Exclusive: ध्रुवीकरण भाजपा के लिए कठिनाई और मलाई दोनों, 2014 व 2019 में जीत चुकी बीजेपी कर रही हैट्रिक लगाने की तैयारी
कांग्रेस प्रत्याशी आलोक मिश्रा सियासी गोटियां फिट कर दे रहे तगड़ी चुनौती
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अभिषेक वर्मा, कानपुर। कानपुर के चुनावी समर में इस बार चेहरे भले नए हों, लेकिन मुकाबला वही पुराना कांग्रेस और भाजपा के बीच है। पिछले दो चुनाव जीत चुकी भाजपा इस बार हैट्रिक लगाने के लिए पूरा जोर कसे है, तो कांग्रेस वापसी के लिए ताकत लगा रही है। इस सियासी माहौल से मुकाबला धीरे-धीरे कांटे का बनता नजर आ रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो से बनी हवा को काटने का काम कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव साझा रैली से कर गए हैं। ऐसे में दोनों दलों के समर्थकों के अपने-अपने दावे और गुणा-गणित है, लेकिन मतदाता है कि जैसे अपनी खामोशी बूथ पर ही खोलने के लिए हवा का रुख भांपने में लगा है।
चुनावी अभियान समाप्त होने के साथ अब दोनों प्रत्याशी अपने-अपने ज्यादा से ज्यादा वोट डलवाने की रणनीति बनाने में जुट गए हैं। प्रचार के अंतिम दिन भाजपा जहां तीसरी जीत के लिए एड़ी- चोटी का जोर लगाती दिखी तो कांग्रेस उम्मीदवार आलोक मिश्रा पार्टी का वनवास खत्म करने के लिए सपा और आप नेताओं के साथ गली-गली दौड़ते नजर आए।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी जनसभा कर भाजपा के पक्ष में समीकरण धने का प्रयास किया है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी जीआईसी मैदान में आयोजित जनसभा में आरक्षण और संविधान बचाने के नाम पर कांग्रेस को वोट देने के लिए मतदाताओं को समझा गए।
ब्राह्मण वोटों पर कांग्रेस की पैनी निगाह
कानपुर संसदीय सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं को निर्णायक मना जाता है। यही वजह है कि भाजपा पिछले कई चुनावों से ब्राह्मण चेहरे पर ही दांव लगाती रही है। कांग्रेस को भी यह बात समझ में आई और उसने भी इस बार आलोक मिश्रा के रूप में ब्राह्मण चेहरा समर में उतार दिया। कांग्रेस जहां इस चुनाव को स्थानीय बनाम बाहरी बनाने में लगी हुई है तो फर्रुखाबाद के मूल निवासी रमेश अवस्थी यह बताने में लगे हैं कि वर्षों से उनकी कर्मभूमि कानपुर रहा है।
जन्म भले ही फर्रुखाबाद में हुआ पर वे वर्षों से कानपुर में ही रह रहे हैं। दोनों दलों की निगाह ब्राह्मण मतदाताओं पर है। ब्राह्मण समाज के गणमान्य नेताओं को ये दल आगे कर रहे हैं। कांग्रेस- सपा गठबंधन को यह उम्मीद है कि मुस्लिम मतदाता पूरी तरह से उसके साथ होगा।
ऐसे में अगर ब्राह्मण मतदाता भी उसके पक्ष में आया तो जीत आसान हो जाएगी। जबकि रमेश अवस्थी को ब्राह्मण मतों के भाजपा के पक्ष में मजबूती से खड़े रहने के साथ ही मोदी की गारंटी पर भी भरोसा है। उन्हें लगता है कि जब योजनाओं का लाभ देने में जाति धर्म नहीं देखा गया तो इस चुनाव में मुस्लिम मतदाता जो योजनाओं के लाभार्थी हैं, वह उनके साथ खड़े होंगे।
बसपा नहीं बना पा रही त्रिकोण
इस चुनाव में बसपा तमाम कोशिश के बाद भी त्रिकोण नहीं बना पा रही है। हालांकि पूर्व के चुनावों में भी पार्टी के उम्मीदवार कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए थे। इस बार बसपा प्रत्याशी कुलदीप भदौरिया कांग्रेस- भाजपा के मुकाबले प्रचार भी बहुत सक्रियता नहीं दिखा पाए हैं।
विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगा था झटका
लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की पांच सीटें हैं। विधानसभा चुनाव में भाजपा को जबरदस्त झटका लगा था। आर्यनगर, कैंट और सीसामऊ सीट सपा के खाते में गई थी जबकि सिर्फ दो सीटें गोविंद नगर और किदवई नगर भाजपा के खाते में गई है।
1991 में पहली बार खिला था कमल
कानपुर लोकसभा सीट पर सपा और बसपा को कभी जीत नहीं मिली है। कभी यह सीट वामपंथ का गढ़ हुआ करती थी। जनता पार्टी के मनोहर लाल ने 1977 में यहां से जीत दर्ज की थी, जबकि इसके पहले के चार चुनाव श्रमिक नेता एसएम बनर्जी स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत चुके थे। जब 1980 में चुनाव हुआ तो कांग्रेस ने आरिफ मोहम्मद खान को मैदान में उतारा था। वर्तमान में केरल के राज्यपाल हैं।
उनकी यहां ससुराल है। 1984 में कांग्रेस ने नरेश चंद्र चतुर्वेदी को मैदान में उतारा था वे भी जीते, लेकिन जब देश में प्रचंड राम लहर थी तब यहां से माकपा की सुभाषिनी अली जीत गई थीं। यहीं से कांग्रेस का वनवास शुरू हो गया था। 1991, 96 और 98 में लगातार तीन बार जगतवीर सिंह द्रोण भाजपा के टिकट पर जीते।
हालांकि 1999, 2004 और 2009 में कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल सांसद बने और केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे। लेकिन 2014 की मोदी लहर में पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने कांग्रेस से उसका किला जीत लिया। 2019 में उनका टिकट कटा तो सत्यदेव पचौरी मैदान में आए और उन्होंने भी श्रीप्रकाश जायसवाल को पटखनी दे दी। अब इस चुनाव में भाजपा के रमेश अवस्थी के सामने किला बरकरार रखने की चुनौती है।