बरेली: नतीजे बदलने के लिए विपक्ष को करने होंगे लाखों वोट इधर से उधर

पिछले चुनाव में सबसे कम अंतर से बदायूं तो सर्वाधिक अंतर से पीलीभीत में जीते थे भाजपा प्रत्याशी

बरेली: नतीजे बदलने के लिए विपक्ष को करने होंगे लाखों वोट इधर से उधर

बरेली, अमृत विचार। लोकसभा चुनाव- 2014 के बाद बरेली मंडल की पांच सीटों पर 2019 में और ज्यादा धरातल पर आए विपक्षी दलों के लिए 2024 की चुनौती भी काफी कड़ी साबित होना तय है। भाजपा के मुकाबले में उतरे इंडिया गठबंधन के प्रत्याशियों को कहीं लाख तो कहीं दो लाख से ज्यादा वोट खींचकर अपने पाले में लाने होंगे, तब कहीं उनके लिए कुछ संभावना बन पाएगी। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण का मुकाबला भी इस चुनाव में जातिगत समीकरणों से होना तय है। इसके अलावा अकेले चुनाव में उतरी बसपा का प्रदर्शन भी नतीजों को काफी कुछ प्रभावित करेगा।

इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के लिए आंकड़ों के लिहाज से फिलहाल जो चुनावी मैदान सबसे कम मुश्किल लग रहा है, वह बदायूं का है। बदायूं में 2019 के चुनाव में भाजपा की प्रत्याशी संघमित्रा सिर्फ लगभग 18 हजार वोटों से जीती थीं जो मंडल की चार दूसरी सीटों की तुलना में सबसे कम अंतर था। इस चुनाव में संघमित्रा को पांच लाख 11 हजार 352 वोट मिले थे और सपा-बसपा के संयुक्त प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव को चार लाख 92 हजार 898 वोट। कांग्रेस से पूर्व सांसद सलीम इकबाल शेरवानी लड़े थे जिन्हें 51 हजार 947 वोट मिले थे।

इस चुनाव में फर्क यह है कि सपा से बसपा अलग हो गई है और उसकी जगह कांग्रेस गठबंधन में साथ आ गई है। 2014 के चुनाव के लिहाज से देखा जाए तो उस चुनाव में बसपा के प्रत्याशी को एक लाख 56 हजार वोट मिले थे। सपा प्रत्याशी के खाते से इतने वोट घटा दिए जाएं तो उसके 3.46 लाख वोट ही बचते हैं।

कांग्रेस प्रत्याशी को 2019 में मिले 52 हजार वोट मिलने पर यह संख्या 3.98 लाख पहुंच जाती है। इस लिहाज से भाजपा और इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के वोटों का अंतर 1.13 लाख से ज्यादा वोटों का रह जाता है। इस तरह इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी शिवपाल यादव यह अंतर पाटने के लिए पिछले चुनाव की तुलना में करीब साठ हजार ज्यादा वोटों की जरूरत होगी।

आंवला में 2019 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी धर्मेंद्र कश्यप पांच लाख 37 हजार 675 वोट पाकर जीते थे। उनकी निकट प्रतिद्वंद्वी बसपा की रुचिवीरा थीं जिन्हें सपा से गठबंधन की वजह से चार लाख 23 हजार 932 वोट मिले थे। कांग्रेस के कुंवर सर्वराज सिंह ने 62 हजार 548 वोट पाए थे। धर्मेंद्र और रुचिवीरा के बीच करीब 1.11 लाख वोटों का अंतर था। 2014 के चुनाव में सपा के टिकट पर चुनाव लड़े सर्वराज सिंह ने 2.71 लाख वोट पाए थे। सपा के 2014 के वोट घटाकर और कांग्रेस के 2019 के वोट बढ़ाकर आंवला में इंडिया के प्रत्याशी का आंकड़ा करीब सवा दो लाख वोटों तक ही पहुंचता है। लिहाजा इस संसदीय क्षेत्र में करीब डेढ़ लाख वोटों का इधर से उधर होना ही नतीजे में कुछ बदलाव ला सकता है।

