मृत्यु-दर्शन को नई ऊंचाईयां देने वाले गुरु तेग बहादुर
गुरु -गद्दी उसके लिए प्रयास करने वाले को नहीं मिलती थी। यह चल कर सुयोग्य के पास स्वत: आती थी। प्राय: दो सौ साल की कालावधि में सभी गुरु नानक बाबा के विचार- दर्शन पर ही चले। गुरु बादशाह या राजा- महाराजा के दरबार नहीं जाते थे, वे ही गुरुओं के पास आते थे। उत्तराधिकारी …
गुरु -गद्दी उसके लिए प्रयास करने वाले को नहीं मिलती थी। यह चल कर सुयोग्य के पास स्वत: आती थी। प्राय: दो सौ साल की कालावधि में सभी गुरु नानक बाबा के विचार- दर्शन पर ही चले। गुरु बादशाह या राजा- महाराजा के दरबार नहीं जाते थे, वे ही गुरुओं के पास आते थे। उत्तराधिकारी गुरू को केवल अपने पूर्ववर्ती गुरु का आशीर्वाद मिलता था, कोष- खजाना या फूलों की सेज नहीं। वे अपनी राहें खुद तय करते, आंतरिक और बाह्य विरोध के बावजूद पंथ विस्तार करते और मिशन को आगे बढ़ाते।
उत्तराधिकारी चयन की लोक तांत्रिक प्रक्रिया थी। पीठासीन गुरु की पसंद के साथ ही प्रमुख और सम्मानित शिष्यों की सहमति से। रिश्तेदार चाहते थे नानक बाबा के दोनों पुत्रों में से ही दूसरा गुरु बने। लेकिन बाबा के मिशन को आगे बढ़ाने का जिम्मा मिला 34 – 35 साल के शिष्य लहना को। बाबा ने उन्हें अंगद नाम देकर गद्दी पर अभिषिक्त कर उन्हें प्रणाम किया और कहा कि ये अब मेरे भी गुरु हैं।
सन् 1539 से लेकर 1708 ई. तक, दशम गुरु गोबिंद सिंह महाराज ने ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, यह क्रम चलता रहा। गुरु नानक देव का करतार पुर डेरा उनके बेटे लक्ष्मी चंद के पास रहा, बड़े श्रीचंद उदासी- वैरागी थे। गुरु अंगद ने अपने गांव खडूर से अपना कार्य शुरू किया। बेटा दातू चाहता था कि अगला गुरु वह बने, लेकिन गुरु अंगद ने पुत्र पर 71- 72 वर्षीय शिष्य अमर दास को वरीयता दी।
उन्होंने गोइंदवाल विकसित कर अपना मुख्यालय बनाया। उनके दो बेटे मोहन व मोहरी और दो बेटियां थीं। 1575 ई. में उनका निधन हुआ तो गुरुगद्दी चली गई चालीस साल के शिष्य जेठा के पास। यह एक निर्धन- निराश्रित युवक के फर्श से अर्श पर पहुंचने की घटना थी। उबले चने बेच कर गुजर-बसर करने वाले युवक जेठा को सुपात्र देख गुरु अमर दास ने अपनी दोटी पुत्री भानी का उनसे विवाह कर दिया। बाद में उनका रामदास नामकरण कर उत्तराधिकारी बनाया। गुरु रामदास ने अमृतसर की स्थापना की।
गुरू राम दास के बड़े बेटे पृथ्वी चंद चतुर प्रबंधक थे। गुरु घर का प्रबंधन और चढ़ावा- खजाना आदि उन्हीं के हाथ में था। वह आतुरता से हाथ- पांव रहे थे कि उन्हें उत्तराधिकारी गुरू घोषित कर दिया जाए, लेकिन बना दिये गए उनके सबसे छोटे भाई 18 साल के अर्जुन। पृथ्वी चंद जब तक जीवित रहे अपने और फिर अपने बेटे मेहरबान चंद के लिए जम कर प्रयास करते रहे, लेकिन गुरु गद्दी उनसे दूर ही रही। गुरु अर्जुन ने हर मंदिर बनवाने कई युगांतकारी काम किये। जहांगीर के आदेश से यातनायें भरी मृत्यु का आलिंगन कर वे ‘शहीदों के सिरताज’ हुए।
पृथ्वी चंद और उसके बेटे मेहरबान ने फिर कोशिशें कीं, वे स्वयं को गुरु कहते रह गए, लेकिन सिक्खों की मुख्य धारा ने उन्हें नहीं, 11 वर्षीय अप्रतिम तेजस्वी हर गोबिंद को ही अपना नेता माना। गुरु हर गोबिंद ने छोटे पौत्र हर राय को उत्तराधिकारी घोषित किया तो बड़े भाई ‘आदि ग्रंथ’ की मूल प्रति लिए चिल्लाते रह गए, बादशाह औरंगजेब के चाहने के बावजूद वह बाद में गुरु नहीं बन पाये। बाल गुरु हरि किशन के निधन के बाद 22 दावेदारों को छोड़ कर गुरुगद्दी चल कर पहुंच गई ननिहाल में एक गुफा नुमा कक्ष में एकांत- ध्यान में रहने वाले 42 वर्षीय तेग बहादुर के पास। इसे नानक बाबा का प्रताप- प्रभाव कहें या संयोग, उनके बाद के सभी गुरु उनके ही पथगामी रहे, कोई विचलित नहीं हुआ, हटा- डिगा नहीं। सभी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक क्रांति की ज्वाला बढ़ाते रहे।
