हंगामे की प्रवृत्ति
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संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में लगातार तीसरे दिन बुधवार को लोकसभा में सत्ता पक्ष के सदस्यों ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा भारत के लोकतंत्र को लेकर लंदन में दिए गए बयान पर और विपक्षी सदस्यों ने अडाणी समूह से जुड़े मामले की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जांच की मांग को लेकर भारी हंगामा किया।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने सदन में बाधा उत्पन्न करने पर आपत्ति की। उन्होंने विरोध कर रहे सदस्यों से सदन को काम करने देने की बात कही, लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। यह पहला मौका नहीं है, जब सत्तापक्ष और विपक्ष रणनीतिक रूप से संसद में हंगामा कर रहे हैं। पिछले कई सालों से यह प्रवृत्ति बनी हुई है।
यह संसदीय गरिमा के सर्वथा प्रतिकूल है कि सांसद सदन में बहस करने के बजाय नारे लिखी तख्तियां लहराने का काम करें। दुर्भाग्य से अब ऐसा ही अधिक होता है। ऐसा बचकाना व्यवहार तो संसद की गरिमा से खिलवाड़ है। यदि इस गिरावट को रोका नहीं गया तो ऐसी भी स्थिति बन सकती है कि संसद के चलने या न चलने का कोई महत्व न रह जाए।
हंगामे के कारण संसद में जनता से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पाती। संसद में काम कम और हंगामा अधिक होने के लिए जितने जिम्मेदार सांसद हैं, उससे अधिक जिम्मेदार राजनीतिक दलों का नेतृत्व होता है। संसद की मर्यादाएं दोनों पक्ष तोड़ते देखे जा रहे हैं।
सत्तारुढ़ दल के सांसदों को विपक्षी नेताओं के बोलते वक्त व्यवधान उत्पन्न करते भी देखा जाता है। विपक्ष भी स्वस्थ इरादे से किसी मुद्दे पर बहस करने की इच्छा रखता हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यानि हंगामे के लिए किसी एक पार्टी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
आज की राजनीति दलगत हितों के आगे राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करने में भी संकोच नहीं करती। बेहतर होगा कि सभी दल गंभीरता से विचार करें कि लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रही हंगामे की इस प्रवृत्ति से कैसे मुक्ति मिले और सार्थक बहस की स्थिति का निर्माण कैसे हो।