Bareilly News: बदला दौर...चुनाव में 'मुस्लिम रहनुमाओं' की चौखट पर अब नहीं पड़ते नेताओं के कदम

Bareilly News: बदला दौर...चुनाव में 'मुस्लिम रहनुमाओं' की चौखट पर अब नहीं पड़ते नेताओं के कदम

demo image

मोनिस खान, बरेली, अमृत विचार। एक दौर था, जब आला हजरत के शहर में मुसलमानों की रहनुमाई के बहाने कई लोगों ने सियासी पद और कद हासिल करने के सपने देखे। कुछ लोग इसमें कामयाब भी हुए लेकिन समय के साथ राजनीति भी बदली तो यहां भी सबकुछ बदल गया। 

कुछ साल पहले तक चुनाव आते ही बरेली में अलग-अलग दलों के नेताओं का तांता लग जाता था लेकिन पिछले कुछ चुनावों से यह सिलसिला थम गया है। इस लोकसभा चुनाव में भी किसी दल का किसी नेता ने आला हजरत के शहर के किसी ''मुस्लिम रहनुमा'' की चौखट पर कदम नहीं रखा।

तमाम बरसों से सियासी गहराई नापने में जुटे 'मुस्लिम रहनुमाओं' में इसकी बेचैनी साफ झलकती है। हालत यह है कि इन रहनुमाओं के पिछले कुछ समय के सियासी बयानों को अगर एक साथ रखकर देखने से यह अंदाजा भी लगाना मुश्किल लगता है कि वे किस सियासी पार्टी को मुसलमानों को माफिक मानते हैं और किसे नहीं। 

भाजपा स्वाभाविक तौर पर उनके निशाने पर रहती है, लेकिन और पार्टियों में भी कभी कोई तो कभी कोई उनके निशाने पर आती रहती हैं। यह और दिलचस्प है कि कभी सीधा वार कांग्रेस पर होता है तो कभी सपा पर। कभी ऐसा भी होता है कि कोई ''रहनुमा'' सपा पर मुसलमानों से धोखे का आरोप लगा रहा होता है तो कोई कांग्रेस पर।

वैसे अब तक लोकसभा या विधानसभा के किसी चुनाव में यह साबित नहीं हो सका है कि इन ''रहनुमाओं'' की वजह से आम मुसलमानों के रुझान कोई खास फर्क पड़ा हो लेकिन उनके बयान असमंजस जरूर पैदा करते हैं। पिछले कुछ बरसों में यह भी बड़ी तब्दीली आई है कि दरगाह आला हजरत की ओर से सियासी फैसलों और बयानों से पूरी तरह किनारा कर लिया गया है। यह भी फर्क आया है कि पहले आला हजरत के उर्स पर सियासी दलों की ओर से चादरें आने का तांता लग जाता था लेकिन ध्रुवीकरण का पेच फंसने के बाद अब यह सिलसिला भी हल्का पड़ गया है।

आला हजरत खानदान के लोगों की रही हैं सियासत से लंबे समय तक नजदीकियां
आला हजरत खानदान की किसी न किसी शख्सियत के सियासत से जुड़े रहने का लंबा इतिहास रहा है। मौलाना तौकीर के वालिद रेहान रजा खान उर्फ रहमानी मियां आला हजरत खानदान के पहले सदस्य थे जिन्होंने 1967 के आम चुनाव में सीधे तौर पर उतरकर सियासत में कदम रखने की शुरुआत की थी। 

बरेली सीट पर यह चुनाव कांग्रेस के लिए अहम था, क्योंकि 1962 के चुनाव में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के कारण रक्षा राज्य मंत्री रहे सतीश चंद्र तीसरी बार नहीं जीत पाए थे। ब्रजराज सिंह उर्फ आछू बाबू ने पहली बार बरेली में भारतीय जनसंघ का दीपक जलाया था। 1967 के चुनाव में उतरे सतीश चंद्र के आगे रहमानी मियां दीवार बनकर खड़े हो गए। मुसलमानों के अधिकारों की बात करने वाले रहमानी मियां ने निर्दलीय चुनाव लड़कर 69,399 वोट पाए। सतीश चंद्र को 72,050 वोट मिले थे। भारतीय जनसंघ के ही ब्रजभूषण लाल 1,12,698 वोट पाकर चुनाव जीत गए। 

हालांकि इसके बाद रहमानी मियां ने कांग्रेस से विधान परिषद की सदस्यता कुबूल कर ली और सक्रिय राजनीति करते रहे। आईएमसी की बागडोर संभालने से पहले मौलाना तौकीर ने भी बदायूं की बिनावर और बरेली की कैंट विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन दोनों बार हार गए। आईएमसी मीडिया प्रभारी मुनीर इदरीसी के मुताबिक वालिद रहमानी मियां की बनाई पार्टी आईएमसी की बागडोर वर्ष 2000 में तौकीर मियां ने हाथ में ली थी।

आबिदा बेगम के खिलाफ लड़े थे मन्नानी मियां
रहमानी मियां के बाद मन्नान रजा खां मन्नानी मियां आला हजरत खानदान के दूसरे सदस्य थे जिन्होंने चुनाव लड़ा। 1989 में वह बरेली लोकसभा सीट से तत्कालीन कांग्रेस सांसद और पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की पत्नी बेगम आबिदा अहमद के खिलाफ उतरे। इस चुनाव में पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार जीत गए और आबिदा बेगम की हार हुई। हालांकि मन्नानी मियां को सिर्फ 22,876 वोट ही मिले थे और वह चौथे स्थान पर रहे थे।

दरगाह की अहमियत, खूब मिले मंत्री पद
राजनीतिक दलों को खानदान के किसी न किसी सदस्य की ओर से समय-समय पर समर्थन दिया जाता रहा और सरकारें बनने के बाद बदले में पार्टियों की ओर से उन्हें पदों से नवाजा गया। सपा सरकार में आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर रजा खां, दरगाह प्रमुख सुब्हानी मियां के करीबी रहे आबिद रजा खां को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया। बसपा सरकार में सज्जादानशीन अहसन मियां को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया था।

वक्त बदला तो चुनाव लड़ने पर सुब्हानी मियां के दामाद पर हो गई कार्रवाई
वक्त बदलने के साथ दरगाह आला हजरत का सियासत पर रवैया भी बदल गया। विधानसभा चुनाव 2022 में दरगाह प्रमुख सुब्हानी मियां के दामाद आसिफ मियां कोई सहमति लिए बगैर खटीमा से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के खिलाफ एआईएमआईएम के टिकट पर चुनाव में उतरे तो उन्हें दरगाह से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और सभी पद भी ले लिए गए। 

जमात रजा ए मुस्तफा के सलमान मियां की 2021 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से गुपचुप मुलाकात पर भी ऐसा ही बवाल खड़ा हो गया था। खानदान के लोगों में ही कई गुट बन गए। काफी मुश्किल से यह विवाद शांत हो पाया था।

ये भी पढे़ं- Bareilly News: एक तीर से दो शिकार...मौलाना तौकीर रजा का इंडिया गठबंधन को समर्थन, मगर सपा को नहीं