नानाक बाबा को उनके दो शिष्यों समेत बाबर के सैनिकों ने बेगार कराने के लिए पकड़ लिया, वे तभी बाबर से रूबरू हुए। हुमायूं गुरु अंगद के पास गए। अकबर गुरु अमरदास से ज्ञान-चर्चा करने गोइंदवाल गए, उन्हें गुरू की शर्त के अनुसार आम लोगों के साथ पंगत में बैठ कर लंगर खाना पड़ा। अकबर ने गुरु की पुत्री भानी के नाम जमीन भी दी, जहां अमृतसर बना। अकबर फिर गुरु अर्जुन से भी मिले और उनके समाजसेवा के कार्यों की प्रशंसा की, उनके कहने पर अकाल पीड़ित किसानों का लगान माफ किया।
बादशाह औरंगजेब के अधीन राजाओं के आश्रित हिंदी कवि जब रीतिकाल के प्रारंभिक चरण में, नायिका भेद के नख-शिख-रस वर्णन में कलमें तोड़ रहे थे, तब एक हिंदी साधक चुपचाप जन जागरण में लगा था। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश और सुदूर बिहार-बंगाल और असम पूर्वोत्तर तक घूम-घूम कर। उसका रचना-कर्म मनोविनोद के लिए नहीं, लोक चेतना के परिष्कार के लिए था। वह राज्याश्रित नहीं, लोकाश्रित और स्वतंत्र था। उसकी भक्ति-अध्यात्म परक कवितायें भी लोक कल्याण के लिए थीं, सरल और आम बोलचाल की शब्द-शैली में।
उसने देश-धर्म की रक्षा में 54 साल की आयु में 11 नवंबर, 1675 ई. को अपना सिर कटा दिया, पर सिर नहीं झुकाया। इस महान हिंदी सेवक भक्त कवि का नाम हिंदी के इतिहास में नहीं है। यह समादृत नाम था गुरु तेग बहादुर, ‘शहीदों के सिरताज’ गुरु अर्जुन देव के पौत्र और परम प्रतापी गुरु गोबिंद सिंह के पिता। आचार्य राम चंद्र शुक्ल की ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में तत्कालीन तमाम छोटे-मोटे कवि तो हैं, लेकिन गुरु तेग बहादुर नहीं। किसी अन्य हिंदी साहित्यकार के लेखन में भी नहीं।
कोई-कोई यह भी कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों को धर्मांतरण से बचाने के लिए उनके बलिदान की बात फर्जी है, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है और यह एक निहित उद्देश्य के तहत बाद में जोड़ दी गई है। ऐसा कहना मृत्यु-दर्शन को नई ऊंचाईयां देने वाले गुरु तेग बहादुर के प्रति बड़ी कृतघन्ता है, निंदनीय है। वे लोक कल्याण के लिए आत्मसमोसर्ग करने के लिए ‘हिंद की चादर’ कहे गए, अपनी चादर-छाया से देश को धर्मांधता के ताप से बचाने वाले। गुरु गोबिंद सिंह महाराज के एक दरबारी कवि सेनापति ने उनके बारे लिखा –
प्रगट भये गुरु तेग बहादर। सगल सृस्ट पर ढांपी चादर।।
करम धरम की जिनि पति राखी। अटल करी कलयुग मै साखी।।
दिलचस्प बात है कि उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह ने तो कुछ श्रृंगार परक कवितायें भी कीं और संस्कृत व फारसी के शब्दों का भी खुल कर प्रयोग किया, लेकिन गुरु तेग बहादुर ने केवल हिंदी में रचनायें कीं और फारसी के शब्दों से दूरी बनाए रखी। फारसी तब सरकारी भाषा थी और पूर्ववर्ती गुरुओं ने भी अपनी वाणियों में फारसी के शब्दों का आश्रय लिया था। गुरु तेग बहादुर भी अन्य गुरुओं की तरह संस्कृत और फारसी के विद्वान थे, इसके बावजूद उन्होंने फारसी के आम चलताऊ शब्दों का भी अपवाद स्वरूप ही प्रयोग किया। वे बोलचाल की शुद्ध हिंदी, ब्रज भाषा में ही लिखते रहे और भक्ति-अध्यात्म के विषयों तक ही सीमित रहे। उनकी रचनाओं में एक साथ कबीर और तुलसी के दर्शन होते हैं। कुछ रचनायें-
जग रचना सभ झूठ है जान लेहु रे मीत।
कहि नानक थिर न रहै ज्यो बालू की भीत।।
जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत।
जग रचना तैसी रची जान लेहु रे मीत।।
राम गयो रावण गयो, जाको बहु परिवार।
कहु नानक थिर कछु नहीं, सुपने ज्यों संसार।।
गुरु गोबिंद सिंह महाराज यदि अपने जीवन काल के अंतिम चरण में पुर्नसंपादन कर ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को शमिल न कर जाते तो हिंदी साहित्य के इतिहास में वह अनजाने ही रह जाते। तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक-पुथल, औरंगजेब का समन और तदंतर गिरफ्तारी में गुरु तेग बहादुर का तमाम सृजन इधर-उधर हो गया।
