साहित्य जगत में आज भी महकती है हिन्दी के पहले कविसम्मेलन की वो खुशबू …

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अमृत विचार। संगीत-काव्य-कला-साहित्य के तीन आश्रय रहे हैं लोक, भक्ति और राजदरबार ! हिन्दी काव्य का भक्तिकाल काव्य की विविधताओं के कारण प्रसिद्ध है, मगर रीतिकाल में काव्य को राजदरबार का आश्रय मिला। साहित्य की रसधार को आगे बढ़ाने के लिए पुराने कवियों ने अनमोल रचनाएं दीं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र जो कि काव्य और गद्य दोनां …

अमृत विचार। संगीत-काव्य-कला-साहित्य के तीन आश्रय रहे हैं लोक, भक्ति और राजदरबार ! हिन्दी काव्य का भक्तिकाल काव्य की विविधताओं के कारण प्रसिद्ध है, मगर रीतिकाल में काव्य को राजदरबार का आश्रय मिला। साहित्य की रसधार को आगे बढ़ाने के लिए पुराने कवियों ने अनमोल रचनाएं दीं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र जो कि काव्य और गद्य दोनां में ही अपनी श्रेष्ठता रखते थे, उन्होंने काव्य को लोकोन्मुखी बनाया। भारतेन्दु के वृहद साहित्यिक योगदान के कारण ही 1857 से 1900 तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है।

भारतेंदु युग के बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी के अमूल्य योगदान से साहित्य जगत को नई दिशा मिली, उनके नाम पर 1900-1920 को द्विवेदी युग नाम दिया गया। इसके बाद छायावाद युग में साहित्य जगत का प्रवेश हुआ, जिसका समय 1918 से 1936 तक का माना जाता है। इस काल में काव्यगोष्ठियों की परिपाटी खूब फली-फूली। बड़े स्तर पर गोष्ठियों के आयोजन होने लगे, जिसमें काव्यप्रेमी-जन सम्मिलित होते थे। जमाना लोकोन्मुखी होने लगा तो साहित्य की संस्थाए भी धीरे-धीरे स्थापित होने लगीं।

वर्ष 1922 में कानपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक-अधिवेशन होने को था। कविरत्न गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ को वार्षिक-अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष बनाया गया था, उनके मन में कवि सम्मेलन की कल्पना कौंधी। कवि सम्मेलन में श्रीधर पाठक, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, राम नरेश त्रिपाठी, दुलारे लाल भार्गव, अनूप शर्मा, रूपनारायण पांडेय आदि कवि मंच पर विराजमान थे। श्रोताओं के बीच राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन भी विराजमान थे।

इस आयोजन से कविसम्मेलन की यह परंपरा बहुत आगे बढ़ी। कविसम्मेलन के मंच पर बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन जैसे कवि भी उपस्थित हुए। इससे कविता लोकोन्मुखी भी हुई और लोकप्रिय भी। हालांकि समय के साथ विकार कविसम्मेलन की परंपरा में भी आये और अब कवि सम्मेलन का यह रूप व्यवसाय-प्रधान अधिक होने लगा। साहित्य प्रेमी मानते हैं कि अब उस टक्कर के कवि भी नहीं रहे। साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ कभी-कभार में लिखा है कि “हिन्दी के वर्तमान लोकप्रिय कवियों में प्रायः कोई भी नहीं है, जिसे बच्चन-दिनकर-नागार्जुन-भवानी प्रसाद मिश्र आदि के कद का माना जा सके।“

यह तो ठीक है कि आम-जनता के बीच में हिन्दी का पहला कविसम्मेलन सन्‌ 1922 में कानपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर ही हुआ था, किन्तु धर्मयुग :1 अप्रैल 1984 में स्व. भैयासाहब (श्रीनारायण चतुर्वेदी ) का एक लेख छपा था, उसमें उन्होंने लिखा है कि हिंदी का सबसे पहला कविसम्मेलन 1895 में फतेहगढ में हुआ था ।

जिसमें यह बताया गया है कि ग्राउस का नाम भारत-भक्त और हिन्दी-भक्त अंग्रेजों में लिया जाता है। उसने बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किये थे। अपने कार्यकाल को संपन्न करके वह जब इंग्लेंड लौटने लगा, तब वह फतेहगढ में कलेक्टर था ।

इंग्लेंड लौटने से पहले उसने हिन्दी के मित्रों से विदा लेने के लिये एक कविसम्मेलन अपनी ही कोठी में किया था, उसमें 50 कवियों ने समस्यापूर्ति की थी। लगभग 50 कवियों ने भाग लिया था, जिनमें नाथूराम शंकर भी शामिल थे।

श्रीधर पाठक ने ग्राउस की प्रशंसा में कहा था-

अंग्रेजी अरु-फरासीस भाषा कौ पण्डित।

संस्कृत-हिंदी-रसिक विविध-विद्यागुन-मण्डित॥

निज वानी में कीन्हीं तुलसी कृत रामायन।

जासु अमी-रस पियत आज अंगरेजी बुधगन॥

कवि सम्मेलन की इस परंपरा ने धीरे-धीरे अपना स्वरूप बदलना शुरू किर दिया, आमजन से भी इसे खूब मान-सम्मान मिलने से कवियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। वर्तमान युग में भी बड़े-बड़े स्तर पर कवि सम्मेलन के आयोजन किए जाते हैं, लेकिन अब इन सम्मेलनों में साहित्य की वो खुशबू नहीं मिलती जो हमारे पुराने कवि अपने पीछे छोड़ गए हैं।

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