जन्मदिन विशेष: श्रीकांत वर्मा की कलम में वैचारिक और भावनात्मक दोनों तरह की स्याहियां थीं

Amrit Vichar Network
Published By Amrit Vichar
On

जन्मदिन: 18 सितम्बर 1931 बिलासपुर छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवियों में श्रीकांत वर्मा का नाम कभी धूमिल नहीं हो सकता। वे पदुमलाल बख्शी के बाद लेकिन उनसे भी अधिक संघर्षशील दूसरे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने अपनी पहचान बनाने के लिए आत्मविश्वास से लबरेज होकर इलाहाबाद के बदले सीधे दिल्ली कूच किया। साठ के दशक में …

जन्मदिन: 18 सितम्बर 1931 बिलासपुर
छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवियों में श्रीकांत वर्मा का नाम कभी धूमिल नहीं हो सकता। वे पदुमलाल बख्शी के बाद लेकिन उनसे भी अधिक संघर्षशील दूसरे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने अपनी पहचान बनाने के लिए आत्मविश्वास से लबरेज होकर इलाहाबाद के बदले सीधे दिल्ली कूच किया। साठ के दशक में संवाद और संचार के माध्यमों की आज जैसी सघनता नहीं थी। तकनीक के परिष्कार के अभाव में कलम ही बुद्धिजीवी का अकेला सहारा थी। श्रीकांत वर्मा की कलम में वैचारिक और भावनात्मक दोनों तरह की स्याहियां थीं।

श्रीकांत वर्मा को मजदूरों की तरह भी संघर्ष करना पड़ा। जिल्लत, अपमान, उपेक्षा सब सहना पड़ा जो उनके बुनियादी स्वभाव के खिलाफ था। रेशा रेशा तराशकर इस लेखक ने साहित्य घर का बहुत कूड़ा साफ किया। सरमायेदारों की आंखों में पड़े मकड़जाले को साफ कर साहित्य को नई जमीन और प्रतिष्ठा देने में मुक्तिबोध जैसे महारथियों का हमकदम बनना कुबूल किया। बिलासपुर को श्रीकांत वर्मा का नगर होने में एक स्वाभाविक गौरव प्राप्त है। श्रीकांत भाग्य नहीं अपने साथ अपने संभावित परीक्षित कर्म का ताप लेकर गये थे।

मेरे अनुरोध पर बिलासपुर के घासीदास विश्वविद्यालय में मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने सृजनपीठ बनाने का ऐलान किया। स्थापित हुई। एक विवादग्रस्त कुलपति ने उसे नष्ट कर दिया। औपचारिक पद मानकर एक प्राध्यापक की नियुक्ति कर दी। हबीब तनवीर तक छत्तीसगढ़ सरकारों को परदेसी लगते हैं। हीरालाल शुक्ल, पूर्णचंद्र रथ, नवल शुक्ल, धनंजय वर्मा, मेहरुन्निसा परवेज वगैरह छत्तीसगढ़ के होने के बावजूद सरकारी आमंत्रणों के लायक नहीं समझे जाते रहे। गोरखपुर के प्रो0 अरविन्द त्रिपाठी ने उन पर बेहतरीन काम किया है।

बात श्रीकांत वर्मा को लेकर है। श्रीकांत वर्मा को लेकर उनके अवदान के अनुरूप कोई वैचारिक स्थायी प्रकल्प सरकार को अभी तक सूझा नहीं है। श्रीकांत वर्मा के नाम पर बिलासपुर में चौड़ी सड़क बनी है। वह पुराने इलाके को नए इलाके से जोड़ती है। उसके बीचो बीच दीनदयाल उपाध्याय की मूर्ति स्थापित कर दी गई है।

वह शिक्षा क्षेत्र को व्यापार विहार से जोड़ती है। वह पूर्व से चलकर पश्चिम तक जाती है। श्रीकांत वर्मा से दक्षिणपंथियों का जिरह करना बौद्धिक होने पर ही संभव रहा है। उनसे असहमत होने में पसीना आ जाता। उनकी उपेक्षा करने से व्यवस्था को सुकून मिलता। व्यवस्था वही है जो अपने सुकून की फिक्र करे। श्रीकांत तो बहाना हैं। हर बहाना श्रीकांत नहीं हैं। वह तो सरकार है। सरकार को श्रीकान्त से क्या लेना देना?

श्रीकांत और अशोक वाजपेयी के कारण मुक्तिबोध के इलाज की सर्वोच्च स्तर पर व्यवस्था हो सकी। ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ‘ ‘वो कहते हैं इंदिरा हटाओ‘ नारे के सर्जक श्रीकांत थे। कांग्रेस दफ्तर में जिन्हें श्रीकांत मूर्ख कहते, वे बाद में पार्टी के बड़े पदाधिकारी भी बने। लीलाधर मंडलोई ने उन पर बहुत सुन्दर छोटी फिल्म बनाई है।

श्रीकान्त जी ने कांग्रेस विचार विभाग के तहत मुझे अपने इलाके के लिए राष्ट्रीय लेखक मंच का संयोजक भी बनाया था। उनके दिल्ली के कांग्रेस महासचिव वाले कमरे में बैठकर शार्गिदी के बहाने उन्हें सुनते रहना एक अध्ययन या अध्यवसाय ही रहा है। श्रीकान्त वर्मा को पढ़ने से दिमाग की सूखी नालियां साफ पानी की बौछार के कारण धुलकर बहने लगती हैं।

श्रीकांत जी ने अपने निजी पुस्तकालय का बहुत बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ विधानसभा की लाइब्रेरी में दे दिया है। जाहिर है उन्होंने गलत किया। हमारे आदरणीय विधायकों और उनसे ज्यादा आदरणीय मंत्रियों को किताबों से बैर है। बेचारी किताबें फड़फड़ा रही होंगी उनकी आत्मा की तरह।

यह भी पढ़े-

डेंगू बुखार में इनका करें सेवन तो Immune System के साथ Platelets करेंगे Improve

संबंधित समाचार