शेर, गैर-ए-शेर और नस्न

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दर-ए-मकतब नियाज़ च हर्फ़-ओ-कुदाम सौत चूँ नामा सजदा ईस्त कि हर जा नविश्ता ऐम बेदिल नई शायरी की बुनियाद डालने के लिए जिस तरह ये ज़रूरी है कि जहां तक मुम्किन हो सके उस के उम्दा नमूने पब्लिक में शाये किए जाएं, उसी तरह ये भी ज़रूरी है कि शे’र की हक़ीक़त और शायर बनने …

दर-ए-मकतब नियाज़ च हर्फ़-ओ-कुदाम सौत
चूँ नामा सजदा ईस्त कि हर जा नविश्ता ऐम
बेदिल

नई शायरी की बुनियाद डालने के लिए जिस तरह ये ज़रूरी है कि जहां तक मुम्किन हो सके उस के उम्दा नमूने पब्लिक में शाये किए जाएं, उसी तरह ये भी ज़रूरी है कि शे’र की हक़ीक़त और शायर बनने के लिए जो शर्तें दरकार हैं उनको किसी क़दर तफ़सील के साथ बयान किया जाये। (हाली- मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी)

क्या शायरी की पहचान मुम्किन है? अगर हाँ, तो क्या अच्छी और बुरी शायरी को अलग अलग पहचानना मुम्किन है? अगर हाँ, तो पहचानने के ये तरीक़े मारुज़ी हैं या मोज़ूई? यानी क्या ये मुम्किन है कि कुछ ऐसे मेयार, ऐसी निशानियां, ऐसे ख़वास मुक़र्रर किए जाएं या दरयाफ़्त किए जाएं जिनके बारे में ये कहा जा सके कि अगर ये किसी तहरीर में मौजूद हैं तो वो अच्छी शायरी है, या अच्छी शायरी न सही, शायरी तो है? या इस सवाल को यूं पेश किया जाये, क्या नस्र की पहचान मुम्किन है? क्यों कि अगर हम नस्र को पहचानना सीख लें तो ये कह सकेंगे कि जिस तहरीर में नस्र की खुसुसियात न होंगी, अग़्लब ये है कि वो शे’र होगी।

लेकिन फिर ये भी फ़र्ज़ करना पड़ेगा कि शे’र और नस्र अलग अलग ख़ौस-ओ-ख़साइस रखते हैं और एक, दूसरे को ख़ारिज कर देता है। तो क्या हम ये फ़र्ज़ कर सकते हैं? या हमें ये कहना होगा कि शे’र और नस्र के दरमियान बाल बराबर हद-ए-फ़ासिल है जो अक्सर नज़रअंदाज भी हो जाती है, या ऐसी भी मंज़िलें हैं जहां नस्र और शे’र का इदग़ाम हो जाता है? फिर ये भी सवाल उठेगा कि नस्र से हमारी मुराद तख़लीक़ी नस्र है (यानी जिस तरह कि नस्र का तसव्वुर अफ़साने या नावल, ड्रामे से मुंसलिक है।) या महज़ नस्र, (यानी ऐसी नस्र जिसका तसव्वुर तन्क़ीद, साईंसी इज़हार तारीख़ वग़ैरा से मुंसलिक है?)

इतने सारे सवालात उठाने के बाद आपको मज़ीद उलझन से बचाने के लिए कुछ तौज़ीही मफ़रूज़ात या मुस्लिमात का बयान भी ज़रूरी है, ताकि हवाले में आसानी हो सके। पहला मफ़रूज़ा ये है कि बहुत मोटी तफ़रीक़ के तौर पर वो तहरीर शे’र है जो मौज़ूं है, और हर वो तहरीर नस्र है जो नामौज़ूं है। मौज़ूं से मेरी मुराद वो तहरीर है जिसमें किसी वज़न का बाक़ायदा इल्तिज़ाम पाया जाये, यानी ऐसा इल्तिज़ाम जो दोहराए जाने से इबारत हो और नामौज़ूं वो तहरीर है जिसमें वज़न का बाक़ायदा इल्तिज़ाम न हो।

अगरचे ये मुम्किन है किसी नामौज़ूं तहरीर में इक्का दुक्का फ़िक़रे या बहुत से फ़िक़रे किसी बाक़ायदा वज़न पर पूरे उतरते हों, लेकिन जब तक ये बाक़ायदा वज़न या बाक़ायदा औज़ान दोहराए न जाऐंगे या उनमें ऐसी हम-आहंगी न होगी जो दोहराए जाने का बदल हो सके, तहरीर नामौज़ूं रहेगी और नस्र कहलाएगी। ये क़ज़िया इतना वाज़ेह है कि उसे मिसालों की ज़रूरत नहीं लेकिन फिर भी इत्माम-ए-हुज्जत के लिए ये तहरीरें पेश-ए-ख़िदमत हैं।

(1) मैं घर गया तो मैंने देखा कि मेरे बच्चे सारे घर में उधमम मचाते फिर रहे हैं।

(2) बादल जो घिरे हैं क़र्ये क़र्ये पर
उठकर आते हैं बहरों से अक्सर
घर-घर पे पड़े हैं अब्र-ए-अस्वद के परे
देखो देखो उड़े हैं क्या काले पर

पहली इबारत में मुंदर्जा ज़ैल औज़ान मौजूद हैं जिनकी वजह से तहरीर के ये टुकड़े अलग अलग मौज़ूनियत के हामिल हैं,

मैं घर गया… मुस्तफ़अलुन

तो मैंने देखा कि मेरे बच्चे… फे़अल फ़ऊलुन फे़अल फ़ऊलुन

सारे घर में… फ़ाएलातुन
उधम मचाते… फे़अल फ़ऊलुन
फिर रहे हैं… फ़ाएलातुन

छोटे छोटे टुकड़ों की अलाहिदा मौज़ूनियत ने इस तहरीर को एक ढीला ढाला आहंग तो बख़्श दिया है, लेकिन तकरार या इल्तिज़ाम की शर्त पूरी न होने की वजह से में इसे नस्र कहूँगा। दूसरी तहरीर एक ख़ुद-साख़्ता फ़िलबदीह रुबाई है, इसकी माअनवियत से क़त-ए-नज़र कीजिए, ये मुलाहिज़ा कीजिए कि चार मिसरों में चार अलग अलग औज़ान इस्तेमाल हुए हैं जिनकी तफ़सील हस्ब-ए-ज़ैल है, (1) मफ़ऊल मुफ़ाईलन मफ़ऊलुन फ़ा (2) मफ़ऊलुन मफ़ऊलुन मफ़ऊलुलन फ़ा (3) मफ़ऊल मुफ़ाइलुन मुफ़ाईल फे़अल (4) मफ़ऊलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ा

ज़ाहिर है कि ये औज़ान एक दूसरे से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं और उनमें भी अदम तकरार की वही कैफ़ियत है जो इबारत नंबर एक में थी। लेकिन चूँकि उनमें ऐसी हम-आहंगी है जो इल्तिज़ाम या तकरार का बदल हो सकती है इसलिए मैं इस तहरीर को शे’र कहूँगा। वैसे भी ये बात ज़ाहिर है कि महूला बाला रुबाई में जो सूरत-ए-हाल है वो इस्तिसनाई है, आम तौर पर शे’र में एक ही वज़न को दुहराया जाता है। बहरहाल, सबसे मुस्तहकम और समझने के लिए सबसे कारा॓मद तफ़रीक़ ये है कि कलाम मौज़ूं शे’र है और कलाम नामौज़ूं नस्र है। हमारी सारी मुश्किलें भी इसी तफ़रीक़ से पैदा होती हैं लेकिन इसे ज़ेहन में रखना भी ज़रूरी है, वर्ना हमें बहुत सी मसनवियों के बारे में ये कहना पड़ेगा कि उनमें इतने फ़ीसदी अशआर, अशआर नहीं हैं अगरचे मौज़ूं हैं।

फिर अदब के तालिब-ए-इल्मों, बच्चों, आम लोगों को बड़ी दिक़्क़त का सामना होगा जब हम उन्हें ये समझाएँगे कि देखिए फ़ुलां तहरीर नामौज़ूं है लेकिन शे’र है, इसलिए शे’र के निसाब में दाख़िल है, आप भी इसे शे’र कहिए और फ़ुलां तहरीर के फ़ुलां हिस्से मौज़ूं होते हुए भी शे’र नहीं हैं, इसलिए नस्र के निसाब में दाख़िल हैं, आप भी उसे नस्र कहिए, और बक़िया हिस्से मौज़ूं भी हैं और शे’र भी हैं इसलिए उन्हें नज़्म के निसाब में रखा गया है। इस तरह रिसालों, किताबों, निसाबों, आम बोल-चाल में नस्र व शे’र की तफ़रीक़ ही ख़त्म हो जाएगी। इसके नतीजे में जो अफ़रातफ़री फैलेगी, उसका अंदाज़ा किया जा सकता है।

ये मसला इस तरह भी नहीं हल हो सकता (जैसा कि बा’ज़ लोगों ने कोशिश की है कि जिस कलाम मौज़ूं में शे’र के ख़वास न हों उसे शे’र न कह कर नज़्म कहा जाये। क्योंकि किसी एक शे’र या एक मुख़्तसर नज़्म के बारे में तो हम कह सकते हैं कि ये नज़्म है अगरचे शे’र नहीं है। लेकिन किसी भी तवील मंज़ूमे, मसलन क़सीदे, या मसनवी में फिर वही मुश्किल पड़ेगी। हमें कहना पड़ेगा कि इसमें फ़ुलां हिस्सा सिर्फ़ नज़्म है, शे’र नहीं है, और फ़ुलां हिस्सा शे’र भी है। लिहाज़ा आम बोल-चाल में तफ़रीक़ के लिए मौज़ूं और नामौज़ूं की शर्त लगाना लाज़िमी हो जाता है। लेकिन ये भी ज़ाहिर है कि तन्क़ीदी बोल-चाल के लिए ये तफ़रीक़ बिल्कुल बेमानी है, क्यों कि फिर तो,

बंबई एक बड़ा शहर है दोस्तो
दिल्ली भी एक बड़ा शहर है दोस्तो

और

महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा बाज़ ख़्याल
हैं वर्क़ गर्दानी-ए-नैरंग यक बुतख़ाना हम

में फ़र्क़ क्यूँ-कर किया जा सकेगा? इसलिए मैंने सवाल यहां से शुरू किया है, क्या शायरी की पहचान मुम्किन है? यानी मोटी तफ़रीक़ के तौर पर तो हमने मान लिया कि मौज़ूं कलाम शे’र होता है, लेकिन इस शे’र का बहैसियत शायरी के क्या दर्जा है, ये अलग बहस है, और यही असल बहस है। यानी ये तो हमने मान लिया कि अंडों के बजाय बच्चे पैदा करने वाला, बच्चों को दूध पिलाने वाला, क़ुव्वत-ए-गोयाई रखने वाला, ज़्यादातर बे बालों वाला जानवर इंसान होता है, लेकिन उस इंसान में इन्सानियत कितनी है, ऐरे ग़ैरे, नत्थू खैरे और अकबर-ए-आज़म में क्या फ़र्क़ है, कौन सी खुसुसियात अकबर-ए-आज़म को बहैसियत इंसान मुमताज़ करती हैं। ये अलग बहस है, और यही असल बहस है।

दूसरा मफ़रूज़ा (पहला तो ये है कि मौज़ूं कलाम शे’र होता है) चंद पुराने मफ़रूज़ों को रद्द करता है। क़दीम मशरिक़ी तन्क़ीद में शे’र की तारीफ़ यूं की गई थी कि मौज़ूं हो, बामानी हो और बिल इरादा कहा गया हो। मौज़ूनियत तो ठीक है, लेकिन बा-मअनी होना एक बेमानी शर्त है, जब तक कि बामाअनवियत को चंद शेअरी रसूम यानी Conventions का पाबंद न बनाया जाये। मसलन,

दुशना ग़मज़-ए-जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बेपनाह
ग़ालिब

तिरे नौकर तिरे दर पर असद को ज़िबह करते हैं
ग़ालिब

ग़ैर ने हमको क़त्ल किया ने ताक़त है ने यारा है
मीर

की तरह के हज़ारों मिसरे और नज़्में बेमानी हैं जब तक इन रसूम के हवाले से न पढ़ी जाएं, जिनकी हदों में रह कर शायर ने उन्हें लिखा था। अगर ये कहा जाये कि इन मिसरों में अलग अलग अलफ़ाज़ का बामअनी होना सनद नहीं, क्योंकि बहुत से अशआर हैं जो यक़ीनन बेमानी हैं लेकिन उनके तमाम अलफ़ाज़ के मअनी समझ में आते हैं। ये ख़ुद-साख़्ता मिसालें देखिए,

कद्द-ओ-कशती न हो बाक़ी तिरा दम ही सलामत है
न बिल्ली है न कुत्ता है न डोरी है कि आफ़त है

लिहाज़ा जब शे’र पर बामानी होने की शर्त होगी तो ये भी कहना पड़ेगा कि शे’र की माअनवियत का इन्हिसार इन शे’री रसूम यानी Conventions पर है जिनके हवाले से और जिनके सयाक़-ओ-सबाक में शे’र कहा गया हो। हाँ अगर बेमानी से मुराद ये है कि शे’र कुछ इस तरह के ख़ुदसाख़्ता अलफ़ाज़ का मजमूआ हो जिनके इन्फ़िरादी मअनी भी न हूँ। मसलन, चूँ जिन चनां लिम लग लहां आले तयां वाली वहू… तो कोई झगड़ा नहीं 1 लेकिन बिलइरादा की शर्त हर तरह नाक़ाबिल-ए-क़बूल है क्योंकि (तख़्लीक़ी अमल पेचीदा बहसों से गुज़रे बग़ैर) ये बात मुस्लिमुस्सबूत है कि लोगों ने बेइरादा, बेसाख़्ता, इर्तिजालन ख़्वाब में या नीम बेहोशी के आलम में, या Trance के आलम में भी शे’र कहे हैं।

अलावा बरीं, किसी शे’र को महज़ देखकर आप ये नहीं कह सकते कि ये बेइरादा कहा गया है कि बिलइरादा। ये मालूम करने के लिए आपके पास कुछ ख़ारिजी मालूमात भी होना चाहिए कि ये शे’र, शायर ने किस वक़्त, किस तरह और क्यों कहा था। ज़ाहिर है कि हर ग़ज़ल या हर नज़्म के बारे में ये मालूमात हासिल नहीं हो सकती। और अगर हो भी जाये तो तवील नज़्मों, ड्रामों और मसनवियों का क्या बनेगा? उनके बारे में कैसे मालूम होगा कि कौन सा मिसरा किस तरह कहा गया था? इसमें किसी ऐसी चीज़ को शर्त ठहराना जिसका तअय्युन ही दुशवार हो, नामुनासिब और ख़िलाफ़-ए-अक़्ल है। इस पर तुर्रा ये कि ये शर्त उसूल-ए-शायरी से इलाक़ा नहीं रखती, बल्कि एक ख़ारिजी बंदिश है। इस तरह की बंदिशें अगर लगाई जाएं तो एक वक़्त वो भी आ सकता है जब हम ये कहें कि वही शे’र, शे’र है जिसे गोरे आदमी ने कहा हो।

