विपक्षी एकता का भविष्य
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विपक्षी एकता की जो कोशिशें दिल्ली से पटना तक चलीं उनमें पूर्ण विराम भले ही न लगा हो, लेकिन अब वे किसी सिरे पर पहुंचती नहीं दिखतीं। हालिया पांच राज्यों के चुनाव के दौरान तो एक भी बार नहीं लगा कि आईएनडीआईए नाम का कोई विपक्षी एलाइंस भी है।
मध्यप्रदेश में तो सपा और कांग्रेस के बीच इतनी तल्खी बढ़ी कि दोनों में छत्तीस का अंकड़ा नजर आने लगा। एमपी में कांग्रेस ने सपा को कोई तबज्जो नहीं दी। यह सपा के लिए झटके जैसा है और इसका बदला वह सूद समेत चुकाने की तैयारी में हैं। तेलंगाना में अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव के साथ जो उपस्थिति दर्ज कराई राजनीतिक गलियारे में उसके भी कई अर्थ निकाले जा रहे हैं।
इसके चलते कम्युनिस्ट-कांग्रेस गठजोड़ से पहले ही ममता बनर्जी नाराज थीं अब वे और खफा हो गयीं। बिहार में नितीश कुमार के तेवर कड़े हैं और वे भी कांग्रेस के साथ खड़े होने में हिचकिचा रहे हैं। साफ़ है कि कांग्रेस बड़ा दिल नहीं दिखा रही है। घटक दल अधिकांश क्षेत्रीय हैं इसलिए वे इस आपदा को अवसर मान कर कांग्रेस के लिए अपने राज्य के दरवाजे बंद करने की मंशा जाहिर कर रहे हैं। कांग्रेस की इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि भाजपा को केवल वह ही हरा सकती है।
यदि ऐसा सम्भव होता तो कई राज्यों में कांग्रेस वनवास नहीं झेल रही होती और न ही पिछले दो लोकसभा चुनाव में वह हासिये पर खिसक जाती। अलबत्ता यदि पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस जीत की पटकथा लिख पाती है तो यह उसे मजबूती देगा और उसकी ताकत आईएनडीआईए में बढ़ेगी।
इसका उलट होने पर सबसे अधिक कठिनाई कांग्रेस के सामने ही आयेगी और आईएनडीआईए को नेतृत्व देना आसान नहीं होगा। कुल मिला कर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं होगा कि आईएनडीआईए का भविष्य कांग्रेस के भविष्य से जुड़ा है। यदि अलाइंस खड़ा नहीं हो पाया तो इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा और कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।