दीपावली पर गोपालदास ‘नीरज’ की मशहूर कविताएं- “जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना”
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए …
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,
भले ही दिवाली यहां रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।।
अंधियार ढल कर ही रहेगा
आंधियां चाहें उठाओ,
बिजलियां चाहें गिराओ,
जल गया है दीप तो
अंधियार ढल कर ही रहेगा।
रोशनी पूंजी नहीं है,
जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न,
जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है,
वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये
जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत
हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो
अंधियार ढल कर ही रहेगा।
दीप कैसा हो, कहीं हो,
सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न,
तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में
अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो
अंधियार ढल कर ही रहेगा।
है जवानी तो हवा
हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की
बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने,
वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों-सी
उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर
निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो
अंधियार ढल कर ही रहेगा।
वक्त को जिसने नहीं
समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो
फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो,
क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से
चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो
मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो
अंधियार ढल कर ही रहेगा।।
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