बरेली: अपने अंत की ओर बढ़ती 106 साल पुरानी शहदाना आटा मिल, एक और इतिहास की थम जाएंगी धड़कनें
बरेली। शहर की गलियों में बहती हवाओं के साथ इतिहास के पन्ने भी उड़ते हैं। हर ईंट, हर दीवार अपने साथ कहानियां समेटे हुए है, कहानियां मेहनत की, संघर्ष की, और उम्मीदों की। ये कहानियां अक्सर शहर की धड़कनों में छिपी होती हैं, उन फैक्ट्रियों और मिलों में, जो किसी समय शहर के गौरव का प्रतीक हुआ करती थीं।
शहदाना में स्थित आटा दाल मिल ऐसी ही एक धड़कन थी, जो धीरे धीरे थम रही है। यह मिल, जो कभी हजारों लोगों की आजीविका का स्रोत थी, अब मिटने के कगार पर है। इस मिल की दीवारों में न केवल ईंटें और सीमेंट हैं, बल्कि उन हजारों श्रमिकों का पसीना और उनकी यादें भी समाई हुई हैं, जिन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा यहां बिताया है।
शहरी विकास के बदलते परिदृश्य में इस ऐतिहासिक मिल का स्थान अब आधुनिक इमारतों और आवासीय
परिसरों ने लेना शुरू कर दिया है। मिल का एक बड़ा हिस्सा पहले ही बिक चुका है, और शेष भाग पर तेजी से प्लॉटिंग चल रही है। यह परिवर्तन न केवल शहर के भौतिक स्वरूप को बदल रहा है, बल्कि इससे जुड़ी सामाजिक और आर्थिक संरचना को भी प्रभावित कर रहा है।
इस मिल के साथ जुड़े लोगों के लिए यह केवल एक इमारत नहीं, बल्कि जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। कई पीढ़ियों ने यहां काम किया, अपने परिवारों का पालन-पोषण किया, और अपने सपनों को साकार करने की कोशिश की। मिल के साथ साथ ये सारी यादें और अनुभव भी मिटने के कगार पर हैं।
शहरी विकास और आर्थिक प्रगति के नाम पर ऐसी ऐतिहासिक इमारतों का विनाश एक गंभीर चिंता का विषय है। यह न केवल शहर की विरासत को नष्ट करता है, बल्कि उस सामूहिक स्मृति को भी मिटाता है जो एक समुदाय की पहचान का हिस्सा होती हैं। इस प्रक्रिया में, हम अपने अतीत से जुड़े महत्वपूर्ण सूत्रों को खो रहे हैं।
यह समय की मांग है कि हम विकास और विरासत के बीच एक संतुलन बनाएं। क्या यह संभव नहीं कि इन ऐतिहासिक इमारतों को संरक्षित कर नए उद्देश्यों के लिए पुनर्जीवित किया जाए। क्या हम अपने शहरों को आधुनिक बनाते हुए उनकी आत्मा को जीवित नहीं रख सकते ?
जैसे-जैसे बुलडोजर इस पुरानी मिल की अंतिम दीवारों को ढहाएंगे, हम केवल एक इमारत नहीं, बल्कि अपने इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय भी खो देंगे। यह वक्त की जरूरत है कि हम अपनी विरासत के प्रति संवेदनशील हों और उसे संरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाएं। क्योंकि, एक शहर की पहचान केवल उसकी नई इमारतों से नहीं, बल्कि उसके इतिहास और संस्कृति से भी बनती है। -अज़हान वारसी
एक आटा चक्की के मिल बनने की दास्तां
आटा मिल से पहले यहां शहर की पहली आटा चक्की थी जो पंडित चतुर्भुज ने अंग्रेजी शासन के दौरान 1918 में लगाई थी। शुरू में यहां घरों में प्रयोग होने वाली सामान्य चक्की से गेहूं पीसा जाता था। फिर बड़ी चक्की के जरिए पिसाई होने लगी। अंग्रेजों के समय में ही पंडित चतुर्भुज ने यहां आटा मिल स्थापित की। बड़े-बड़े रोलर और मशीनें लगी और उन्हें चलाने के लिए 250 हॉर्स पावर का भाप का इंजन भी लगाया गया। 1935 में इस मिल में आग भी लगी लेकिन उसे दोबारा बनवाया गया। पंडित चतुर्भुज के 1945 में चल बसने के बाद उनके बेटे ने पार्टनरशिप में मिल चलाई।
26 हजार गज में फैली है मिल, सेल्स टैक्स नहीं चुका पाए तो सरकार ने कर लिया काफी जमीन पर कब्जा
पंडित चतुर्भुज की तीसरी पीढ़ी के 83 वर्षीय मोहन लाल बताते हैं कि 26 हजार गज में फैली इस मिल में अब कम जगह बची है। 50 साल से जमीन बंटवारे का केस कोर्ट में चल रहा है। उनका बचपन मिल में ही बीता है। अब वह मिल के रिहायशी इलाके में बागवानी करके जीवन बिता रहे हैं। वह बताते हैं कि आजाद भारत में गेहूं की कमी हुई तो अमेरिका से लाल गेहूं आयात किया गया। वह भी इसी मिल में पीसा जाता था। सरकार ने 1200 टन का कोटा तय किया था और कोटेदारों के जरिए वह आटा जनता को बंटवाती थी।
बाद के बरसों में आटा मिल चलाने में घाटा हुआ तो सरकार का बकाया बढ़ता चला गया। तहसील से वसूली की गई। काफी जमीन सेल्स टैक्स का बकाया चुकाने में चली गई। यह जमीन सरकार के कब्जे में आई तो उस परआरएफसी का गोदाम खोल दिया गया। अब यह गोदाम भी खंडहर हो गया है। अब इस इमारत में आटा और तेल मिल की निशानी के तौर पर जंग खाती मसीने बची है। मिल में किसी की आवाजाही पर पाबंदी है। गेट के अंदर प्रवेश करते ही एक बोर्ड दिखता है जिस पर जमीन विवादित होते हुए उसकी खरीद-फरोख्त न करने की सलाह दी गई है। अभी यहां गैस एजेंसी के कार्यालय समेत कुछ गतिविधियां चल रही हैं। कुछ परिवार भी निवास कर रहे हैं।
ये भी पढ़ें- बरेली: BSNL के फिर बदलने लगे दिन, सप्ताह भर में बिके 5 हजार से ज्यादा सिम, एक हजार ने कराए पोर्ट
