आत्मरक्षा में किया गया हमला प्रतिशोधात्मक मानना उचित नहीं :हाई कोर्ट 

आत्मरक्षा में किया गया हमला प्रतिशोधात्मक मानना उचित नहीं :हाई कोर्ट 

प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक हत्यारोपी ससुर को जमानत देते हुए अपनी विशेष टिप्पणी में कहा कि कोई भी ससुर अपनी ही बेटी को विधवा बनाकर अपने दामाद को खत्म नहीं करेगा, जब तक उसके सामने गंभीर और असाधारण खतरा उत्पन्न ना हो। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि यह निर्णय करने के लिए कोई स्वर्णिम मानदंड या अंकगणितीय सूत्र नहीं हो सकता है कि घटना के समय हमलावर की सोच क्या रही होगी। इसके अलावा यह निर्धारित करने के लिए कोई अमूर्त पैरामीटर भी नहीं है कि व्यक्ति द्वारा तत्काल अपनाए गए साधन और बल विवेकपूर्ण, वांछनीय और उचित थे या नहीं। हमले के समय हमलावर की मानसिकता, स्वभाव, व्यवहार और भावनाएं घटना के समय पर हमले की प्रकृति के आधार पर उत्पन्न भ्रम और उत्तेजना पर निर्भर करती है। उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी और न्यायमूर्ति श्रीमती नंदप्रभा शुक्ला की खंडपीठ ने डॉक्टर जे. एन. मिश्रा की अपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए की। 

कोर्ट ने आगे कहा कि अपीलकर्ता और मृतक के बीच पारस्परिक संबंध काफी नाजुक थे। अपीलकर्ता का अपना जीवन और उसकी बेटी का भावी जीवन दांव पर था। ऐसे में उसे तत्काल निर्णय लेना था कि वह किसे बचाए। अतः कहा जा सकता है कि मृतक की हत्या प्रतिशोधात्मक या दुर्भावनापूर्ण विचार का परिणाम नहीं थी बल्कि मजबूरी में निजी रक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए लिया गया एक फैसला था। इसी पृष्ठभूमि पर अंत में कोर्ट ने अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 और आर्म्स एक्ट की धारा 30 के तहत पुलिस स्टेशन जलालाबाद, शाहजहांपुर में दर्ज प्राथमिकी के आधार पर दोषी करार देते हुए अपर सत्र न्यायाधीश, शाहजहांपुर द्वारा पारित निर्णय और सजा को रद्द कर दिया।

मुख्य वाद खारिज होने के बावजूद प्रतिदावे की कार्यवाही चल सकती है
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तलाक के मुकदमे को खत्म करने के नियमों को व्याख्यायित करते हुए कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1) के तहत पत्नी द्वारा दाखिल तलाक की याचिका को वापस लेने से पति द्वारा दाखिल प्रतिदावा समाप्त नहीं हो जाता है, क्योंकि सीपीसी के आदेश 8 नियम 6-डी के अनुसार मुकदमे को वापस लिया मानकर खारिज किया जाता है। जहां तक 'बंद' या 'खारिज' शब्द का सवाल है, एक बार वापसी आवेदन को अनुमति मिलने के बाद मुकदमा सभी व्यावहारिक स्तरों पर बंद हो जाता है। कोर्ट ने आगे बताया कि नियम 6-डी में यह प्रावधान है कि वादी का मुकदमा बंद या खारिज होने के बाद भी प्रतिदावा आगे बढ़ाया जा सकता है। उक्त आदेश न्यायमूर्ति विवेक कुमार बिड़ला और न्यायमूर्ति सैयद कमल हसन रिजवी की खंडपीठ ने इशिता दुआ की प्रथम अपील को खारिज करते हुए पारित किया। 

मामले के अनुसार पत्नी द्वारा अधिनियम, 1955 की धारा 13(1) के तहत तलाक की याचिका दायर की गई थी और विपक्षी/पति द्वारा बच्ची की कस्टडी की मांग करते हुए प्रतिदावा दायर किया गया था। मुद्दे तय होने के बाद पत्नी ने सीपीसी की धारा 151 के साथ पठित आदेश 23 नियम (1)(3) के तहत वापसी का आवेदन दाखिल किया। वापसी आवेदन को अनुमति दिए जाने के बाद प्रतिदावे में मुद्दे तय किए गए, क्योंकि इसके कायम रहने के संबंध में कोई आपत्ति नहीं उठाई गई थी। कोर्ट ने माना कि प्रतिदावा अपनी योग्यता के आधार पर आगे बढ़ेगा, क्योंकि मुद्दों के निर्धारण तक इसकी स्थिरता पर कोई आपत्ति नहीं उठाई गई थी। हालांकि पत्नी की ओर से अधिवक्ता ने तर्क दिया कि मुख्य वाद के खारिज हो जाने के बाद प्रतिदावा कायम नहीं रह सकता। इस पर कोर्ट ने बताया कि प्रतिदावे को अपने आप में एक शिकायत के रूप में माना जाता है। 

इसके अलावा पति ने वापसी आवेदन को केवल इस आधार पर सहमति दी थी कि प्रतिदावे को उसके गुण-दोष के आधार पर आगे बढ़ाने की अनुमति दी जाए। अंत में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रतिदावों को स्वतंत्र मुकदमों के रूप में माना जाना चाहिए। अतः कोर्ट ने माना कि पत्नी द्वारा तलाक की याचिका वापस लेने के बावजूद पति का प्रतिदावा कायम रहेगा।

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