Allahabad High Court: प्राकृतिक न्याय का उपयोग न्याय के उद्देश्यों को हराने के लिए नहीं किया जा सकता

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Published By Deepak Mishra
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प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवाह विच्छेद के एक मामले में अपने महत्वपूर्ण आदेश में कहा कि भले ही आदेश पारित करने से पहले सुनवाई के अवसर पर समझौता नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसका उपयोग न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के लिए नहीं किया जा सकता है। 

कोर्ट ने पाया कि अगर देरी लापरवाही से या जानबूझकर किसी एक पक्ष द्वारा की गई है तो उसे देरी का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति शिव शंकर प्रसाद की खंडपीठ ने श्रीमती ज्योति वर्मा की प्रथम अपील को खारिज करते हुए की। 

गौरतलब है कि विवाह विच्छेद की कार्यवाही वर्ष 2011 में शुरू की गई, जिसे अपीलकर्ता/पत्नी की गैर उपस्थिति के कारण 2014 में खारिज कर दिया गया था। इसके बाद विपक्षी/पति ने विवाह विच्छेद के लिए एक नई कार्यवाही शुरू की। इस बार पत्नी शुरुआत में उपस्थित हुई, लेकिन अन्य तारीखों पर वह उपस्थित नहीं हुई। 

अंत में उसकी गैर उपस्थिति के कारण वर्ष 2018 में मामला बंद कर दिया गया। इसके बाद पत्नी ने मामले में साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए रिकॉल आवेदन दाखिल किया, लेकिन वह तारीखों पर कोर्ट में उपस्थित होने में असफल रही। अत: अभियोजन के अभाव में आवेदन पुनः खारिज कर दिया गया। 

परिणामस्वरुप 2021 में तलाक देने का एकपक्षीय आदेश पारित कर दिया गया। इसके बाद पत्नी ने वर्ष 2022 में एकपक्षीय तलाक की डिक्री के खिलाफ रिकॉल आवेदन दाखिल किया, जिसे अपर प्रधान न्यायाधीश, परिवार न्यायालय, मुरादाबाद ने खारिज करते हुए कहा कि अपीलकर्ता का पिछला आचरण स्पष्ट रूप से कार्यवाही में अनुचित देरी के लिए उसकी लापरवाही या जानबूझकर किए गए कृत्य को सामने लाता है। 

वास्तव में इस मामले को बहुत पहले ही समाप्त हो जाना चाहिए था। एकपक्षीय निर्णय के बावजूद, बाद में निचली अदालत ने पत्नी को दुबारा प्रस्तुत होने का अवसर दिया, लेकिन पत्नी ने करवाई छोड़ना जारी रखा। परिणामस्वरुप हाईकोर्ट ने अपर प्रधान न्यायाधीश के आदेश को बरकरार रखा और एकतरफा आदेश को वापस लेने की अनुमति देने के लिए कोई पर्याप्त कारण नहीं पाया।

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