तीसरा और आख़िरी मफ़रूज़ा ये है कि शे’र के लिए मौज़ू की तख़सीस नहीं हो सकती। यानी क़तईयत के साथ ये नहीं कहा जा सकता कि फ़ुलां मौज़ूआत शायराना हैं और फ़ुलां ग़ैर शायराना, क्योंकि अव्वल तो हज़ारहा मौज़ू ऐसे हैं जो शे’र और नस्र दोनों में मुश्तर्क हैं और दूसरे ये कि ऐसे मौज़ूआत भी जो सिर्फ़ शे’र से मुख़तस कहे जा सकते हैं, हज़ारों की तादाद में हैं। फिर उनमें रोज़ बरोज़ इज़ाफ़ा भी होता रहता है। इसलिए मौज़ूआत शे’र की किसी जामे फ़ेहरिस्त की तर्तीब नामुमकिन है। लिहाज़ा शे’र को परखने और इसमें “शायरी” के उन्सुर को पहचानने और अलग करने के लिए मौज़ू की क़ैद नहीं लगाई जा सकती।

यानी हम ये नहीं कह सकते कि फ़ुलां शे’र में शायरी नहीं है, क्योंकि इसका मौज़ू ग़ैर शायराना है। इस तरह शे’र की पहचान या तारीफ़ या तन्क़ीस जो भी हो सकती है सिर्फ़ फ़न-ए-शेर के हवाले से हो सकती है। अहम तरीन मौज़ू पर भी कहा हुआ शे’र शायरी से आरी हो सकता है और पोच तरीन मौज़ू पर कहा हुआ शे’र आला दर्जे का भी हो सकता है। क्योंकि शे’र को परखने का पैमाना शायरी है, कोई शैय दीगर नहीं। शायरी का जो कुछ भी मौज़ू है उसके अलफ़ाज़ में बंद है, अलफ़ाज़ जो बक़ौल पास्तरनाक “हुस्न और मअनी का वतन और घर” होते हैं।

इन मफ़रूज़ों के बाद दो मसाइल और हैं जो शुरू में उठाए हुए सवालों से मुताल्लिक़ हैं। अव्वल तो ये कि हम सिर्फ़ उन्हीं ख़वास या निशानियों को शे’र की निशानियां ठहरा सकते हैं जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क नहीं हैं। इंतहाई अस्फ़ल सतह पर तो ये भी कहा जा सकता है कि शे’र में अलफ़ाज़ ख़ूबसूरत तरीक़े से इस्तेमाल किए जाते हैं। इस पहचान में पहली क़बाहत तो ये है कि ख़ूबसूरत की तारीफ़ क्या हो, और दूसरी ये कि चूँकि नस्र में भी अलफ़ाज़ आम सतह से ज़्यादा ख़ूबसूरत, बामअनी और मुनज़्ज़म ढंग से इस्तेमाल होते हैं, इसलिए शे’र का वस्फ़-ए-ज़ाती क्या हुआ? अगर ज़रा और पेचीदा बात कही जाये कि शे’र जिस तरह का इल्म बख़्शता है उस तरह का इल्म नस्र से नहीं हासिल हो सकता। तो सवाल ये उठता है कि इस इल्म की तख़सीस और पहचान कैसे हो? और शे’र कौन से ऐसे वसाइल इस्तेमाल करता है जिनके ज़रिए वो इस इल्म तक हमारी रसाई करता है जो नस्र से हमें नहीं मिलता?

लिहाज़ा वो निशानियां जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हैं, उनको पहचानने से हमारा मसला हल नहीं होता और न उन निशानियों का ज़िक्र करने से हमारी मुश्किल आसान होती है, जिनको अव्वल तो पहचानना मुश्किल है और अगर पहचान भी लिया जाये तो ये बताना मुश्किल है कि शे’र की उन तक रसाई क्यूँकर हुई। हमें तो उन निशानियों की तलाश है जो सिर्फ़ शे’र में पाई जाती हैं, या अगर नस्र में पाई भी जाती हैं तो अजनबी मालूम होती हैं, या फिर वो कम-कम पाई जाती हैं। ज़ाहिर है यहां भी हमारा तीसरा मफ़रूज़ा सामने आता है कि शे’र के पैदा कर्दा तास्सुर या जज़्बाती रद्द-ए-अमल की इक़दारी Qualitative या मिक़दारी Quantitative क़दर को शे’र की पहचान नहीं बनाया जा सकता। मसलन कोई शे’र बेसबाती दुनिया का तज़्किरा कर के हमें मुतास्सिर करता है, या कोई नज़्म इंसान की लाचारी का ज़िक्र कर के हमें मुतास्सिर करती है। जज़्बाती तास्सुर पैदा करने की ये क़ुव्वत जो शे’र में पाई जाती है, इस लिसानी तर्तीब के मुताले में हमारी कोई मदद नहीं करती, जिसे हम शे’र कहते हैं।

क्योंकि ये क़ुव्वत तो किसी अफ़साने, नावल या ड्रामे में भी हो सकती है। मुम्किन है कि इस क़ुव्वत का ज़िक्र और इससे मुतास्सिर होने की सलाहियत, शे’र का लुत्फ़ उठाने में हमारी मुआविन हो, लेकिन शे’र को पहचानने में हमारी मुआविन नहीं हो सकती। हम ये नहीं कह सकते कि चूँकि फ़ुलां लिसानी तर्तीब हमारे अंदर जज़्बाती तास्सुर पैदा करती है, इसलिए वो शे’र है क्योंकि ये जज़्बाती तास्सुर तो कई तरह की तहरीरों से पैदा हो सकता है, इसके लिए शे’र की क़ैद नहीं है। अगर शे’र में कोई ऐसी शैय नहीं है जो उसे नस्र से मुमताज़ कर सके, सिवाए बाक़ायदा वज़न के, तो नस्ल-ए-आदम किसी न किसी मौके़ पर तो पूछती कि शे’र गुफ़्तन च ज़रूर बूद? और फिर शे’र की पुरअसरार कुव्वतों और अथाह गहराइयों को छानने खंगालने के लिए इतनी तन्क़ीदी मोशिगाफ़ियों की क्या ज़रूरत थी? बस यही कह देते कि शे’र वही है जो नस्र है। वही फ़ित्ना है लेकिन याँ ज़रा साँचे में ढलता है। अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्ला।

लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं। यक़ीनन शे’र में ऐसे ख़साइस हैं जो नस्र में नहीं पाए जाते और अगर शे’र की तारीफ़ या तहसीन इन इस्तलाहों के ज़रिए की जाती है या की जाये जिनका इतलाक़ नस्र पर भी हो सकता है, तो ये तन्क़ीद की कमज़ोरी है। अब इसे क्या कीजिए कि न सिर्फ़ उर्दू तन्क़ीद, बल्कि बेशतर तन्क़ीद, शे’र के गिर्द तवाफ़ तो करती रही है, लेकिन उसे छूने, टटोलने और इसके जिस्म के ख़ुतूत की हदबंदी और पैमाइश करने से डरती रही है। आख़िर थक-हार कर ये भी कह दिया गया कि सारी तशरीह-ओ-तज्ज़िया के बाद जो चीज़ बच रहे वो शे’र है। मावारा-ए-सुख़न भी है इक बात का मफ़रूज़ा मशरिक़-ओ-मग़रिब दोनों में आम रहा है। ये दुरुस्त है कि इंतहाई माबाद उल तबीअयाती सतह पर शे’र की माअनवियत और हुस्न का तज्ज़िया या उसके बारे में कोई कुल्लिया तराज़ी मुम्किन नहीं, क्योंकि हर शख़्स के लिए शे’र अपना अलग वुजूद, अलग माअनवियत और अहमियत रखता है।

हम दरअसल मीर या ग़ालिब का नहीं बल्कि अपना शे’र पढ़ते हैं, जिस तरह जॉनसन ने कहा था कि शे’र में बहुत सारी मूसीक़ी ऐसी होती है जिसे हम और सिर्फ़ हम ख़ल्क़ करते हैं। लेकिन एक उमूमी सतह पर इफ़हाम-ओ-तफ़हीम के लिए और शे’र के तालिब-इल्म को तक़दीर शे’र की (कम से कम) वस्ती मंज़िल तक पहुंचाने के लिए यक़ीनन ऐसी निशानियां ढूँडी जा सकती हैं जो शे’र में शायरी के उन्सुर को पहचानने में मदद दे सकें और हमें ये बता सकें कि कौन सा शे’र शायरी है और कौन सा नहीं। यहीं पर दूसरा मसला भी उठता है कि अगर हम शे’र की पहचान ऐसी वज़ा करें या मुरत्तब करें जो मोज़ूई हो तो सारी मेहनत बेकार है, क्योंकि जिस तरह ऐसी पहचान फ़ुज़ूल है जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हो, उसी तरह ऐसी पहचान भी लाहासिल है जिसे देखने के लिए हमें मोज़ूई मेयार या नुक़्ता-ए-नज़र को काम में लाना पड़े।

मोज़ूई तर्ज़-ए-फ़िक्र के ख़तरात की वज़ाहत चंदाँ ज़रूरी नहीं। चूँकि मोज़ूई मंतिक़ हर फ़र्द के एतबार से बदलती रहती है, इसलिए ऐन-मुमकिन है कि मैं किसी चीज़ को शे’र में “शायरी” का नाम दूं और दलील ये दूं कि मैं ऐसा महसूस करता हूँ तो जवाब ये मिले कि आप महसूस करते होंगे, हम तो नहीं करते। अगर मैं ये कहूं कि ग़ालिब का ये शे’र,

महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा बाज़ ख़्याल
हैं वर्क़ गरदानी-ए-नैरंग यक बुतख़ाना हम

इसलिए ख़ूबसूरत है या शायरी है कि इसका आहंग बहुत दिलफ़रेब है तो जवाब ये हो सकता है कि हम तो उसके आहंग में कोई दिलफ़रेबी नहीं देखते। आप दिखाइए, कहाँ है। अगर मैं जवाब में कहूं कि इस शे’र में जो ख़्याल नज़्म हुआ है इसको इंतहाई मुनासिब आहंग मिल गया है, यही उसका हुस्न है। तो जवाब में कहा जा सकता है कि हमें तो ये आहंग इस ख़्याल के लिए क़तअन नामुनासिब मालूम होता है और अगर बफ़र्ज़-ए-मुहाल ऐसा हो भी, तो ये आहंग मुंदर्जा ज़ैल शे’र में इतना मुनासिब क्यों नहीं है जब कि बहर एक ही बल्कि रदीफ़-ओ-काफ़िया भी है,

हम गए थे शहर-ए-दिल्ली हमको इक लड़की मिली
देखते ही उसको फ़ौरन हो गए दीवाना हम

अब अगर मैं ये कहूं कि बहर और रदीफ़-ओ-क़ाफ़िया तो एक है, लेकिन इस शे’र में जो ख़्याल नज़्म किया गया है वो मुज़हिक है, इस वजह से आहंग मुनासिब नहीं मालूम होता। आप जवाब में कह सकते हैं कि अव्वलन तो हमें ये ख़्याल मुज़हिक नहीं मालूम होता लेकिन अगर मुज़हिक ख़्याल के लिए ये आहंग नामौज़ूं है तो इस शे’र के बारे में क्या ख़्याल है,

अपनी ग़फ़लत की यही हालत अगर क़ायम रही
आएँगे ग़स्साल काबुल से कफ़न जापान से

यहां आहंग मुतनासिब क्यों महसूस होता है? अब मैं जवाब में कह सकता हूँ, मुझे तो नहीं महसूस होता। इस पर ये कहा जा सकता है कि अच्छा ये बताइए कि मुंदर्जा ज़ैल आहंग संजीदा है कि मुज़हिक,

फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन

मैं अगर ये कहूं कि न संजीदा है न मुज़हिक बल्कि बेमानी है तो सवाल हो सकता है कि फिर इक़बाल के शे’र के लिए नामुनासिब क्यों हुआ? वग़ैरा वग़ैरा। इस तरह हमारा आपका झगड़ा ता क़यामत चलता रहेगा, कभी कोई फ़ैसला न हो पाएगा। बहुत से संजीदा और मोतबर नक़्क़ादों ने तो यही कह कर बहस बंद कर दी है कि अगर आप में शे’र शनासी का मलिका नहीं है तो हम क्या कर सकते हैं। चुनांचे पुरानी तन्क़ीद के अहम तरीन नक़्क़ाद मसऊद हसन रिज़वी अदीब जो अपने वक़्त में जदीद थे, और आज भी उनकी तहरीरें बा’ज़ जदीद नज़रियात की बेश बीनी करती नज़र आती हैं 2 कहते हैं,

“जिन चीज़ों से कलाम में असर पैदा होता है, वो शे’र में अलैहदा अलैहदा मौजूद नहीं होतीं, बल्कि वो सब या उनमें चंद, तरकीबी हालत में पाई जाती हैं। उनकी तरकीब से शे’र में जो कैफ़ियत पैदा हो जाती है उसका इज़हार लफ़्ज़ों में बहुत मुश्किल है और वही कैफ़ियत शे’र की रूह होती है… जो लोग इस (यानी शे’र से लुत्फ़ अंदोज़ी) की सलाहियत से फ़ित्रतन महरूम हैं, उनके लिए शे’र के असर की तहलील-ओ-तौज़ीह बेसूद है।”

यहां पर ये ग़लतफ़हमी भी कारफ़रमा हो गई है कि शे’र की खूबियां परखना और उससे लुत्फ़ अंदोज़ होना एक ही चीज़ के दो नाम हैं। मुम्किन है कि मुझे ताज महल देखकर कोई लुत्फ़ न आए, लेकिन अगर मैं फ़न-ए-तामीरात की बारीकियों का नुक्ता शनास हूँ तो मैं उसके हुस्न-ए-क़ुबह को तो पहचान ही सकता हूँ। मौज़ूई तास्सुर पर इतना ज़ोर दरअसल इसी वजह से दिया गया है कि नक़्क़ाद को शे’र की पुरअसरार कुव्वतों का शदीद एहसास है लेकिन मुश्किल ये आ पड़ी है कि कम से कम एक हद तक तो उन मशीनी अवामिल को पहचाना जाये जिनकी वजह से वो पुरअसरार क़ुव्वतें शे’र में दर आई हैं। अगर ऐसा करने की कोई सूरत नहीं है तो ये वाक़ई एक बड़ा अलमिया है कि शायरी जो ज़ेहन-ए-इंसान की बेहतरीन और आला तरीन तख़लीक़ है, इसको जानने, पहचानने और परखने के लिए मौज़ूई और दाख़िली मेयारों का सहारा लेना पड़े जो नाक़ाबिल-ए-एतबार नहीं भी हैं तो कम से कम पाय-ए-सबूत से यक़ीनन साक़ित हैं।

