकरियां प्रभावित हुई हैं। इसके अलावा और भी क्षेत्र हैं जिन पर सोचने की जरुरत है।
इंटरनेट आने के साथ डेमोक्रेसी का नहीं वेबोक्रेसी का हंगामा चल रहा है। वेबोक्रेसी के साइड इफेक्ट के बारे में कोई सवाल नहीं उठा रहा,उलटे इसका महिमा मंडन हो रहा है। वेबोक्रेसी ने एमेच्योर को महान बनाया है,कम जानकार को महिमामंडित किया है। हम तकनीक के प्रति क्रिटिकल कम उलटे उसके भक्त ज्यादा बने हैं।
वेबोक्रेसी ने संस्कृति को हाशिए पर फेंका है। ऑनलाइन फ्री कंटेंट की उपलब्धता के कारण फिल्म,पुस्तक लेखन, मौलिकशोध, संगीत आदि गंभीर रुप से क्षतिग्रस्त हुआ है। कहने के लिए वेबोक्रेसी का जन्म लोकतंत्र में हुआ है लेकिन इसके मूल आचरण में लोकतंत्र की उपलब्धियां ही निशाने पर हैं।
- जगदीश्वर चतुर्वेदी
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