बसपा: दलित वोट ही छिटक गया...अब काहे की सोशल इंजीनियरिंग

2007 में जिले में जीते थे चार विधायक, उसके बाद लगातार घटता गया वोट प्रतिशत, निकाय चुनाव तक में खाता नहीं खुला

बसपा: दलित वोट ही छिटक गया...अब काहे की सोशल इंजीनियरिंग

आसिफ अंसारी/बरेली। जिले में वोट प्रतिशत में लगातार आ रही गिरावट का साफ इशारा है कि बसपा की सोशल इंजीनियरिंग गुजरे दौर की बात हो चुकी है। हालत यह है कि पार्टी के लिए मजबूत प्रत्याशी के लाले पड़े हुए हैं। पिछले चुनावों के आंकड़े यह भी साफ-साफ बयां कर रहे हैं कि दलितों का कैडर वोट भी पार्टी के हाथ से लगातार छिटकता जा रहा है। खुद दलित समुदाय के मतदाताओं को यह स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि बसपा अब उनके लिए अकेला विकल्प नहीं है। वे लोग अब भाजपा और सपा को भी वोट देने लगे हैं।

बरेली के लोकसभा चुनाव में तो बसपा आज तक अपने किसी प्रत्याशी को नहीं जिता पाई लेकिन 2007 का विधानसभा चुनाव उसका सबसे सबसे सुनहरा दौर था जब जिले की नौ में से चार सीटों पर उसके प्रत्याशी जीते थे। 2012 में प्रदेश में सपा की सरकार बनी तो बसपा का दबदबा खत्म होने लगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में ही बरेली के पांच विधानसभा क्षेत्रों में उसका वोट प्रतिशत 10.4 प्रतिशत पर आ गया। दो साल पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में उसके पांचों प्रत्याशियों को कुल मिलाकर करीब 18 प्रतिशत वोट मिले थे। 2014 के ही लोकसभा चुनाव ने पहली बार दलितों के बसपा से छिटकने की ओर भी इशारा किया। उसे कुल मिलाकर उतने भी वोट नहीं मिले जितनी दलित मतदाताओं की संख्या है।

पिछले दो विधानसभा चुनाव में उसकी हालत में और ज्यादा गिरावट आई। विधानसभा चुनाव 2017 में पांचों सीटों पर उसका वोट प्रतिशत 14.2 था जो 2022 में 5.8 ही रह गया। इन दोनों चुनावों में सभी सीटों पर पार्टी तीसरे नंबर पर रही। 2017 के चुनाव में उसे मीरगंज और 2022 के चुनाव में भोजीपुरा में सर्वाधिक वोट मिले। मीरगंज में तो उसे 35 हजार से भी ज्यादा वोटों का घाटा हुआ। इसी गिरावट के साथ चुनाव दर चुनाव बसपा के कार्यालय में टिकट के दावेदारों की कतार भी छोटी होती गई। इस चुनाव में भी पार्टी अब तक बरेली और बदायूं में मजबूत प्रत्याशी तलाश नहीं कर पाई है।

नगर निकाय चुनाव के परिणामों ने भी बताई बसपा की दयनीय होती हालत
लोकसभा और विधानसभा के चुनावों ने ही नहीं, हाल ही में हुए निकाय चुनाव में भी बसपा का प्रदर्शन काफी खराब रहा। पूरे जिले में एक भी निकाय में बसपा समर्थित प्रत्याशी नहीं जीत पाया। इससे पहले जिला पंचायत के चुनाव में भी जिले के सिर्फ छह वार्डों से बसपा के उम्मीदवार जीते थे लेकिन जब अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ तो इनमें से कई ने भाजपा प्रत्याशी का दामन थाम लिया। पंचायत चुनाव में भी बसपा दमदार प्रदर्शन नहीं कर पाई थी। कई दलित बहुल इलाकों में भी उसके प्रत्याशी नहीं जीत पाए।

बाबा साहब की विचारधारा के मुरीद लेकिन अब जिसे मन करता है, उसे देते हैं वोट
फतेहगंज पूर्वी के सिमरा गांव में रहने वाले गंगाराम बताते हैं कि पहले उनके गांव के लोग सिर्फ बसपा को ही वोट देते थे लेकिन पिछले कुछ चुनावों से एहसास हुआ कि बसपा को वोट देने का कोई नतीजा नहीं हो रहा है तो उनकी बिरादरी के लोगों ने दूसरी पार्टियों को भी वोट देना शुरू कर दिया। काफी लोग अब भाजपा को वोट देने लगे हैं। व्यक्तिगत जुड़ाव हो तो दूसरी पार्टियों के प्रत्याशियों को भी वोट दे देते हैं। इसी गांव के वीरपाल सिंह ने बताया कि भाजपा सरकार में सम्मान निधि मिलती है। इसलिए पिछले चुनाव में उसे वोट दिया था। 

इससे पहले बसपा को ही वोट देते थे। सुशील कुमार कहते हैं कि उनका वोट उसी को जाता है जो बाबा साहब के मिशन पर काम करता है। बोले, बहनजी भी बाबा साहब के मिशन को आगे बढ़ा रही हैं। जगदीश बाबू बोले, उनके गांव में कुल 22 प्रतिशत दलित वोट है। इसमें करीब 60 प्रतिशत अब भी बसपा को जाता है। कुछ और लोगों ने बताया कि कोई भी पार्टी हो, अगर वह दलित उम्मीदवार खड़ा करती है तो वे उसी को वोट देते हैं।

बसपा के साथ जिले में जो भी दलित वोट था, वह हमेशा रहेगा। दलित वोट किसी भी हालत में दूसरे दल को नहीं जा सकता - राजीव कुमार सिंह, बसपा जिलाध्यक्ष।

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