“हिसालू”..हिमालयी जंगली फल लेकिन औषधीय तत्वों से लैस
हल्द्वानी, अमृत विचार। उत्तराखंड की पहाड़ी वादियों में आसानी से देखने को मिल जाएगा आपको हिसालू। पहाड़ की रूखी-सूखी धरती पर छोटी झाड़ियों में उगने वाला यह फल या बेरी जंगली रसदार फल है जो देखने में आकर्षित तो लगता ही है वहीं अपने औषधीय तत्वों के लिए भी विख्यात है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में …
हल्द्वानी, अमृत विचार। उत्तराखंड की पहाड़ी वादियों में आसानी से देखने को मिल जाएगा आपको हिसालू। पहाड़ की रूखी-सूखी धरती पर छोटी झाड़ियों में उगने वाला यह फल या बेरी जंगली रसदार फल है जो देखने में आकर्षित तो लगता ही है वहीं अपने औषधीय तत्वों के लिए भी विख्यात है।
उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिसालु जेठ-असाड़ के महीने यानी की मई-जून के महीने में आसानी से देखने को मिल जाएगा। जंगली झाड़ियां आपको इनके फल से लकदक नजर आएंगी। कुछ स्थानों पर इसको हिंसर या हिंसरु के नाम से भी जाना जाता है।

इसका लेटिन नाम Rubus elipticus है , जो कि Rosaceae कुल की झाडीनुमा वनस्पति है। हिसालू दो प्रकार के होते हैं जो पीला और और काले रंग का होता है। पीले रंग का हिसालू आम है लेकिन काले रंग का हिसालू इतना आम नहीं है। एक अच्छी तरह से पका हुए हिसालू का स्वाद मीठा और कम खट्टा होता है। यह फल इतना कोमल होता है कि हाथ में पकडते ही टूट जाता है एवम् जीभ में रखो तो पिघलने लगता है।
इस फल ने कुमाऊं के लोकगीतों में एक खास जगह बनाई है, पहाड़ो में इस फल के आगमन के समय पर्यावरण में खुशी की झलक दिखाई देती है। इस फल को ज्यादा समय तक संभाल के नहीं रखा जा सकता है क्योंकि हिसालू फल को तोड़ने के 1-2 घंटे बाद ही खराब हो जाता है।
इस फल के बारे में प्रसिद्ध कवि गुमानी पन्त भी लिखते हैं कि …..
हिसालू की जात बड़ी रिसालू , जाँ जाँ जाँछे उधेड़ि खाँछे।
यो बात को क्वे गटो नी माननो, दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ।
यानी हिसालू की नस्ल बड़ी नाराजगी भरा है , जहां-जहां जाता है, बुरी तरह खरोंच देता है, तो भी कोइ इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें खानी ही पड़ती हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो हिसालू फलों में प्रचुर मात्र में एंटी ऑक्सीडेंट की अधिक मात्रा होने की वजह से यह फल शरीर के लिए काफी गुणकारी माना जाता है। इसकी जड़ को बिच्छुघास की जड़ एवं जरुल की छाल के साथ कूटकर काढा बनाकर बुखार के रोगी के लिए रामबाण दवा है।
इसकी पत्तियों की ताजी कोपलों को ब्राह्मी की पत्तियों एवं दूर्वा के साथ मिलाकर स्वरस निकालकर पेप्टिक अल्सर की चिकित्सा की जाती है। इसके फलों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार,पेट दर्द,खांसी एवं गले के दर्द में बड़ा ही फायदेमंद होता है। छाल का प्रयोग तिब्बती चिकित्सा पद्धतिमें भी सुगन्धित एवं कामोत्तेजक प्रभाव के लिए किया जाता है। हिसालू फल के नियमित उपयोग से किडनी-टॉनिक के रूप में भी किया जाता है। यही नहीं इसका प्रयोग मूत्र आना (पोली-यूरिया ) , योनि-स्राव,शुक्र-क्षय एवं शय्या-मूत्र ( बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करना ) आदि की चिकित्सा में भी किया जाता है |
हिसालू जैसी वनस्पति को सरंक्षित किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए इसे आई.यू.सी.एन . द्वारा वर्ल्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पेसीज की लिस्ट में शामिल किया गया है एवम् इसके फलों से प्राप्त एक्सट्रेक्ट में एंटी-डायबेटिक प्रभाव भी देखे गए हैं।