लेकिन इस को क्या-किया जाये कि हक़ीक़त-ए-हाल यही है। मशरिक़ी तन्क़ीद ने शे’र के मुहासिन (और इस तरह उसकी पहचान) मुतअय्यन करने की कोशिश ज़रूर की है, और इस सिलसिले में वो मग़रिब से आगे भी रही है, क्योंकि मग़रिब ने तो एक तरफ़ वजदान और ज़ौक़ का सहारा लिया, दूसरी तरफ़ ऐसे ख़वास मुतअय्यन किए जो फ़ीनफ़सही अहम हैं, लेकिन उनका इतलाक़ नस्र पर भी हो सकता है। मशरिक़ में वजदान पर इतना ज़ोर नहीं दिया गया बल्कि यहां ये हुआ कि वजदानी इल्म के ज़रिए जो ख़वास पहचाने जा सके, उनको मारुज़ी इस्तलाहों के ज़रिए ज़ाहिर करने की कोशिश की गई, या फिर ऐसे ख़वास तै कर दिए गए जिनका इतलाक़ तमाम शायरी पर नहीं हो सकता, बल्कि उनकी हैसियत किसी शख़्स वाहिद की पसंद या इन्फ़िरादी (और अक्सर) ग़ैर मंतक़ी, बेउसूल Arbitrary फ़ैसले की थी। तीसरी सूरत ये हुई कि शे’र की जो खूबियां बयान की गईं वो या तो तमाम शायरी पर हावी नहीं होतीं, या ऐसी थीं जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क थीं।

वजदानी मेयार की एक क़दीम मिसाल ख़्वाजा क़ुतुब उद्दीन बख़्तियार काकी के इस सवाल का जवाब है जो उन्होंने शाह अबदुर्रहीम के सामने पेश किया था। जब ख़्वाजा क़ुतुब उद्दीन बुख़्तियार काकी ने उनसे शे’र की तारीफ़ पूछी तो उन्होंने जवाब में कहा, कलाम-ए-हुस्ना, हुस्न-ओ-क़बीहा, क़ुब्ह। यानी ऐसा कलाम जिसकी ख़ूबसूरती हुस्न है और जिसकी बदसूरती क़ुब्ह है। ज़ाहिर है कि शाह अबदुर्रहीम ने हुस्न और क़ुब्ह की इस्तलाहें मुतलक़ हुस्न और मुतलक़ क़ुब्ह के मअनी में इस्तेमाल की थीं, लेकिन फिर भी इससे साइल का मसला हल नहीं होता, क्योंकि ख़ूबसूरती और बदसूरती की तारीफ़ नहीं की गई है। हमारे ज़माने से क़रीब-तर मिसाल ग़ालिब की है जिन्होंने शे’र की तारीफ़ करते हुए बेहतरीन तर्ज़-ए-शे’र को ‘‘शेवा बयानी” और शेवा बयानी को सुख़न-ए-इश्क़ व इश्क़-ए-सुख़न, कलाम-ए-हुस्न व हुस्न-ए-कलाम, से ताबीर किया था।

ज़ाहिर है कि इससे ज़्यादा मुहमल तारीफ़ मुम्किन ही नहीं, क्योंकि इन चार में से एक शर्त भी ऐसी नहीं है जिसे मारुज़ी तौर पर तो कुजा, मौज़ूई तौर पर भी समझा जा सके। लेकिन, जैसा कि मैं कह चुका हूँ, मशरिक़ में ज़्यादातर ज़ोर इस बात पर रहा है कि मौज़ूई इल्म को मारुज़ी बयान में अदा किया जाये, मसलन अरबी शायर का ये क़ौल कि बेहतरीन शे’र वो है कि जब पढ़ा जाये तो लोग कहें कि सच कहा है। या इब्न रशीक़ का ये कहना कि बेहतरीन शे’र वो है कि जब पढ़ा जाये तो लोग ये समझें कि हम भी ऐसा कह सकते हैं लेकिन कोई दरअसल ऐसा कह न पाए (ग़ालिब ने यही तारीफ़ सहल मुम्तना की लिखी है।) या ये कहना कि अच्छा शे’र वो है जिसके मअनी मुकम्मल शे’र सुनने से पहले ज़ेहन में आ जाएं।

ये सब तारीफ़ें और इस तरह की बहुत सी और, जिनके हवालों से मुक़द्दमा शे’र-ओ-शायरी भरा पड़ा है, मौज़ूई फ़िक्र की नाकामी की निशानदेही करती हैं, क्योंकि मौज़ू को मारूज़ में इस तरह बदलना कि उसकी सच्चाई पूरी पूरी बरक़रार रहे, मुम्किन नहीं है। अरबों की तरह शेक्सपियर ने भी कहा था कि सबसे सच्ची शायरी सबसे ज़्यादा झूटी होती है (अहसन उल-शुआरा क़ज़ बह।) इसका मफ़हूम हाली ने ये निकाला है कि ऐसी शायरी असलियत और जोश दोनों से आरी होगी, जब कि असलियत और जोश अच्छी शायरी की पहचान हैं। जब हाली जैसे समझदार लोग भी मौज़ू से मारूज़ में आकर इतनी बड़ी ग़लती कर सकते हैं तो हमारा आपका पूछना ही क्या है।

ख़ुद हाली की ये उसूल बंदी कि शायरी असलियत, सादगी और जोश से इबारत है, मिल्टन को ग़लत समझने का नतीजा तो है ही, लेकिन इस ग़ैर मंतक़ी बेउसूल Arbitrary तअय्युन की भी मिसाल है जिसका इल्ज़ाम उन्होंने ख़लील बिन अहमद पर रखा था। ख़लील बिन अहमद का ये क़ौल नक़ल कर के कि अच्छा शे’र वो है जिसका क़ाफ़िया शे’र पूरा होने के पहले सामे के ज़ेहन में आ जाये, वो कहते हैं, ‘‘ये तारीफ़ न जामे है और न माने। मुम्किन है शे’र अदना दर्जे का हो और इसमें ये बात पाई जाये, और मुम्किन है शे’र आला दर्जे का हो और उसमें ये बात न पाई जाये।” बिल्कुल दुरुस्त, लेकिन यही बात सादगी, असलियत और जोश पर भी सादिक़ आती है, और भी कि उनमें से कोई सिफ़त ऐसी नहीं है जो सिर्फ़ शे’र से मुख़तस हो। मसलन हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है, की क़िस्म के सियासी नारों में सादगी, असलियत और जोश सब हैं, लेकिन उनमें शायरी भी है, शायद हाली भी उसे तस्लीम न करते।

शे’र की अमली तन्क़ीद करते वक़्त मशरिक़ी तन्क़ीद ने जो इस्तिलाहें वज़ा कीं उनमें बड़ा ऐब ये रहा कि वो नस्र और नज़्म दोनों पर मुंतबिक़ हो सकती हैं। इब्न ख़ुलदून का ये क़ौल कि नस्र हो या नज़्म, अलफ़ाज़ ही सब कुछ होते हैं, ख़्याल अलफ़ाज़ का पाबंद होता है, हाली जिसका मज़ाक़ उड़ाते हैं और जो आज मग़रिबी तन्क़ीद में हाथों-हाथ लिया जा रहा है, और जिसे मला रमे और डेगा के मशहूर मकालमे के बराबर अहमियत दी जा रही है (जब मलारमे ने डेगा से कहा था कि मियां शायरी ख़्यालात से नहीं अलफ़ाज़ से होती है।) अगर सामने रखा जाता तो लफ़्ज़ के सतही मुहासिन (सनाइअ बदाए) के बालों की इतनी खालें न निकाली जातीं।

बहरहाल माअनवी मुहासिन के लिए जो इस्तिलाही ज़बान इस्तेमाल की गई है इसके लिए दो तीन मिसालें काफ़ी हैं। इमदाद इमाम असर काशिफ़ उलहकायक में लिखते हैं कि फ़ारसी की कोई मसनवी ऐसी नहीं है जो दिलकशी फ़ित्रत निगारी में स्काट की The Lady Of The Lake का मुक़ाबला कर सके आगे चल कर वो हिदायतनामा ग़ज़लगोई का उनवान क़ायम करके बीस हिदायतें रक़म करते हैं, उनमें से चंद हस्ब-ए-ज़ैल हैं,

(1) अदाए मतलब के लिए ग़ज़लगो की ज़बान को सलीस होना चाहिए किस वास्ते कि वारदात-ए-कलबियह के बयानात मुग़ल्लिक़ात से बेतासीर हो जाते हैं।

(2) जिस क़दर मुम्किन हो ज़बान की सादगी मलहूज़ रहे। ग़ज़लगोई को सनाइअ बदाए की हाजत नहीं होती।

(3) हत्तल अमकान तशबीह इस्तिआरा दख़ल न पाएं। ये चीज़ें शायर की इज्ज़-ए-तबीयत का पता देती हैं।

(8) ग़ज़ल के जितने मज़ामीन हों दाख़िली हों।

(12) बंदिशें ऐसी न हों कि मज़ाक़-ए-सही से ख़ारिज पाई जाएं (मज़ाक़ सही इबारत है तबईत फ़ित्रत से।)

(20) ग़ज़लगो का फ़र्ज़-ए-मंसबी है कि क़ुर्ब-ए-सुलतानी से ताहद-ए-इमकान किनाराकश रहे…

इस बात की वज़ाहत ग़ालिबन ग़ैर ज़रूरी है कि न तो ये शराइत तमाम ग़ज़ल की शायरी पर मुंतबिक़ हो सकते हैं, न इनकी मारुज़ी तफ़हीम मुम्किन है और न उन्हें शे’र से मुख़्तस समझा जा सकता है। शिबली इमदाद इमाम असर से ज़्यादा मुहतात थे। शे’र उल अजम जिल्द पंजुम में कहते हैं, “सबसे बड़ी चीज़ जो ख़्वाजा हाफ़िज़ के कलाम में है हुस्न बयान, ख़ूबी अदा और लताफ़त है। लेकिन ये ज़ौक़ी चीज़ है जो किसी क़ायदे और क़ानून की पाबंद नहीं। फ़साहत-ओ-बलाग़त के तमाम उसूल उसके अहाते से आजिज़ हैं। एक ही मज़मून है, सो-सौ तरह से लोग कहते हैं, वो बात नहीं पैदा होती। एक शख़्स इसी ख़्याल को मालूम नहीं किन लफ़्ज़ों में अदा कर देता है कि जादू बन जाता है… ग़ज़ल की एक ख़ास ज़बान है, जिसमें नज़ाकत, लताफ़त और लोच होता है, इस क़िस्म की ज़बान के लिए ख़्यालात भी ख़ास होते हैं।”

इस तमाम तन्क़ीदी महाकमे में ये तो महसूस होता है कि सुख़न-फ़हमी उस शख़्स में ज़्यादा है, लेकिन जिन अलफ़ाज़ में वो उसका इज़हार कर रहा है, उनसे क़दम क़दम पर इख़्तिलाफ़ हो सकता है। उसने इख़्तिलाफ़ का दरवाज़ा ही ये कह कर बंद कर दिया है कि ये ज़ौक़ी चीज़ है, किसी क़ायदे क़ानून की पाबंद नहीं। लेकिन इस तामीम का नतीजा ये हुआ कि यही हुस्न-ए- बयान, ख़ूबी-ए-अदा, लताफ़त और जादूनिगारी लोगों ने अनीस के कलाम में भी ढूंढ ली। चुनांचे नौबत राय नज़र लिखते हैं कि अनीस के यहां, “मज़मून की ताज़गी, जिद्दत-ए-ख़्याल, अलफ़ाज़ की बरजस्तगी, तसलसुल-ए-बयान और ज़ोर नज़्म के साथ बयान की घुलावट एक ऐसा लुत्फ़ रखती है जो बयान से बाहर है।” ये बात तो नौबत राय नज़र को भी मालूम होगी कि हाफ़िज़ और अनीस में बोद उल-मुशरक़ीन है, लेकिन इसको वो ज़ाहिर किस तरह करेंगे, ये समझ में नहीं आता।

इस तरह दरअसल नक़द शे’र के दो मसाइल हैं, एक तो ये कि शायरी को क्यूँ कर पहचाना जाये और दूसरे ये कि दो शायरियों में तफ़रीक़ क्यूँ कर हो। मग़रिबी तन्क़ीद पहले सवाल में बहुत ज़्यादा मुनहमिक रही है। लेकिन वहां भी यही मसला था कि शायरी एक ख़ूबसूरत चीज़ है, लेकिन ख़ूबसूरती को नापने या गिरफ़्त में लाने का वसीला क्या हो? इसके जवाब में या तो वजदानी टामक टूईयां होती रहीं या नफ़्सियाती जमालियात का सहारा लिया गया। वजदानियों ने ये तै किया कि ख़ूबसूरती को गिरफ़्त में लाने के लिए ज़ौक़ Taste असल चीज़ है। लिहाज़ा एडीसन ने कहा कि,

“ज़ौक़, रूह (लफ़्ज़ रूह तवज्जो तलब है) की वो सलाहियत है जो किसी मुसन्निफ़ के मुहासिन को लुत्फ़ के साथ और मआइब को नापसंदीदगी के साथ पहचानती है… जिस क़िस्म के ज़ौक़ की मैं बात कर रहा हूँ उसके लिए क़ानून क़ाएदे बनाना बहुत मुश्किल है। ये ज़रूरी है कि ये सलाहियत किसी न किसी हद तक वहबी हो और ऐसा अक्सर हुआ है कि बहुत से लोग जो दूसरे ख़वास के बदरजा-ए-अतम हामिल थे, ज़ौक़ से क़तअन आरी निकले हैं।”

ख़ैर एडीसन की बिसात ही क्या थी, बर्क ने पूरी किताब इसी मौज़ू पर लिखी है कि ख़ूबसूरती को कैसे पहचानें। वो ख़ुद कहता है कि “मेरी इस छानबीन का मक़सद ये पता लगाना है कि क्या ऐसे कोई उसूल हैं जो इंसानी तख़य्युल पर यकसाँ तरीक़े से असरअंदाज़ होते हैं, और इस तरह ज़ौक़ की तदवीन करते हैं।” वो दावा करता है कि हाँ, हैं। लेकिन दलील मैं कहता है, “जहां तक कि ज़ौक़ को तख़य्युल का पाबंद कहा जा सकता है, उसका उसूल तमाम लोगों में एक ही है… उनके मुतास्सिर होने के दर्जात में फ़र्क़ हो सकता है। ये फ़र्क़ ख़ुसूसन दो वुजूह से होता है, या तो फ़ित्री हिस्सियत की कसरत से, या शैय मौज़ूआ पर ज़्यादा देर तक और कसीर तवज्जा सर्फ़ करने से… क्योंकि हिस्सियत और क़ुव्वत-ए-फै़सला (जिन दो ख़वास पर हमज़ौक़ को मुनहसिर समझ सकते हैं) मुख़्तलिफ़ लोगों में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ के साथ पाए जाते हैं।”

