IIT Kanpur ने दिखाया बेहद सस्ते सोलर पैनल का रास्ता…संस्थान की शोध को माना जा क्रांतिकारी कदम, चीन के वर्चस्व को मिलेगी चुनौती

आईआईटी ने दिखाया बेहद सस्ते सोलर पैनल का रास्ता

IIT Kanpur ने दिखाया बेहद सस्ते सोलर पैनल का रास्ता…संस्थान की शोध को माना जा क्रांतिकारी कदम, चीन के वर्चस्व को मिलेगी चुनौती

कानपुर, अमृत विचार। आईआईटी कानपुर ने सौर ऊर्जा पर किए जा रहे शोध में बड़ी सफलता हासिल की है। विशेषज्ञों ने सौर ऊर्जा उत्पादन में सिलिकॉन सेल के विकल्प के रूप में पेरोव्स्काइट सेल तकनीक तैयार की है। यह तकनीक लागत में काफी सस्ती होने से इस शोध को क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। पेरोव्स्काइट सेल तकनीक से सौर ऊर्जा उत्पादन में लागत घटने के साथ ही लक्ष्य हासिल करना आसान हो जाएगा।

आईआईटी के सतत ऊर्जा विभाग के इस शोध अनुसंधान से माना जा रहा है कि सिलिकान सेल के उत्पादन में चीन के वर्चस्व को भारत बड़ी चुनौती दे सकेगा। विभाग की ओर से बताया गया कि शोध परिणाम चकित करने वाले हैं। पेरोव्स्काइट सेल का सौर ऊर्जा उत्पादन में अभी तक इस्तेमाल इस कारण से नहीं हो पा रहा था, क्योंकि इसकी उपयोगिता उम्र सिलिकान सेल के मुकाबले काफी कम थी।

अधिक गर्मी और नमी में ये जल्दी खराब हो जाते थे। आईआईटी कानपुर ने पेरोव्स्काइट सेल की इसी कमी को दूर कर दिया है। इसके साथ ही पेरोव्स्काइट सेल पर कार्बन की परत बिछाकर परा बैंगनी किरणों का प्रभाव रोक दिया है। इसी तरह कुछ और बदलाव करके पेरोव्स्काइट सेल की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ उपयोग अवधि को दो साल से ज्यादा कर दिया है। 

एक करोड़ घरों की छत पर सौर ऊर्जा उत्पादन लक्ष्य हुआ आसान 

इस वित्तीय वर्ष के बजट में भारत सरकार ने देश में एक करोड़ घरों की छत पर सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। इस अभियान में तीन किलोवाट सौर ऊर्जा सिस्टम घरों की छत पर लगाया जाना है। इस सिस्टम में सौर पैनल की कीमत लगभग एक लाख रुपये आती है। पेरोव्स्काइट सेल का उपयोग करने पर ऐसा अनुमान लगाया गया है कि सौर पैनल की कीमत कई गुना कम होकर 10 हजार रुपये रह जाएगी।

इससे सोलर पैनल आम लोगों तक आसानी से पहुंच सकेंगे। कम कीमत वाले सोलर पैनल सौर ऊर्जा के केंद्र सरकार के अभियान को और अधिक तेजी दे सकेंगे। आईआईटी कानपुर के सतत ऊर्जा विभाग के प्रोफेसर केएस नलवा का कहना है कि पेरोव्स्काइट सेल सबसे बड़ी कमियों को दूर करने में कामयाबी हासिल करने के बाद अब इन्हे पांच साल तक टिकाऊ बनाए जाने की तकनीक पर काम किया जा रहा है।

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