हंसता रहा, औंधा घड़ा…
देह के ,शिवालय में सांसों का “कलश” जड़ा मन की वृत्तियों पर फिर एक, विषधर चढा। आस्था के चरणो में असुर,जड़ नही, जिंदा है जाति, पंथ, के मायावी जंजाल पर शर्मिंदा है धुंध मे लिपटा हुआ युद्ध तो अब भी खड़ा। निर्विकारी , जोत जली अक्षत , पुष्प, जल भी है अनुष्ठान ने बाँटे सबको …
देह के ,शिवालय में
सांसों का “कलश” जड़ा
मन की वृत्तियों पर
फिर एक, विषधर चढा।
आस्था के चरणो में
असुर,जड़ नही, जिंदा है
जाति, पंथ, के मायावी
जंजाल पर शर्मिंदा है
धुंध मे लिपटा हुआ
युद्ध तो अब भी खड़ा।
निर्विकारी , जोत जली
अक्षत , पुष्प, जल भी है
अनुष्ठान ने बाँटे सबको
याचना का फल भी है
खंडित विश्वास पर
दोष विधि ,पर मढा।
कलरव, गुंजन और,लतांए
दिव्य ओज था, उपवन मे
मर्म समझ न पाये ज्ञानी
दृष्टि थी एक, बंधन मे
आचमन की बात पर
हंसता रहा ,औंधा घड़ा।
- सतीश उपाध्याय
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