लिहाज़ा साबित हुआ कि ज़ौक़ एक ना-क़ाबिल-ए-एतबार चीज़ है, क्योंकि हर शख़्स अपने अपने तजुर्बे, हिस्सियत और क़ुव्वत-ए-फै़सला से मजबूर है। कोई ज़रूरी नहीं कि मेरा ज़ौक़ सही ही हो। ये भी ज़रूरी नहीं है कि ग़लत हो, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ग़लत न होगा। अक़ली दलायल से क़त-ए-नज़र, अगर ज़ौक़ या ज़ौक़-ए-सलीम इतना ही मोतमिद होता कि शायरी को पहचानने में हमेशा न सही, अक्सर सही साबित होता, तो ग़ालिब को ऐसे सैकड़ों शे’र दीवान से न ख़ारिज करने पड़ते जो उर्दू क्या, तमाम शायरी का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ हैं। लोग अमीर-ओ-दाग़-ओ-हसरत की ग़ज़लों पर बरसों सर न धुनते। आज यगाना की ग़ज़लगोई का इतना ग़लग़ला न होता और पो के इस दावे के बावजूद कि “ज़ौक़ हमें हुस्न का इल्म बख़्शता है या हुस्न के बारे में हमें मुत्तला करता है, उसी तरह, जिस तरह अक़ल हमें सच्चाई के बारे में मुत्तला करती है।” हम रोज़ाना ज़ौक़ की ग़लतियों के शिकार हो कर राबर्ट बर्जज़ की तरह हापकिंज़ की बेहतरीन शायरी पर नाक भों न चढ़ाते। इस सिलसिले में कोलरिज और वर्डज़ वर्थ का एहतिजाज क़ाबिल-ए-लिहाज़ है। कोलरिज ने तो ये कह कर बस किया कि,

“अज़ीम अज़हान अपने अह्द का ज़ौक़ पैदा कर सकते और करते हैं, और क़ौमों और अदवार के ज़ौक़ को बिगाड़ने वाली वजूह में एक ये भी है कि जीनियस के हामिल लोग कुछ हद तक तो ज़ौक़-ए-आम के सामने घुटने टेक देते हैं और कुछ हद तक उससे मुतास्सिर हो जाते हैं।” (इस तरह अपना ज़ौक़ बिगाड़ लेते हैं।)

लेकिन वर्डज़ वर्थ ने 1815 ई. के दीबाचे में साफ़ साफ़ कह दिया, “हर मुसन्निफ़, जिस हद तक वो अज़ीम और ओरीजनल है, के ज़िम्मे ये भी फ़र्ज़ रहा है कि वो उस ज़ौक़ को पैदा करे जिसके ज़रिए उससे लुत्फ़ अंदोज़ होना मुम्किन है। ऐसा ही हुआ है और होता रहेगा। जीनियस ज़ेहन का कायनात में एक नए उन्सुर के दखूल का नाम है।”

इस के मअनी ये हुए कि हर नए और अहम शायर के पैदा होने के साथ ही हम नया ज़ौक़ भी हासिल करें। लेकिन मुश्किल ये है कि ये हमें कौन बताएगा कि कौन सा शायर नया और अहम है? अगर ज़ौक़ की गु़लामी सही है तो ये दोहरी गु़लामी है। जब तक हम ज़ौक़ पैदा न करें नए और अहम शायर से लुत्फ़ अंदोज़ नहीं हो सकते। लेकिन जब तक हम में ज़ौक़ नहीं है, हम ये जान ही नहीं सकते कि फ़ुलां शायर नया और अहम है और हमें उसके हस्ब-ए-हाल ज़ौक़ अपने अंदर पैदा करना है। कोलरिज ने ये कह कर बात तो तमाम कर दी कि बड़ा शायर, मज़ाक़-ए-आम को बनाता भी और ख़ुद उससे बिगड़ता भी है। लेकिन मसला जूं का तूं रहा कि वो ख़ूबसूरती जिसे ज़ौक़ की मदद से देखा जा सकता है, क्या है। देखें इस सिलसिले में कोलरिज क्या कहता है,

सबसे पहली बात तो ये है कि वो हईयत को हुस्न से अलग नहीं करता, बल्कि एक तरह से हईयत ही को हुस्न मानता है। लेकिन मुश्किल ये कि इन तमाम सिफ़ात को शे’र में किस तरह मुनाकिस देखा जाये, ये बात नहीं खुलती। पहले तो हम ये जानें कि शायरी क्या है, फिर देखें इसमें वो चीज़ें हैं कि नहीं जो कोलरिज ने बताई हैं। सिर्फ़ एक बात ऐसी है जो शायराना हुस्न की मुजर्रिद तारीफ़ में कही गई है, यानी ख़ुश हईयती का ज़िंदगी से इम्तिज़ाज। इस तारीफ़ की मौज़ूइयत ज़ाहिर है। दरअसल, कोलरिज जिन मसाइल पर गुफ़्तगु कर रहा है वो अभी हमारी दस्तरस से बहुत दूर हैं। हम तो हनूज़ रोज़-ए-अव्वल में हैं। ये इक़तबासात मुलाहिज़ा हों। मैंने तारीखें भी दे दी हैं ताकि उसके फ़िक्री इर्तिक़ा का अंदाज़ा हो सके,

“हुस्न क्या है? तजरीदी एतबार से देखा जाये तो ये कसीर उल जहत की वहदत है। मुख्तलिफ़-उन-नौअ का इदग़ाम है ठोस शक्ल में, ये हईती एतबार से मुतनासिब का ज़िंदगी Vital से इम्तिज़ाज है।” (बाक़ियात, मतबूआ 1836/1839)

“एक ज़िंदा वुजूद के लिए ज़रूरी है कि वो मुनज़्ज़म भी हो और तंज़ीम, अजज़ा के उस बाहमी तवाफ़िक़ का नाम है जिसमें हर जुज़, कुल का हिस्सा भी है और कुल की तामीर भी करता है, हत्ता कि हर जज़्बा यक वक़्त मक़सद भी होता है और ज़रिया भी… जब हम किसी मुक़र्ररा मवाद पर कोई पहले से तय-शुदा हईयत मुसल्लत करते हैं तो मशीनी हईयत वुजूद में आती है… (असल) हईयत वही है जो ज़िंदगी है।” (लेक्चर,1818)

“मूसीक़ी के इंबिसात का एहसास और उस एहसास को ख़ल्क़ करने की क़ुव्वत, ये तख़य्युल का अतीया होते हैं, साथ ही साथ, कसरत को तास्सुर की वहदत में ढालने की क़ुव्वत भी।” (तख़य्युल का अतीया होती है।), (बाक़ियात, मतबूआ 1836/1839)

गोया अपनी फ़िक्री ज़िंदगी के शबाब से लेकर उसकी तकमील तक कोलरिज मुख्तलिफ़-उन-नौअ की वहदत में इदग़ाम, ज़िंदा हईयत और तख़य्युली क़ुव्वत को शे’र की असास बताता रहा। इस बात से इनकार मुम्किन नहीं कि शे’र की आला अमलियात को समझने और उसकी गहराइयों में उतरने के लिए कोलरिज और उसके शागिर्द रिचर्ड्स से बढ़कर कोई रहनुमा नहीं। उनको साथ ले चलिए तो ख़ौफ़ गुमराही नहीं, क्योंकि उनका क़लम भी दश्त-ए-सुख़न में असा की तरह सहारा देता है। लेकिन उनके साथ चलने के लिए जिस तैयारी की ज़रूरत है वो उनसे नहीं मिल सकती। क़दम क़दम पर सवाल उठता है, हईयती एतबार से मुतनासिब क्या है और क्या नहीं? ज़िंदगी या ज़िंदा वुजूद से जब उसका इम्तिज़ाज होता है तो क्या शक्ल होती है? इस शक्ल के बुनियादी ख़वास क्या हैं? जुज़ किस तरह कुल का हिस्सा भी हो सकता है और उसकी तामीर भी कर सकता है? इन सवालों का जवाब देने से ख़ुद कोलरिज को भी गुरेज़ है क्योंकि आख़िरी इक़तबास यूं ख़त्म होता है,

“(ये सलाहियतें) मश्क़-ओ-मज़ावलत के ज़रिए आहिस्ता-आहिस्ता उगाई जा सकती हैं या तरक़्क़ी दी जा सकती हैं और उन्हें जिला दी जा सकती है, लेकिन उन्हें सीखा कभी नहीं जा सकता।”

कोलरिज ने कांट से बहुत कुछ सीखा था और उसके माबाद उल तबीअयाती तसव्वुरात को शे’र पर मुंतबिक़ करने की कोशिश की थी। लिहाज़ा कांत से भी रुजू कर लिया जाये कि वो हुस्न की तारीफ़-ओ-तअय्युन किस तरह करता है। मेरे ख़्याल में कांट पहला और आख़िरी मग़रिबी फ़लसफ़ी है जिसने हुस्न की मारुज़ी तारीफ़ ढूँढने की बहुत कोशिश की। लेकिन उस मारूज़ियत तक पहुंचने के लिए उसने जो शराइत बयान किए हैं वो कोलरिज के इतने पेचीदा न सही,लेकिन उससे कम नामुम्किन उल-अमल नहीं हैं। वो सबसे पहले तो हुस्न की “बे मक़सदियत” पर ज़ोर देता है, यानी हुस्न मक़्सूदबिज़्ज़ात है। यहां तक तो ख़ैर ग़नीमत है।

लेकिन जब वो ये कहता है कि जमालियाती तजुर्बे की ख़ासियत ये होती है कि इसका तजुर्बा करने वाला “बेग़रज़ होता है, यानी उसके एहसास-ए-मसर्रत में सिए मश्हूदा को हासिल करने, उस पर क़ब्ज़ा करने, उसको इस्तेमाल करने का जज़्बा नहीं होता, तो बड़ी मुश्किल आ पड़ती है, क्योंकि हम रोज़ाना इस उसूल का इबताल करते और देखते रहते हैं। लेकिन इस पर भी बस न कर के वो ये कहता है, चूँकि हर शख़्स जमालियाती तजुर्बे पर क़ादिर है (यानी हसीन चीज़ को हसीन समझता है) और अगरचे ये तजुर्बा असलन मौज़ूई है, लेकिन चूँकि इसकी हैसियत आफ़ाक़ी है, इसलिए इस आफ़ाक़ियत की बिना पर ही उसकी मौज़ूइयत, मारुज़ी तजुर्बे के बराबर है।

यानी वो इंतहाई दीदा दिलेरी से आफ़ाक़ी मौज़ूइयत की इस्तिलाह तराश कर के उसे मारूज़ियत का हमपल्ला क़रार देता है। लेकिन हुस्न का मौज़ूई तजुर्बा अगर इतना ही मारुज़ी होता तो फिर ये रोज़ रोज़ के झगड़े क्यों होते कि फ़ुलां शायर अच्छा है या बुरा है? नई शायरी पर इतना लॉन तान क्यों होता? किसी शायर को एक अह्द में मतऊन और दूसरे में मुहतरम क्यों ठहराया जाता? कांट ज़ाती पसंद नापसंद की बात भी करता है, लेकिन फिर भी कहता है कि बुनियादी तौर पर किसी शैय (मसलन बनफ़शई रंग) के हुस्न का एहसास किसी मौज़ूई तहरीम Inhibition का पाबंद नहीं। ख़ुद उसके अलफ़ाज़ में सुनिए,

कोई ऐसा तवाज़ुन, ऐसी हम-आहंगी ज़रूर होगी जिसमें दाख़िली तनासुब (यानी मौज़ूई तजुर्बा) इल्म बिल इदराक Cognition के मक़सद के लिए ज़ेहनी कुव्वतों को जगाने के वास्ते मौज़ूं तरीन हो… (अगर ऐसा है) तो ऐसा तवाज़ुन और हम-आहंगी यक़ीनन सबके हिस्से की शैय होगी… इस तरह साबित होता है कि अक़ल उमूमी Common Sense के वुजूद को तस्लीम करने के लिए मज़बूत दलायल मौजूद हैं।” इससे पहले वो ये भी कह चुका है, “अगर कोई शख़्स किसी चीज़ को ख़ूबसूरत गर्दानता है… तो वो सिर्फ़ अपनी तरफ़ से और अपने लिए ये फ़ैसला नहीं करता, बल्कि सब के लिए करता है, और तब हुस्न की बात यूं करता है जैसे कि वो इस शैय का वस्फ़ ज़ाती हो। इसलिए वो कहता है, ये शैय ख़ूबसूरत है।”

हुस्न अश्या का वस्फ़ ज़ाती है, ये तो समझ में आता है, लेकिन इस आफ़ाक़ी एतबारियत Validity को किस ख़ाने में रखा जाये जिसकी रू से एक शख़्स सब के लिए फ़ैसला कर देता है? इस मुश्किल को हल करने के लिए कांट इल्म बिल इदराक का सहारा लेकर कहता है कि जिस चीज़ का इदराक न हो सके वो मारुज़ी नहीं हो सकती। ये भी समझ में आता है, लेकिन इदराक हमेशा यकसाँ कब और क्यों रहता है? इसका कोई जवाब नहीं।

कांट को अपनी ताबीरों पर इस क़दर एतमाद है कि उन्हें नफ़्सियात की भी रू से साबित करने की कोशिश नहीं करता, लेकिन दर-हक़ीक़त उसके नज़रियात अफ़लातून की ख़्याली ऐनियत Ideal Idealism से किसी दर्जा मुतास्सिर हैं, उसके इज़हार की ज़रूरत नहीं। बक़ौल कंथ बर्क, बस इस बात की ज़रूरत है कि “हम अफ़लातून के आफ़ाक़ी मुस्लिमात को आसमान से उतार कर इंसानी ज़ेहन में बिठा दें और इस तरह उन्हें माबाद उल तबीईयाती न बना कर नफ़्सियाती बना दें। अब ऐनी हईयतों की जगह “असर-अंदाज़ होने की शराइत” ने ले ली है। अब आसमान में किसी ऐनी उलूही तज़ाद की ज़रूरत नहीं है ताकि जिसके इनअकास के तौर पर मैं तज़ाद का एहसास कर सकूं, अब सिर्फ़ मेरी ज़ेहन में तज़ाद का शऊर होना ज़रूरी है।”