उनकी जो कुछ कवितायें किसी तरह उपलब्ध हो सकीं, उन्हें ही संग्रहित कर गोबिंद सिंह महाराज ने ‘गुरु ग्रंथ’ में प्रतिष्ठित किया। गुरु गोबिंद प्रकांड पंडित और महान कवि थे। संस्कृत, फारसी, पंजाबी और हिंदी शब्द-सम्पदा के धनी। समान अधिकार से उन्होंने इन चारों भाषाओं में सृजन किया, लेकिन उन्होंने अपनी रचनाएं ‘ग्रंथ साहिब’ में शामिल नहीं कीं। यह उनके हृदय की सरलता और निरहंकारिता का द्योतक है।
‘गुरु ग्रंथ साहिब ‘ में गुरु तेग बहादुर के 59 पद और 57 श्लोक (दोहे) संकलित हैं। इतने ही मिल पाए थे। उनकी रचनाओं का शब्द- सौष्ठव बेहद सरल और हृदय स्पर्शी है। उलट बांसियों, ललकार या खंडन से भी रहित। निम्नांकित उनकी कुछ रचनाओं से आप ही तय करिये कि क्या हिंदी लेखकों-समालोचकों ने उनके साथ न्याय किया है?
भै काहू कउ देत नहिं नहि भै मानत आन।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखान।।
ज्ञानी कौन है, इसका कितना सहज निरूपण किया है। इससे बेहतर परिभाषा और क्या हो सकती है?
समत्व और अद्वैत दर्शन की झलक देता उनका भजन-
काहे रे बन खोजन जाई।।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई।।
पुहुप मध्य जिउ बास बसतु है मुकुर मांहि जैसे छाई।।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहि गुरु गिआनि बताई।।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की खाई।।
सभ सुख दाता रामु है दूसर नाहिन कोई।।
हरि को नाम सदा सुखदाई।।
जाकउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनिका हू गति पाई।।
साधो इहु मनु गहिओ न जाई।।
चंचल त्रिसना संगि बसतु है या ते थिरु न रहाई।।
जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि।।
इनमैं कछु सांचो नहीं नानक बिनु भगवान।।
साधो गोबिंद के गुन गावउ।।
मानस जनम अमोलक पाइ।
बिरथा काहि गवावउ।।
छिन महि राउ रंक कउ करई रंक राउ करि डारे।।
रीते भरे भरे सखनावै यह ताको बिवहारे।।
सब कुछ परमात्मा के हाथ में है। वह राजा को भिखारी और भिखारी को राजा तथा भरे को खाली और खाली को भरा बना देता है। तुलसी दास ने भी लिखा है-
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन
परमात्मा मच्छर को ब्रहृमा और ब्रहमा को मच्छर से भी दयनीय बना देता है।
जान लेहु रे मना जाग लेहु कहा गाफल सोइआ।।
जो तनु उपजिआ संग ही सो भी संगि न होइआ।।
दारा मीत पूत संबंधी सगरे धन सिउ लागे।।
जब ही निरधन देखिओ नर कउ संगु छाड़ि सभ भागे।।
प्रीतम जानि लेहु मन माही।।
अपने सुख सिउ जगु फांधिओ को काहु को नाहीं।।
बाह जिना दी पकिडिअै सिर दीजै बाह न छोड़िअै।।
जो नर दुख में दुखु नहि मानै।।
सुख सनेह अरु भै नहि जाके कंचन माटी मानै।।
नहि निंदिआ नहि उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना।।
हरख सोग ते रहै निआरउ नाहि मान अपमाना।।
आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा।।
काम क्रोधु जिहि परसै नाहनि तिह घटिब्रह्मु निवासा।।
गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी।।
नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी।।
अजहू समझि कछु बिगरिओ नाहिनि भजि ले नामु मुरारि ।।
कहु नानक निज मति साधन कउ भाखिओ तोहि पुकारि।।
साहिब श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी में अंकित शबद की अंतिम पँक्तिओं में धन्न गुरु तेग बहादुर साहिब जी समझाते हैं:-
हे भाई! अभी भी समझ जा। (अभी) कुछ नहीं बिगड़ा। और परमात्मा का नाम सिमरा कर।
हे नानक! कह-हे भाई मैं तुझे गुरुमुखों का यह निजी ख्याल पुकार के सुना रहा हूँ। (गुरू साहिब फरमाते हैं हे बन्दे तेरी आत्मा को सुधारने के लिए तुझे यह ऊंचा बोल के समझा दिया है।