बरेली में 2019 के चुनाव में संतोष गंगवार को करीब 5.65 लाख वोट मिले थे और बसपा के सहयोग से चुनाव लड़े सपा के भगवत सरन गंगवार को 3.98 लाख वोट। कांग्रेस के प्रत्याशी पूर्व सांसद प्रवीण सिंह ऐरन सिर्फ 74 हजार वोट पर सीमित रह गए थे। जीत का अंतर 1.67 लाख वोटों से ज्यादा का था। 2014 के चुनाव में बसपा के प्रत्याशी उमेश गौतम को एक लाख वोट ही मिले थे। इस तरह आंकड़ों को जोड़ने और घटाने के बाद बरेली में इंडिया गठबंधन का प्रत्याशी 3.72 लाख वोटों तक ही पहुंचता दिखता है। इस लिहाज से यहां भी 90 हजार से एक लाख तक वोटों के इधर से उधर होने पर ही नतीजों में कोई बदलाव होने का अनुमान लगाया जा सकता है।

शाहजहांपुर में 2019 के चुनाव में भाजपा के अरुण कुमार सागर को करीब 6.89 लाख वोट मिले थे और बसपा के प्रत्याशी को सपा के सहयोग से 4.20 लाख। कांग्रेस के प्रत्याशी ब्रह्मस्वरूप सागर 35 हजार वोट ही मिले थे। यहां भाजपा और बसपा प्रत्याशी के वोटों का अंतर करीब 1.70 लाख वोटों का था। 2014 के चुनाव में भी सपा और बसपा के प्रत्याशियों को अलग-अलग करीब 4.31 लाख वोट मिले थे। इससे साफ है कि 2019 में सपा का लगभग पूरा वोट बसपा की तरफ शिफ्ट हुआ था। पिछले चुनावों के आंकड़ों को जोड़ने-घटाने के बाद यहां इंडिया गठबंधन के खाते में ढाई लाख से कुछ ज्यादा वोट ही नजर आ रहे हैं। यानी इस संसदीय क्षेत्र में बदलाव के लिए दो लाख से भी ज्यादा वोटों की जरूरत होगी।

पीलीभीत में भाजपा प्रत्याशी वरुण गांधी की सबसे बड़ी जीत हुई थी। उन्हें सात लाख से ज्यादा वोट मिले थे। उनके प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी सपा के हेमराज वर्मा करीब 4.49 लाख वोट ही पा सके थे। दोनों के वोटों का अंतर 2.55 लाख के आसपास था। 2014 के चुनाव में बसपा को 1.96 लाख वोट मिले थे और 2019 के चुनाव में उसका लगभग यह सारा वोट शाहजहांपुर की तरह यहां भी सपा प्रत्याशी के खाते में शिफ्ट हुआ था। कांग्रेस प्रत्याशी को 2014 के चुनाव में करीब 30 हजार वोट ही मिले थे। यहां दो लाख से ज्यादा वोटों के इधर से उधर हुए बगैर इंडिया प्रत्याशी की बात बन पाने के आसार नहीं हैं।

कई और फैक्टर प्रभावित कर सकते हैं चुनाव का नतीजा
हर चुनाव में हवा का रुख कुछ न कुछ बदलता ही रहता है इसलिए लगातार एक ही पार्टी और प्रत्याशी की जीत का कोई दावा नहीं किया जा सकता। चुनाव में कई फैक्टर नतीजों को बदलने में भूमिका निभाते हैं। सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति मतदाताओं का रुख सबसे प्रमुख होता है। इस चुनाव में भी कई अलग तरह के फैक्टर हैं जो कहीं फायदा तो कहीं नुकसान करते नजर आ रहे हैं। इस चुनाव में भाजपा और इंडिया गठबंधन दोनों ने जातिगत समीकरण साधने की पूरी कोशिश की है। यह अलग बात है कि तीन सीटों पर भाजपा की ओर से नए चेहरे हैं। पिछले चुनावों में छोटे दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों को इतने वोट नहीं मिले थे कि नतीजे पर कोई असर डाल पाते। इस बार क्या होगा, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता। बसपा की ओर से खिंचाव का मुस्लिम वोटों पर क्या असर पड़ेगा, इस पर भी वोटों की गिनती निर्भर करेगी। पिछले काफी समय से गूंजते रहे अलग-अलग मुद्दे भी कुछ न कुछ तो भूमिका निभाएंगे ही।

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