बहुत से पढ़े लिखे लोग (जिनमें मुहम्मद हसन अस्करी भी शामिल हैं) कहते हैं कि मग़रिब में मंतक़ी इस्बातियत को शिकस्त हो रही है, और जो लोग कहते थे कि मंतक़ी इस्बातियत अमर है, फ़लसफ़ा मर चुका है, अब हैगल की माबाद उल तबीईयात की तरफ़ दुनिया का रुजहान देखकर हैरान हो रहे हैं। मुम्किन है ये बात सही हो, ख़ुद कंथ बर्क का मुंदर्जा बाला बयान, जो अफ़लातून के दिफ़ा में है, इस बात का सबूत है। लेकिन माबाद उल तबीईयात आला सतह पर चाहे कितनी ही कारा॓मद, मानी-ख़ेज़ और इसरार की निक़ाब कुशा हो, लेकिन रोज़मर्रा ज़िंदगी के मसाइल हल करने में किसी काम की नहीं (ये मैं माबाद उल तबीईयात की तहक़ीर में नहीं कह रहा हूँ, क्योंकि मैं ख़ुद भी अस्लुलउसूल क़िस्म के हक़ायक़ का क़ाइल हूँ, मसला सिर्फ़ मुख़्तलिफ़ तर्ज़-ए-इल्म और उसकी इफ़ादियत का है।)

इस सवाल के जवाब के लिए कि, क्या मैं इस वक़्त शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी का मज़मून पढ़ रहा हूँ? अगर आप माबाद उल तबीईयात से रुजू करें तो एक वक़्त वो आएगा जब आपको मालूम होगा कि मज़मून कुजा और शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी कहाँ, ख़ुद आपका वुजूद भी मुश्तबहा है। ऐसे सवालों के जवाब तो मंतक़ी इस्बातियत यानी Logical Positivism से ही मिल सकते हैं। इसलिए कांट के मफ़रूज़ात पर इस सदी के सबसे बड़े मंतक़ी इस्बात परस्त बर्टरन्ड रसल की राय सुनिए,

“ह्यूम पर कांट की तफ़कीर के पहले बारह साल क़ानून अस्बाब-ओ-अलल पर ग़ौर करने में सर्फ़ हुए। पायानेकार उसने एक क़ाबिल-ए-लिहाज़ हल ढूंढ निकाला, उसने कहा ये ठीक है कि वाक़ई दुनिया (Real World) में अस्बाब पाए जाते हैं। लेकिन हम वाक़ई दुनिया के बारे में कुछ भी नहीं जान सकते। ज़वाहिर की दुनिया कि बस उसी का तजुर्बा हम कर सकते हैं, तरह तरह के ख़वास की हामिल है, जो दरअसल हमारे ही अता कर्दा (यानी तसव्वुर कर्दा) हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह वो शख़्स जो एक हरी ऐनक लगाए हुए है और जिसे वो उतार नहीं सकता, समझता है कि हर चीज़ हरी है। जिन मुद्रिकात Phenomenon का तजुर्बा हमको होता है, उनके अस्बाब होते हैं, वो अस्बाब कुछ और मुद्रिकात हैं।

हमें इस बात से कोई ग़रज़ न हुई चाहिए कि मुद्रिकात के पीछे जो हक़ीक़त है इसमें अस्बाब-ओ-अलल होते हैं कि नहीं, क्योंकि हम उसका तजुर्बा नहीं कर सकते। कांट रोज़ाना एक मुक़र्ररा वक़्त पर टहलने जाया करता था। उसके पीछे पीछे उसका नौकर छतरी लिए चलता था। वो बारह साल जो बड़े मियां ने “अक़ल-ए-ख़ालिस की तन्क़ीद” लिखने में लगाए, उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाने में कामयाब हो गए कि अगर पानी बरसा तो बारिश के वाक़ई क़तरों के बारे में ह्यूम कुछ भी कहे लेकिन उसकी छतरी उसे ये महसूस करने से बचा लेगी कि वो भीग रहा है… इस तरह कांट दिल-शिकस्ता नहीं बल्कि मुतमइन मरा। उसकी तौक़ीर हमेशा होती रही, यहां तक कि नातसी हुकूमत ने उसके नज़रियात को अपने सरकारी फ़लसफ़े का ओहदा दे दिया है।”

रसल की तंज़ियात से क़त-ए-नज़र, ये बात वाज़ेह है कि छतरी के नीचे खड़ा कांट जो ये महसूस कर रहा है कि वो भीग नहीं रहा है, उस फ़र्ज़ी शख़्स से मुख़्तलिफ़ नहीं है जो अगर किसी चीज़ को हसीन कहता है तो गोया सब के लिए ये फ़ैसला करता है, क्यों इल्म बिला इदराक में सब का हिस्सा है। वो इल्म बिला इदराक जो कांट को बताता है कि वो भीग नहीं रहा है। मैंने कांट की जमालियात को ज़रा तफ़सीली जगह इसलिए दे दी है कि उसकी भी तह में ज़ौक़ और वजदान का वही पुराना ढांचा दाँत निकाले हंस रहा है, मशरिक़ व मग़रिब की तन्क़ीद जिसके सह्र में गिरफ़्तार रही है।

मेरा मक़सद सिर्फ़ ये ज़ाहिर करना है कि ज़ौक़, चाहे वो बड़े से बड़े नक़्क़ाद का क्यों न हो, पहचान और निशानी का बदल नहीं हो सकता और मौज़ूई तजुर्बा मारुज़ी ज़बान में नहीं बयान हो सकता। चुनांचे कांट के जदीद तरीन शागिर्दों, मसलन मरेकरेगर और ई.डी.हर्ष 3 ने थक हार कर कह दिया है कि “किसी अदबी तहरीर की तशरीह (बयान) उन मौज़ूई रवैय्यों से बिलज़रूरत इज़ाफ़ी ताल्लुक़ रखती है जिन पर उसके मअनी मुश्तमिल हैं।” ये जुमला हर्ष का है। करेगर का इक़बाल और भी वाज़ेह है,

“अदबी शैय के वजूदी मर्तबे, उसके वुजूद, अदम वुजूद, मअनी और क़दर के बारे में जो भी फ़ैसला हमने उसके और अपने टकराओ के पहले क्या हो, लेकिन हम जानते हैं कि हम उसके बारे में गुफ़्तगु सिर्फ़ उस गर्द की हदों में कर सकते हैं जो इस टकराओ से पैदा हुई है। हम उठ खड़े तो होते हैं, लेकिन हम हू-ब-हू वही नहीं होते जो पहले थे, और क़तईयत के साथ ये बताने की कोशिश करते हैं कि हम किस क़ुव्वत से टकराए थे… कोई न कोई तरीक़ा, दूसरों के बयानात और तसव्वुरात का तक़ाबुल कर के तो ज़रूर होगा जिसके ज़रिए हम उस क़ुव्वत तक पहुंच सकें… ये एक ग़ैर क़तई और न फ़ैसल रास्ता है, अगरचे शायद यही एक रास्ता हमारे पास है।”

करेगर का ये नज़रिया इस हद तक तो बिल्कुल दुरुस्त है कि शे’र की माअनवियत हर शख़्स के लिए अलग अलग होती है। हर शख़्स अपना शे’र ख़ुद बनाता है। इसी वजह से अच्छे शे’र में तशरीह-ओ-तफ़हीम की राहें निकलती रहती हैं। लेकिन ख़ुदा के लिए कोई तो ऐसा उसूल होगा जिसकी रोशनी में हम ग़ालिब और अज़ीज़ लखनवी में फ़र्क़ कर सकें? आख़िर वो कौन सा हुस्न है जो ग़ालिब की तमाम शऊरी नक़ल के बावजूद अज़ीज़ लखनवी में नहीं है? अगर कोई साहब ये कहें कि हम अज़ीज़ लखनवी का शे’र पढ़ कर ख़ुद को उसी क़ुव्वत से दो-चार होते हुए महसूस करते हैं जिसकी तरफ़ करेगर ने इशारा किया है और ग़ालिब का शे’र हमें सर्द छोड़ देता है तो हम उनको क्या जवाब देंगे? मसऊद हसन रिज़वी अदीब,

लट्ठे को खड़ा किया खड़ा है
हाथी को बड़ा किया बड़ा है

की मिसाल देकर कहते हैं, “मौज़ूनियत से कलाम में असर पैदा होना तो मुसल्लम है। लेकिन हो सकता है कि किसी कलाम में कोई ऐसी बात हो जो मौज़ूनियत के असर को ज़ाइल कर दे। मसलन (महूला बाला शे’र) ये कलाम भी मौज़ूं है, मगर इसमें असर नाम को नहीं।”

मगर क्यों? इस कलाम में कौन सी ऐसी बात है जो मौज़ूनियत के असर को ज़ाइल कर देती है? अगर कोई शख़्स इस शे’र से हद दर्जा मुतास्सिर हो और कहे कि ये हम्द का निहायत उम्दा शे’र है तो इसको किस तरह समझाया जाये कि आप ग़लत कहते हैं। तो क्या हम घूम फिर कर कांट के तीसरे शागिर्द एलिज़ियो वाएवास तक आ जाएं, जो कहता है कि जमालियाती तजुर्बा एक ख़ुद कफ़ील तजुर्बा है और इस ख़ुसूसियत को वो उसकी “लाज़िमीयत” Intransitiveness से ताबीर करता है? ये लाज़िमीयत, यानी हुस्न का आज़ाद वुजूद क्या है?

“कुछ अश्या का किरदार असली होता है, और उनमें मौजूद होता है, लेकिन सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिए जिनमें मुनासिब मश्क़ व सलाहियत है कि सिर्फ़ उसी के ज़रिए से उसको देखाजा सकता है।” चलिए साहब हम सब अंधे हैं।

इस नज़रिए को रद्द करते हुए कि हर वो चीज़ जो मसर्रत बख़्शी है, ख़ूबसूरत है, रिचर्ड्स वग़ैरा ने लिखा था कि इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि ये एक बहुत ही महदूद तन्क़ीदी ज़बान का मुतहम्मिल हो सकता है। कांट का इनकार करते हुए रिचर्ड्स ने ये लिखा कि उसका नज़रिया-ए- ज़ौक़ का तअय्युन करने के लिए एक बेग़रज़ (यानी जज़्बे से आरी और ग़ैर दानिशवराना क़िस्म के ज़ौक़ का इस्तिहकाम करता है, जिसे उस लुत्फ़ से कोई इलाक़ा नहीं जो हवास-ए-ख़मसा या जज़्बात से मुताल्लिक़ है।

लेकिन ख़ुद रिचर्ड्स का नज़रिया-ए-इस्तिहाला Synesthesis अक़ली ज़ौक़ पर ज़्यादा मबनी है, मारुज़ी फ़िक्र पर कम। मसलन वो इस क़ुव्वत या शैय को हुस्न गर्दानता है जो इस्तिहालाती मुतवाज़नियत Synesthetic Equilibrium को राह दे। अगरचे ये इस्तिलाह ख़ुद भी बहुत ग़ैर क़तई है, लेकिन सवाल जूं का तूं रहता है कि अगर हाथी को बड़ा किया बड़ा है, पढ़ कर मुझे इस क़िस्म की मतवाज़नियत नसीब हो जाये जिसमें तमाम जज़्बात-ओ-महसूसात और लुत्फ़ अंदोज़ी की तमाम क़ुव्वतें अपने अपने मुनासिब अजज़ा और सही मिक़दार में मिलकर इस्तिहाला पैदा कर लें तो क्या हम इस शे’र को ख़ूबसूरत मान लेंगे?

और अगर रिचर्डस की इस्तिलाह साज़ी को कॉलिंगवुड के सयाक़-ओ-सबाक में रखकर पढ़ा जाये तो शे’र का आज़ाद वुजूद और मुस्तहकम हो जाता है, लेकिन बात आगे बढ़ती नहीं। या यूं कहें कि इन लोगों की बात इतनी आगे बढ़ी हुई है कि शुरू की मंज़िलें सब गर्द-ए-तफ़क्कुर से धुँदली या मादूम हो चुकी हैं। हमारे उस्ताद प्रोफ़ेसर ऐस.सी. देब ने एक बार हमारे एक साथी को पूना एलिस फ़रमर की किताब (सत्रहवीं सदी ड्रामा) पढ़ते हुए देखकर सख़्त सरज़निश की थी और कहा था कि मियां अभी अलिफ़ बे पढ़ना सीखो, तब बाद में मरबूत इबारत पढ़ना।

मेरी मुश्किल ये है कि मैं तन्क़ीद की अलिफ़ बे लिखना चाहता हूँ, और मेरे राहबर मरबूत तो क्या मुग़ल्लक़ ज़बान से कम में बात नहीं करते। शेअरी तन्क़ीद में दरअसल सबसे बड़ी दुशवारी ये रही है कि बहुत से मसाइल जो पहले से तय-शुदा हैं, वो इस क़दर तय-शुदा हो चुके हैं कि कोई उनके बारे में लिखना पसंद नहीं करता। सभी ये सोच कर चुप हैं कि उन बातों को कहना क्या ज़रूर है।

नई शायरी के हामियों से बार-बार कहा जाता है कि आप बताते क्यों नहीं इस शायरी से आप क्या समझते हैं। हमारा जवाब ये होना चाहिए कि हम ये बता सकते हैं कि हम शायरी से क्या मुराद लेते हैं, आप उसकी रोशनी में नई शायरी के नुक़ूश टटोल लीजिए। लेकिन रफ़्त गया और बूद था का सबक़, क्या मशरिक़, क्या मग़रिब, सब भूल चुके हैं। इसी लिए जमा व ख़र्च ज़बां हाय लाल की फ़र्दें हर तरफ़ खुली हुई हैं। ईमान की बात ये है कि शे’र के दाख़िल-ओ-बातिन को पहचानने के लिए मशरिक़ व मग़रिब में दो बुनियादी और असली बातें कह दी गई हैं। मशरिक़ में तो इब्न ख़ुलदून, जिसने ये कहा कि अशआर अलफ़ाज़ का मजमूआ होते हैं और ख़्यालात, अलफ़ाज़ के पाबंद होते हैं, 4 दूसरे जदीद नक़्क़ाद जिन्होंने कोलरिज और रिचर्ड्स के ज़ेर-ए-असर ये कहा कि शे’र, इदराक का एक मख़्सूस और मुख़्तलिफ़ तरीक़ा है और अलग ही तरह का इल्म अता करता है।

हालांकि ये बात भी जदीद नक़्क़ादों की अपनी नहीं है, कोलरिज के अलावा शेली ने भी शे’र के ज़रिए हासिल होने वाले इल्म को और तरह के इल्म से मुख़्तलिफ़ ठहराया है। कोलरिज का नज़रिया तो मशहूर आम है, जहां वो साईंस का मक़सद इत्तिला बहम पहुंचाना और शे’र का मक़सद मसर्रत बहम पहुंचाना बताता है। लेकिन शेली पर, जिसका मज़मून A Defence Of Poetry शे’र के बारे में कहीं कहीं इल्हामी हद तक बारीकबीनी से ममलू है, ज़्यादा लोगों की नज़र नहीं गई है। वो कहता है, “शायराना सलाहियत के दो तफ़ाउल हैं। एक के ज़रिए ये इल्म, क़ुव्वत और लुत्फ़ के नए नए मवाद पैदा करती है, और दूसरी के ज़रिए ये ज़ेहन में ख़्वाहिश पैदा करती हैं कि इस नए मवाद को एक मख़्सूस आहंग और तर्तीब से ख़ल्क़ किया जाये और मुनज़्ज़म किया जाये, जिसे हुस्न The Beautiful, ख़ूबी The Good कहा जा सकता है।”

लिहाज़ा अगर हम ये तै कर लें कि शे’र में इस्तेमाल होने वाले अलफ़ाज़ किस मख़्सूस अमल या तर्तीब के ज़ेर-ए-असर होते हैं, जिसकी वजह से वो ख़ूबसूरत हो जाते हैं और वो कौन सा इल्म है जो शे’र से हासिल होता है, और वो इल्म किस तरह हासिल होता है तो हम शे’र की ऐसी उमूमी पहचान मुरत्तब कर सकेंगे जो बहुत बारीक न सही, लेकिन तफ़हीम-ओ-इफ़हाम के लिए काफ़ी होगी। इस पहचान को वज़ा करने के लिए चार में से एक तरीक़ा इख़्तियार किया जा सकता है,

(1) या तो हम कोई चंद निशानियां गढ़ लें या फ़र्ज़ कर लें और फिर ये साबित करें कि जिस मंज़ूमे में ये पाई जाएं वो शायरी होगा। सबूत हम इस तरह दें कि जिन अशआर को आम तौर पर अच्छा समझा जाता है, हम उनमें ये खूबियां या ख़वास मौजूद दिखाएं, और अगर उनमें ये ख़वास न हों तो उन्हें शायरी से आरी क़रार दें।

(2) जिन अशआर को आम तौर पर अच्छा समझा जाता है उनको पढ़ कर हम उनमें चंद मुश्तर्क ख़वास तलाश करें और दिखाएं कि ये ख़वास तमाम शायरी में पाए जाऐंगे।

(3) हम चंद शे’रों को अपनी मर्ज़ी से अच्छा क़रार दें, फिर उनके मुश्तर्क ख़वास की निशानदेही करें, फिर कहें कि तजुर्बा कर के देख लीजिए, ये ख़वास सब अच्छे शे’रों में होंगे, और जिनमें न होंगे वो शे’र आपकी नज़रों में भी बुरे होंगे।

(4) हम आपसे कहें कि अपने पसंद के अच्छे शे’र सुनाइए, फिर आपके पसंदीदा शे’रों में से जिनको हम शायरी का हामिल समझें उनकी तफ़सील बयान करें और कहें कि बाक़ी शे’र ख़राब हैं।

ज़ाहिर है कि चौथा तरीक़ा न मुम्किन-उल-अमल है न मुस्तहन। तीसरा तरीक़ा सबसे बेहतर है क्योंकि सबसे ज़्यादा मंतक़ी है। पहला तरीक़ा इस्तेमाल करने में कोई हर्ज नहीं, दूसरा यक़ीनन तीसरे के साथ साथ आज़ादी से इस्तेमाल किया जा सकता है। अब एक शर्त भी है। वो ये कि हम जो भी निशानियां बताईं वो ऐसी हों कि ऐसे अशआर की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में तलाश की जा सकें जिन्हें आम तौर पर अच्छा समझा जाता रहा है या जिनके बारे में हम ये तवक़्क़ो कर सकते हैं कि उन्हें अच्छा कहा जाएगा। यानी ये बात मुनासिब नहीं है कि हम अपनी बयान कर्दा निशानियां सौ पच्चास, हज़ार दो हज़ार अशआर पर मुंतबिक़ कर के दिखा दें और बक़िया शे’रों को, जो उनके दायरे में न आसकें, ख़राब कह कर बिरादरी से बाहर कर दें।

हमारी कोशिश इस सूरत में कामयाब समझी जा सकती है जब हम मुत्तफ़िक़ अलैह अच्छे शे’रों की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद को अपने दायरे में ले सकें ताकि थोड़े बहुत जो बच रहें, उन्हें इस्तिसनाई दर्जा दिया जा सके। दूसरे अलफ़ाज़ में, हमारा तरीक़-ए-कार लाल बुझक्कड़ों का न हो जिन्होंने साइल से कहा कि आसमान में इतने ही तारे हैं जितने तुम्हारे सर में बाल हैं, और जब उनसे सबूत मांगा गया तो उन्होंने कहा कि गिन कर देख लो।

चूँकि शर्त मुत्तफ़िक़ अलैह अच्छे अशआर की है, इसलिए हमें अपने मुताले को ज़्यादातर उन्हीं शोअरा के कलाम का पाबंद रखना होगा, जैसे ग़ालिब, दर्द, मीर, सौदा, अनीस, इक़बाल, फ़ैज़, राशिद, मीरा जी जिनके बारे में उमूमी इत्तफ़ाक़ है कि ये अच्छे शायर थे, इसलिए उनके कलाम में शायरी ज़्यादा होगी और उन शोअरा के भी उन्हें अशआर से हमारा वास्ता ज़्यादा होगा जिनकी उम्दगी के बारे में इख़्तिलाफ़-ए-राय या तो नहीं या बहुत कम है। एक शर्त मैं पहले ही लगा चुका हूँ, कि तलाश उन निशानियों की न होगी जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हैं, बल्कि उनकी जो शे’र से मुख़्तस हैं, और अगर नस्र में पाई जाएं तो नस्र को ख़राब कर दें या अजनबी और ग़ैर मुतनासिब मालूम हों, या अगर नस्र में मौजूद ही हों तो ख़ाल-ख़ाल हों।

अब एक शर्त आप पर भी है, आप मेरी तलाश कर्दा निशानियों को झूटी या ग़ैर मारुज़ी या नाक़ाबिल-ए-अमल क़रार दे सकते हैं। लेकिन मैं जवाब में आपसे कहने का मजाज़ हूँगा कि अच्छा आप ही अपनी निशानियां बयान कीजीए जो मारुज़ी हों और मुतज़क्किरा बाला दो शर्तों पर पूरी उतरती हों। हाँ, इसके जवाब में आप ये ज़रूर कह सकते हैं कि ऐसी पहचान मुम्किन नहीं है, हम अपनी आजिज़ी का इक़रार करते हैं, तुम सरकश हो, इसलिए नहीं करते। इस ख़तरे को क़बूल करते हुए मैं आपकी ख़िदमत में वालेरी का ये क़ौल पेश करता हूँ, “हर वो बात जिसका कहा जाना अशद ज़रूरी हो, शायरी में नहीं कही सकती।” 5 वालेरी ने तो ये बात शे’र की बे मक़सदियत के सयाक़-ओ-सबॉक़ में कही थी। लेकिन इससे एक और नुक्ता भी बरामद होता है कि शे’र उन तमाम तफ़सीलात को छांट देता है जिनके बग़ैर नस्र का तसव्वुर नहीं किया जा सकता।

तफ़सील का इख़राज शे’र का बुनियादी अमल है, मैं उसे इजमाल का नाम देता हूँ। इजमाल से मेरी मुराद वो इख़्तिसार या ईजाज़ नहीं है जिसके बारे में शेक्सपियर ने और दूसरों ने कहा है कि हुस्न कलाम की जान है। ऐसा ईजाज़ तो नस्र में भी हो सकता है बल्कि होना चाहिए। इजमाल से में वो बलाग़त भी नहीं मुराद लेता कि आधी बात कही जाये और पूरी समझ में आ जाये। न इससे मेरा मतलब ये है कि अच्छे शे’र में हश्व क़बीह क़िस्म के अलफ़ाज़ नहीं होते। दरअसल हश्व क़बीह और हश्व मलीह की पूरी बहस ही मुहमिल है।

उलमाए बलाग़त ने इसमें बड़ी मोशिगाफ़ियाँ की हैं लेकिन ये नुक्ता-ए-नज़र अंदाज़ कर गए हैं कि अगर कोई लफ़्ज़ या फ़िक़रा शे’र में एक से ज़्यादा बार लाया गया है, या हम-मअनी अलफ़ाज़ या फ़िक़रे शे’र में एक से ज़्यादा बार लाए गए हैं, लेकिन मअनी में इज़ाफ़ा कर रहे हैं या इज़ाफ़ा न भी कर रहे हों, लेकिन किसी और क़िस्म की माअनवियत के हामिल हों तो हश्व कहाँ रह गए? हश्व की शर्त तो ये है कि बात पूरी हो जाये लेकिन कुछ अलफ़ाज़ बच रहें जिनका कोई मसरफ़ न हो। लिहाज़ा हश्व मलीह की इस्तिलाह इज्तिमा-ए-ज़िद्दैन का नमूना है और हश्व मुतवस्सित (यानी ऐसा हश्व जो ना मअनी में इज़ाफ़ा करे न बुरा मालूम हो तो बिल्कुल ही मुहमल तसव्वुर है। मीर के इस शे’र में असातिज़ा की रू से हश्व मलीह है;

ऐ आह्वान काअबा न ऐंड-ओ-हरम के गिर्द
खाओ किसी का तीर किसी के शिकार हो

क्योंकि खाओ किसी का तीर और किसी के शिकार हो, हम-मअनी हैं लेकिन चूँकि इस तकरार से कलाम में लुत्फ़ पैदा हो रहा है लिहाज़ा ख़ूब है। हालांकि हम-मअनी होने के बावजूद दोनों फ़िक़्रों के इंसलाकात मुख़्तलिफ़ हैं। तीर खाना ज़ख़्मी होने के तबीई और जिस्मानी अमल की तरफ़ इशारा करता है और शिकार होना गिरफ़्तार होने या बेबस हो जाने या मह्कूम होने का तास्सुर भी रखता है। “हालात का शिकार होना” के हम मअनी “हालात के तीर खाना नहीं है। “बेवक़ूफ़ लोग अक़ल मंदों का शिकार होते हैं” के मअनी ये नहीं कि “बेवकूफ़ लोग अक़लमंदों का तीर खाते हैं।” इस तरह दो बज़ाहिर हम-मअनी फ़िक़रे अलग अलग अमल कर रहे हैं, इनको हश्व कहा ही नहीं जा सकता, न क़बीह न मलीह न मुतवस्सित। कलाम में या तो हश्व होगा या न होगा।

मैंने हश्व पर इतनी तवज्जा इसलिए सर्फ़ की है कि ये बात बिल्कुल वाज़ेह हो जाये कि इजमाल से मेरा मतलब शे’र की वो ख़ूबी नहीं है जो ईजाज़ या इख़राज-ए-हश्व से पैदा होती है और न वो ख़ूबी है जिसे तक़लील-ए-अलफ़ाज़ कहा जा सकता है, यानी जिस तास्सुर या सूरत-ए-हाल को ज़ाहिर करने के लिए कसरत-ए-अलफ़ाज़ या तकरार-ए-अलफ़ाज़ की ज़रूरत हो, उसको भी कम अलफ़ाज़ में ज़ाहिर किया जाये। क्योंकि जिस तरह “हश्व मलीह” तहरीर की ख़ूबी है, इसी तरह कसरत-ए-अलफ़ाज़ या तकरार-ए-अलफ़ाज़ या तक़लील-ए-अलफ़ाज़ भी तहरीर की खूबियां हैं और मुख़्तलिफ़ तहरीरों में उनका ज़हूर होता रहता है। हम ये नहीं कह सकते कि हर शायरी में ईजाज़, या कसरत-ए-अलफ़ाज़ या तक़लील-ए-अलफ़ाज़ होती है। हज़ारों अच्छे शे’र हैं जिनमें ये खूबियां बिल्कुल नहीं हैं। “इजमाल” कह कर मैं शे’र के उस मशीनी अमल को ज़ाहिर करना चाहता हूँ जिसकी पैदा-कर्दा ख़ुदकार मजबूरी के तहत वो अलफ़ाज़ शे’र से छट जाते हैं जिनके बग़ैर नस्र मुकम्मल नहीं हो सकती। मीर का वही शे’र फिर देखिए,

ऐ आह्वान काअबा न इंडो हरम के गिर्द
खाओ किसी का तीर किसी के शिकार हो

ये शे’र मिसाल के तौर पर इसलिए भी मुनासिब है कि इसकी तर्तीब अलफ़ाज़ तक़रीबन नस्र की सी है। अब मैं इस की बाक़ायदा नस्र करता हूँ, लेकिन इस शर्त के साथ कि कोई लफ़्ज़ कम या ज़्यादा न करूँगा। ऐ आह्वान काअबा हर्म के गिर्द न इंडो। किसी का तीर खाओ किसी के शिकार हो। ये इबारत जो शे’र में बिल्कुल मुकम्मल थी, नस्र में आते ही ना-मुकम्मल हो गई है। अगर इस तरह का इक्का दुक्का जुमला किसी की नस्र में आपको मिल जाये तो आप शायद दर-गुज़र कर जाएं, लेकिन अगर सारी इबारत ऐसी ही होगी तो आप मुसन्निफ़ को ज़ुमर-ए-मुसन्निफ़ीन से ख़ारिज कर देने में ज़रा भी ताम्मुल न करेंगे। इस नस्र को यूं लिखा जाये तो बात पूरी होती है। ऐ आह्वान-ए-काअबा हर्म के गिर्द न इंडो। (बल्कि) किसी का तीर खाओ (या) किसी के शिकार हो।

अब दोनों जुमले मरबूत मालूम होते हैं, लेकिन फिर भी दूसरा जुमला कुछ और अलफ़ाज़ का मुतक़ाज़ी है। मुंदर्जा बाला जुमला अगर आपको कहीं नज़र पड़े तो आप ये तवक़्क़ो करने में हक़ बजानिब होंगे कि अब आह्वान-ए-काअबा से कुछ ये भी कहा जाएगा कि जब तुम तीर खा चुकोगे या शिकार हो लोगे तब तुम पर कोई हक़ीक़त आशकार होगी। मसलन इबारत पूरी करने के लिए हम कुछ इस तरह के फ़िक़्रों के मुतवक़्क़े होंगे,

(1) बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो तब तुमको मालूम होगा कि इश्क़ क्या चीज़ है।

(2) बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो तब तुम वाक़ई किसी क़ाबिल बन सकोगे।

(3) बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो तब तुम्हें ख़बर लगेगी कि ज़िंदगी क्या है।

वग़ैरा। आपने ग़ौर किया कि हम जब इस शे’र का मतलब नस्र में बयान करने बैठेंगे तो हमें कोई ऐसी बात कहनी होगी जिससे तीर खाने के बाद पैदा होने वाली सूरत-ए-हाल पर रोशनी पड़ सके। अच्छा फ़र्ज़ कीजिए उसकी ज़रूरत नहीं है कि हम नस्री जुमला मुकम्मल करने के लिए माबाद की सूरत-ए-हाल भी वाज़ेह करें। लेकिन नस्र में ये जुमला नज़र पड़ते ही सयाक़-ओ-सबाक़ में हम ये ढूंढना शुरू कर देंगे कि ये बात किस ने कही। मसलन नस्र की इबारत यूं होगी, फ़ुलां ने फ़ुलां से कहा कि ऐ आह्वान-ए-काअबा हरम के गिर्द न एंडो, बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो।

इसके बावजूद ये बात बदीही है कि शे’र को इन चीज़ों की ज़रूरत नहीं, और न हमें कोई तकलीफ़ ही होती है कि ये बातें क्यों नहीं कही गईं। अगर हम ये कहें कि शे’र में हम मुतकल्लिम और मुख़ातिब का वुजूद फ़र्ज़ कर लेते हैं, ये उसका एक Convention है, तो मेरी बात और भी मुसल्लम हो जाती है कि नस्र में इस क़िस्म का Convention नहीं होता, इसलिए हम नस्र में इन तमाम अलफ़ाज़ के मुतवक़्क़े रहते हैं जिनकी कमी हमें शे’र में नहीं खटकती। मीर का एक और शे’र देखिए, जिसके बारे में हाली की रिवायत के मुताबिक़ सदर उद्दीन ख़ां आज़ुर्दा ने कहा था कि क़ुल हुवल्लाह का जवाब लिख रहा हूँ,

अब के जुनूँ में फ़ासिला शायद न कुछ रहे
दामन के चाक और गरीबां के चाक में

इस बात से क़त-ए-नज़र कि हम जब इस शे’र को मंसूर शक्ल में देखेंगे तो मुतकल्लिम का सवाल भी उठाएँगे, शायद ये भी पूछ दें कि पिछली बार जुनूँ में क्या सूरत-ए-हाल रही थी और इस बात से भी क़त-ए-नज़र कि पहले मिसरे की नशिस्त अलफ़ाज़ ने शे’र में ख़ासा इबहाम पैदा कर दिया है, इसकी बे कम-ओ-कास्त नस्र यूं होगी, शायद अब के जुनूँ में दामन के चाक और गरीबां के चाक में कुछ फ़ासिला न रहे। मजबूरन हमें इसमें इज़ाफ़ा कर के यूं लिखना होगा, शायद अब के (फ़सल) जुनूँ में दामन के चाक और गरीबां के चाक में कुछ फ़ासिला (भी) न रहे। या कुछ फ़ासिला (भी) न रहे। शे’र तो पूरा हो जाता है लेकिन नस्र इन दो अलफ़ाज़ के बग़ैर अधूरी रहती है। एक शे’र इक़बाल का देखिए,

टूट कर ख़ुरशीद की किश्ती हुई ग़र्क़ाब-ए-नील
एक टुकड़ा तैरता फिरता है रू-ए-आब-ए-नील

इस शे’र की सालमियत में क्या कलाम हो सकता है, लेकिन नस्र यूं होगी, ख़ुरशीद की किश्ती टूट कर ग़र्क़ाब-ए-नील हुई (लेकिन, फिर भी, सिर्फ़) एक टुकड़ा (अब तक) रू-ए-आब-ए-नील पर तैरता फिरता है। अगर ये कहा जाये कि मुतफ़र्रिक़ अशआर या ग़ज़ल के अशआर में तो ये कैफ़ियत लाज़िमी है, क्योंकि हर शे’र अलग अलग होता है, और बहुत सी बातें फ़र्ज़ करनी पड़ती हैं, तो मैं ये कहूँगा कि ये ख़ुसूसियत मरबूत अशआर या नज़्म के मिसरों में और ज़्यादा पाई जाती है। मसनवी सह्र उल ब्यान के ये मशहूर तरीन अशआर मुलाहिज़ा हों। चांदनी का बयान है, जिसके बारे में तब से अब तक कोई इख़्तिलाफ़ राय नहीं हुआ है कि चांदनी की इससे बेहतर मंज़र कशी शे’र में मुश्किल से हुई होगी। यहां तो ये आलम है ज़बान के साथ जब्र किए बग़ैर इन शे’रों की नस्र नहीं हो सकती,

वो सुनसान जंगल वो नूर क़मर
वो बुर्राक़ सा हर तरफ़ दश्त-ओ-दर

वो उजला सा मैदाँ चमकती सी रेत
उगा नूर से चांद तारों का खेत

दरख़्तों के पत्ते चमकते हुए
ख़स-ओ-ख़ार सारे झमकते हुए

दरख़्तों के साये से मह का ज़हूर
गिरे जैसे छलनी से छनछन के नूर

दीया ये कि जोगन का मुँह देखकर
हुआ नूर साये का टुकड़े जिगर

यहां सबसे बड़ी मुसीबत ये है कि शुरू के तीन मिसरे लफ़्ज़ “वो” से शुरू होते हैं, कोई फे़अल नहीं है, “वो” के ऐसे इस्तेमाल के बाद कुछ नहीं तो क़ाफ़ ब्यानिया ही लगा कर कुछ और बात कही जाती, मीर हसन ने वो सारी बातें हम पर छोड़ दी हैं। बहर हाल नस्र यूं होगी, वो सुनसान जंगल में नूर क़मर, वो बुर्राक़ सा दश्त-ओ-दौर, वो उजला सा मैदाँ, (वो) चमकती सी रेत, (कि बस न पूछिए, या इस क़दर पुरअसर थे कि बस, वग़ैरा) चांद तारों से नूर का खेत उगा (हुआ था।) दरख़्तों के पत्ते चमकते हुए (थे, यानी चमक रहे थे।) सारे ख़स-ओ-ख़ार झमकते हुए (थे, यानी झमक रहे थे।) दरख़्तों के साये से मह का ज़हूर (इस तरह था) जैसे छलनी से छनछन कर नूर गिरे (यानी गिर रहा हो।) ओ- (और) या ये कि जोगन का मुँह देखकर नूर (और) साये का जिगर टुकड़े हुआ (था या हो।)

अगर ये कहा जाये कि मैंने ऊपर का शे’र छोड़ दिया है जो “वो” का जवाज़ पैदा करता है, तो वो शे’र भी हाज़िर है,

बंधा उस जगह इस तरह का समां
सबा भी लगी रक़्स करने वहां

नस्र ये होगी, उस जगह (कुछ) इस तरह का समां बंधा (कि) सबा भी वहां रक़्स करने लगी। (और, वो समां कुछ इस तरह का था।) अब ऊपर के पाँच शे’रों के नस्र पढ़िए, लेकिन इसमें से “चमकती सी रेत” के बाद क़ौसैन में लिखे हुए फ़िक़रे हज़्फ़ कर दीजिए। फिर सवाल ये होगा कि फिर बार-बार “वो” की तकरार क्यों? तब तो मिसरे यूं होना थे,

था सुनसान जंगल था नूर क़मर
था बुर्राक़ सा हर तरफ़ दश्त-ओ-दर

वग़ैरा। “वो” के मअनी ही ये हैं कि इसके बाद इस्तेजाबियह या ब्यानिया बयान मुतवक़्क़े है। नस्र करते वक़्त आपको ईजाद-ए-बंदा से काम लेना पड़ेगा। अब फ़ैज़ के ये चार मिसरे लीजिए,

रात बाक़ी थी अभी जब सर-बालीं आकर
चांद ने मुझसे कहा जाग सहर आई है

जाग इस शब जो मए ख़्वाब तिरा हिस्सा थी
जाम के लब से तह जाम उतर आई है

यहां भी मैंने जान-बूझ कर ऐसे मिसरे लिए हैं जिनमें तर्तीब अलफ़ाज़ नस्र से बहुत क़रीब है, फिर भी बाक़ायदा नस्र यूं होगी, रात अभी बाक़ी जब (मेरे) सर-ए-बालीं आकर मुझसे चांद ने कहा (कि) जाग सह्र आई है। जाग, इस शब जो मए ख़्वाब तिरा हिस्सा थी (दो) जाम के लब से उतर (कर) दो जाम (तक) आई है (आ गई है) ।

आप कह सकते हैं कि इस इबारत में लफ़्ज़ “मेरे” का इज़ाफ़ा फ़ुज़ूल है। मेरा जवाब ये है कि शे’र को नज़रअंदाज कर के इस तरह के नस्र लिखने की कोशिश कीजिए, देखिए लफ़्ज़ “मेरे” ख़ुद ब-ख़ुद क़लम पर आता है या नहीं। “जाग” के पहले “कि” का इज़ाफ़ा फ़ुज़ूल कहा जा सकता है, लेकिन इस सूरत में आपको इबारत पर वावैन लगाने पड़ेंगे, मिसरों में वावैन की ज़रूरत नहीं है। नस्र में आप कभी कभी अलामात-ए-औक़ाफ़ से लफ़्ज़ का काम लेते हैं तो कभी कभी लफ़्ज़ से भी औक़ाफ़ का काम लेते हैं। आख़िरी मिसरे के नस्र के बारे में कहा जा सकता है कि जाम के लब से तह जाम उतर आई है ख़ुद ही नस्र है, इस “उतर” के बाद “कर” लगा कर ज़बरदस्ती मिसरा बिगाड़ा गया है।

हालाँकि बात सामने की है “तह जाम” अगर बमअनी “जाम के नीचे” है (जो ज़ाहिर है कि नहीं है, जैसे तह-ए-दाम, तह-ए-बाम वग़ैरा) बल्कि “जाम के आख़िर हिस्से” के मअनी में है (जो ज़ाहिर है कि है) तो फिर “तह-ए-जाम” के बाद “तक” लगाना ज़रूरी है और अगर “तक” लगाना है तो मजबूरन “उतर” के बाद “कर” लगाना ज़रूरी है। अगर नस्र यूं की जाये, जाम के लब से तह-ए-जाम तक उतर आई है तो मअनी निकलते हैं कि लब से लेकर तह तक सरायत कर गई है। ज़ाहिर है कि ये भी ग़लत होगा, लिहाज़ा मुंदर्जा नस्र ही दुरुस्त है।

इन मिसालों से ये बात खुल गई होगी कि शे’र का इजमाल दरअसल इन अलफ़ाज़ का इख़राज है जिनके बग़ैर नस्र का तसव्वुर नामुमकिन है। ये कुल्लिया इसी क़दर मुसल्लम और इजमाल की कैफ़ियत तक़रीबन उतनी ही आफ़ाक़ी है जितनी शे’र में वज़न के वुजूद की है। मैंने तक़रीबन का लफ़्ज़ इसलिए लगाया है कि मैं वज़न को हर क़िस्म के शे’र के लिए ज़रूरी समझता हूँ, चाहे इसमें शायरी हो या न हो, लेकिन शायरी की पहली पहचान ये है कि इसमें इजमाल होता है। ऐसे शे’र जिनमें शायरी न होगी, या कम होगी, बहुत मुम्किन है कि इजमाल से भी आरी हों। बहरहाल, शायरी के हामिल, यानी अच्छे शे’रों में इजमाल ज़रूर होगा।

अब यहीं ठहर कर नस्री नज़्मों और तख़्लीक़ी नस्र की बात भी कर ली जाये। कुछ ऐसी नस्रें हैं जो यक़ीनन शायरी हैं मसलन टैगोर की अंग्रेज़ी गीतांजलि, इंजील के बहुत से हिस्से, जदीद शोअरा की कुछ नज़्में, वग़ैरा। उनको तख़्लीक़ी नस्र में क्यों न रखा जाये, या तख़्लीक़ी नस्र को शायरी में क्यों न रखा जाये। मेरे इस ख़्याल पर कि नस्र में तशबीह, इस्तिआरा, पैकर वग़ैरा कम से कम इस्तेमाल होना चाहिए। और शे’रियत से बोझल नस्र, ख़राब नस्र होती है। महमूद हाश्मी ने एक बहुत अच्छा सवाल उठाया था कि ऐसे नस्र पारों को शे’र क्यों न कहा जाये?

नस्री नज़्मों का मुआमला तो आसान है। अव्वल तो ये इतनी कम तादाद में हैं कि उनको इस्तिसनाई कहा जा सकता है लेकिन इस जवाब पर क़नाअत न कर के मैं ये कहूँगा कि नस्री नज़्म और नस्र में बुनियादी फ़र्क़ इजमाल की मौजूदगी है। नस्री नज़्म इजमाल का इसी तरह इस्तेमाल करती हैं जिस तरह शायरी करती है, इस तरह इसमें शायरी की पहली पहचान मौजूद होती है। शायरी की जिन निशानियों का ज़िक्र मैं बाद में करूँगा, यानी इबहाम, अलफ़ाज़ का जद लियाती इस्तेमाल, नस्री नज़्म उनसे भी आरी नहीं होती। लेकिन आख़िरी बात ये है कि मैंने शुरू में ना मौज़ूनियत को नस्र की शर्त ठहराया था और मौज़ूनियत की मिसाल रुबाई के हवाले से दी थी कि अगरचे रुबाई के चारों मिसरे मुख़्तलिफ़ अलूज़न हो सकते हैं लेकिन उनमें एक हम-आहंगी होती है जो इल्तिज़ाम का बदल होती है।

बईनही यही बात नस्री नज़्म में पाई जाती है, फ़र्क़ ये है कि बाक़ायदा लेकिन मुख़्तलिफ़ वज़न रखने वाली रुबाई में दोहराए जाने के क़ाबिल रुक्न एक मिसरा होता है जिसकी दोगुन तिगुन चौगुन मुख़्तलिफ़ लेकिन हम-आहंग औज़ान में की जाती है, ये तो नस्री नज़्म का पैराग्राफ़ दोहराए जानेवाले रुक्न (यानी आहंग की इकाई) की हैसियत रखता है और इसके भी आहंग के दोगुन, तिगुन, चौगुन वग़ैरा हो सकती है, यानी नस्री नज़्म के एक पैराग्राफ़ में जो आहंग होता है वो दूसरे पैराग्राफ़ में भी दुहराया जा सकता बल्कि दुहराया जाता है अगर नज़्म में दूसरा पैराग्राफ़ भी हो।

नस्र पारे में ये बात नामुमकिन है कि जो आहंग एक पैराग्राफ़ में हो उसे हू-ब-हू दूसरे में भी दोहरा लिया जाये। मिसाल के तौर पर मैं अहमद हमेश की “तजदीद” नामी नज़्मों का ज़िक्र कर सकता हूँ। बहुत दिन हुए इस सिलसिले की एक नज़्म (जो बाद में कुछ तब्दीली के बाद नए नाम में शाया हुई) मेरे पास तजज़िये के लिए आई। शायर का नाम मख़्फ़ी रखा गया था, लेकिन चूँकि मैं “तजदीद” सिलसिले की एक नज़्म पहले पढ़ चुका था, और दोनों नज़्मों के आहंग में हैरत-अंगेज़ मुमासिलत थी, इसलिए मुझे ये पहचानने में कोई दिक़्क़त न हुई कि यह नज़्म अहमद हमेश की है और “तजदीद” सिलसिले की है,

आज रात के ठीक आठ बुझे एक आदमी अपने ऐवानी ख़ाक-दाँ में सिफ़र सिफ़र गिर रहा है वो इन तमाम नातमाम ऐवानों में बसर हो रहा है
जिनमें हम सबको बसर होना है और ये एक अजीब इत्तफ़ाक़ है
(तजदीद 2)

इस आहंग को मुंदर्जा ज़ैल आहंग के सामने रखिए,
वो कैसे बिस्तर हैं, जिन पर औरतें कभी नहीं सोईं
जिनकी तर्बीयत महज़ एक खूँटी है
जिन पर दिमाग़ और जिस्म सभी टँगे हैं
(तजदीद 1)

इसका सौती तजज़िया करने की ज़रूरत नहीं, इसके बग़ैर ही मालूम हो जाता है कि दोनों के आहंग एक हैं और उन नज़्मों में मिसरे या रुक्न की इकाई के बजाय पैराग्राफ़ या टुकड़े की इकाई का उसूल कारफ़रमा है। शहरयार की नस्री नज़्में अभी शाये नहीं हुई हैं, लेकिन उनमें भी यही सूरत नज़र आती है, बल्कि ज़्यादा वज़ाहत से देखी जा सकती है, क्योंकि इख़्तिसार की वजह से उनकी इकाई ज़्यादा गठी हुई और आसानी से पहचान में आ जाने वाली है।

इस तरह नस्री नज़्म में शायरी के दूसरे ख़वास के साथ मौज़ूनियत भी होती है। लिहाज़ा उसे नस्री नज़्म कहना एक तरह का क़ौल मुहाल इस्तेमाल करना है, उसे नज़्म ही कहना चाहिए। लेकिन तख़्लीक़ी नस्र (यानी वो नस्र जो अफ़साने, नावल वग़ैरा में इस्तेमाल होती है।) का मुआमला बहुत ज़्यादा टेढ़ा है। तख़्लीक़ी नस्र में इजमाल और मौज़ूनियत को छोड़कर शे’र के दूसरे ख़वास मौजूद होते हैं। लेकिन इजमाल की अदम मौजूदगी इस्तिआरे, पैकर, और तशबीह को पूरी तरह फैलने नहीं देती। अगर इन अनासिर के साथ ज़बरदस्ती कर के नस्र निगार उन्हें अपनी इबारत Over Work करे तो अनमेल बेजोड़ होने की कैफ़ियत नुमायां होने लगती है।

ये यक़ीनन मुम्किन है कि किसी निस्बतन तवील तख़्लीक़ी नस्र पारे में जगह जगह इजमाल का भी अमल दख़ल हो (जैसा कि जदीद अफ़साने में होता है) और नस्र पारे के वो टुकड़े शे’र के क़रीब आ जाएं, लेकिन उनके आस-पास पर मुहीत अदम इजमाल और नौ मौज़ूनियत उन्हें पूरी तरह शायरी नहीं बनने देतीं। इस तरह महमूद हाश्मी के सवाल के जवाब में कि शायराना वसाइल इस्तेमाल करने वाली नस्र को शे’र क्यों न कहा जाये, हम ये कह सकते हैं कि अव्वल तो शायराना वसाइल इस्तेमाल करने वाली नस्र, बहरहाल नस्र रहती है और बिलफ़र्ज़ वो शे’र बन भी जाये तो वही उलझावे पैदा होंगे जिनकी तरफ़ मैंने शुरू में इशारा किया है यानी हमें ये कहना पड़ेगा “आग का दरिया” तीस फ़ीसदी शायरी और सत्तर फ़ीसदी नस्र है।

मैंने अशआर की जो नस्रें ऊपर लिखी हैं उनका मुताला एक लम्हे में वाज़ेह कर देगा कि तख़्लीक़ी नस्र जब शायराना वसाइल कसरत से इस्तेमाल करती है तो उसे किस क़दर ख़तरे लाहक़ हो जाते हैं। मीर हसन के अशआर हर मेयार से शायरी है, लेकिन जब मैंने उनकी नस्र की तो वो शायरी तो न रह गए, लेकिन एक अजीब लंगड़ी लूली नस्र बन गए। जदीद अफ़साने में उन्हीं लोगों की तख़्लीक़ी नस्र कामयाब है जिन्होंने शायराना वसाइल को इस्तेमाल करने वाली ज़बान के साथ साथ ऐसी ज़बान कसरत से इस्तेमाल की है जिसमें नस्र का अदम इजमाल पूरी तरह नुमायां है। अनवर सज्जाद की ये इबारात मुलाहिज़ा हों,

(1) परिंदे अन-गिनत परिंदे आसमान की तमाम सिम्तों से उड़ते हुए स्याह ग़ुबार के बॉर्डरों पर अपने परों के बंद बाँधने की कोशिश में ग़ुबार की क़ुव्वत और रफ़्तार के सामने ख़स-ओ-ख़ाशाक, तूफ़ान है कि उमडा ही चला आता है।

ये अनवर सज्जाद के अफ़साने “कार्ड लेक दमा” का आग़ाज़ है। शे’र की तरह इजमाल पैदा करने की कोशिश नुमायां है (बंद बाँधने की कोशिश में [हैं लेकिन] ग़ुबार की क़ुव्वत और रफ़्तार के सामने ख़स-ओ-ख़ाशाक [की तरह हैं।] लेकिन ये अंदाज़ मुसलसल बरक़रार नहीं रहता।

(2) परिंदे, (अन-गिनत परिंदे) अपनी अपनी बोलियों (अपनी अपनी आवाज़ों) में सदाए एहतिजाज बुलंद करने का तहय्या करते हैं स्याह ग़ुबार (में उड़ती) मनों (काली) मिट्टी के (करोड़ों) ज़र्रात (उनकी) झुकी चोंचों से दाख़िल हो कर (उनके) फेफड़ों पर जम जाते हैं।

ये इबारत नंबर एक के फ़ौरन बाद अगले पैराग्राफ़ का आग़ाज़ करती है। क़ौसैन में रखे हुए अलफ़ाज़ अनवर सज्जाद के हैं, शायरी उन्हें बख़ुशी हज़्फ़ कर सकती है। लेकिन ये इबारत फिर भी शे’र के बहुत नज़दीक है। अफ़साने के वस्त में ये इबारत देखिए, वो हाँपता काँपता पिंडाल में पहुंचता है। लोगों पर सुकूत तारी हो जाता है। वो माईक्रोफ़ोन के सामने आता है। सब हमा-तन गोश हो जाते हैं। वो फूले हुए सांस को क़ाबू में लाना चाहता है।

ये तख़्लीक़ी नस्र है, लेकिन सिर्फ़ नस्र है। शायराना वसाइल का कहीं पता नहीं। पूरे अफ़साने में नस्र का तवाज़ुन इसी तरह बरक़रार रखा गया है। मैंने जान-बूझ कर ऐसा अफ़साना मुंतख़ब किया है जिसमें मुकालमा बिल्कुल नहीं है और ब्यानिया भी बहुत कम है। इसके बावजूद नस्र की तख़्लीक़ी नौईयत शायरी से मुख़्तलिफ़ रहती है, ये नस्र निगार की बहुत बड़ी ख़ूबी है। वर्ना मुकालमा और ब्यानिया ही नस्र के शे’री किरदार को मुनक़लिब करने के लिए काफ़ी होते हैं। इसीलिए मैं ऐसी तख़्लीक़ी नस्र को नाकाम और झूटे गोटे ठप्पे वाली नस्र कहता हूँ जिसका शे’री किरदार इतना जामिद और बर्फ़ ज़दा हो कि मुकालमा और ब्यानिया की तेज़ रफ़्तारी भी उसे पिघलाने में नाकाम रहे, और इसीलिए मैं मुहम्मद हुसैन आज़ाद को उर्दू का सब बड़ा तख़्लीक़ी नस्र निगार समझता हूँ। उन्होंने इजमाल को बिल्कुल पसेपुश्त डाल दिया है, शे’री वसाइल भी वो इस्तेमाल किए हैं जो अपने किरदार व तफ़ाउल के एतबार से “बे जिन्स” बमानी Neutral हैं। यानी अगर वो शे’र में भी आएं तो अजनबी नहीं मालूम होते। इन बेजिन्स वसाइल का ज़िक्र मैं आगे भी करूँगा। फ़िलहाल “आब-ए-हयात” का ये इक़तिबास मुलाहिज़ा हो,

“मीर हसन मरहूम ने उसे लिखा और ऐसी साफ़ ज़बान, फ़सीह मुहावरे और मीठी गुफ़्तगु में और इस कैफ़ियत के साथ अदा किया जैसे आब-ए-रवाँ। असल वाक़िया का नक़्शा आँखों में खिंच गया और उन ही बातों की आवाज़ें कानों में आने लगीं जो उस वक़्त वहां हो रही थीं। बावजूद इसके उसूल-ए-फ़न से बाल बराबर उधर या इधर न गिरे। क़बूल आम ने उसे हाथों में लेकर आँखों पर रखा और आँखों ने दिल-ओ-ज़बान के हवाले किया। उसने ख़वास अहल-ए-सुख़न की तारीफ़ पर क़नाअत न की बल्कि अवाम जो हर्फ़ भी न पहचानते थे वज़ीफ़ों की तरह हिफ़्ज़ करने लगे।”

नस्र की सबसे बड़ी मुश्किल या ख़ूबी ये है कि इसका छोटा सा इक़तिबास उसकी तईएन क़दर के लिए नाकाफ़ी होता है। शे’र का एक मिसरा भी बड़ी शायरी के ज़मुरा में आ सकता है, (आख़िर आर्नाल्ड ने बड़ी शायरी की पहचान उन्हीं मिसरों पर मुक़र्रर की थी। शायरी की ये पहचान ग़लत सही लेकिन शे’र की बुनियादी फ़ित्रत को ज़रूर वाज़ेह करती है।) लेकिन नस्र का एक जुमला बल्कि एक पैराग्राफ़ भी इस मक़सद के लिए काफ़ी नहीं होता। आब-ए-हयात हो या अनवर सज्जाद का अफ़साना, इस की नस्र का लुत्फ़ हासिल करने के लिए ख़ासा तवील इक़तिबास ज़रूरी है। फिर भी, मैं हत्तलइमकान वाज़ेह करने की कोशिश करूँगा कि आज़ाद ने इस इबारत में क्या जादू जगाए हैं।

सबसे पहले तो ये ग़ौर कीजिए कि अगरचे मैंने बहुत तलाश के बाद ऐसी इबारत ढूँडी है जिसमें (अदवार की तमहीद इबारत के अलावा तशबीह-ओ-इस्तिआरे की कारफ़रमाई निस्बतन ज़्यादा है, यानी मैंने ब्यानिया इबारत मुंतख़ब करने से गुरेज़ किया है। फिर भी, इस तहरीर में सिर्फ़ चंद ही इस्तिआरे या तश्बीहें यानी जदलियाती अमल करने वाले अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, जो दर्ज जैल हैं (इस फ़ेहरिस्त से मैंने मुहावरों मसलन “मीठी गुफ़्तगु” को ख़ारिज कर दिया है अगरचे वो भी असलन इस्तिआरे हैं।)

(1) आब-ए-रवाँ (2) क़बूल आम ने उसे हाथों में लेकर आँखों पर रखा (3) आँखों ने दिल-ओ-ज़बान के हवाले किया (4) वज़ीफ़ों की तरह हिफ़्ज़ करने लगे।

आपने देखा जदलियाती अलफ़ाज़ की तादाद अनवर सज्जाद की इबारत से न सिर्फ़ बहुत कम है, बल्कि उनकी नौईयत भी ऐसी है कि अगर वो किसी इबारत में तन्हा आ पड़ें तो उन पर शायद किसी की नज़र न पड़े। यानी जदलियाती लफ़्ज़ यहां अपनी कमतरीन शिद्दत की सतह पर इस्तेमाल हुआ है। इज़ाफ़तों का खेल बहुत कम है, ग़ैर हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ पर हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ को जगह जगह तर्जीह दी गई है (“मीठी गुफ़्तगु” बजाय “शीरीं गुफ़्तगु।”, “इन ही बातों की आवाज़ें कानों में आने लगीं जो उस वक़्त वहां हो रही थीं।” “बजाय” इन ही मकालमों या गुफ़्तगुओं की आवाज़ें गोश तख़य्युल में आने लगीं जो वक़्त मुतज़क्किरा में वहां हो रही थीं।, ‘‘बाल बराबर उधर या इधर न गिरे।’ बजाय “सर मोतजाविज़ाना किया।” लेकिन इसके बावजूद ऐसे अलफ़ाज़ नहीं इस्तेमाल हुए हैं जो उर्दू में मुस्तामल नहीं हैं अगरचे समझ लिए जाते हैं।

हमारे बा’ज़ नस्र निगार दिल की जगह मन, वक़्त की जगह समय, शर्म की जगह लाज, ज़मीन की जगह धरती वग़ैरा लिख कर समझते हैं कि “ग़ैरमामूली लतीफ़” ज़बान इस्तेमाल कर रहे हैं, हालांकि कोई लफ़्ज़ न लतीफ़ होता है न कसीफ़, वो या तो ज़बान के मिज़ाज में खपता है या नहीं खपता। आज़ाद अगरचे ग़ैर हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ और इज़ाफ़तों का इस्तेमाल कम-कम करते हैं लेकिन उर्दू में ग़ैर मुस्तामल हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ से भी गुरेज़ करते हैं। लिहाज़ा इबारत में वो तसन्नो नहीं पैदा होता जो बड़ी बूढ़ियों के ग़म्ज़े में होता है। अब यहां एक और इक़तिबास देना ही पड़ेगा,

“सय्यद इंशा हमेशा क़वाइद के रस्ते से तिर्छे हो कर चलते हैं, मगर वो उनका तिरछापन भी अजब बांकपन दिखाता है। ये [मुसहफ़ी] भी मतलब को ख़ूबी और ख़ुश-उस्लूबी से अदा करते हैं मगर क्या करें कि वो अमरोहापन नहीं जाता। ज़रा अकड़ कर चलते हैं तो उनकी शोख़ी बुढ़ापे का नाज़ बेनमक मालूम होता है। सय्यद इंशा सीधी-सादी बातें भी कहते हैं तो इस अंदाज़ से अदा करते हैं कि कहता और सुनता घड़ियों रक़्स करता है।”

इस इबारत में जदीद फ़ैशन की “शायराना” नस्र लिखने वाले “रस्ते” की जगह “डगर”, “अजब” की जगह “अनीला”, “ख़ुश-उस्लूबी” की जगह “सजल पन” या “सजलता”, “अंदा

पढ़ें-महावटों की एक रात

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