लिखित बयानों में स्वीकारोक्ति को संशोधन द्वारा वापस लेना संभव नहीं :हाईकोर्ट
प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लिखित बयानों में संशोधन के मामले में पुनः स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि लिखित बयानों में की गई स्वीकारोक्ति को संशोधन द्वारा वापस नहीं लिया जा सकता, चाहे टाइपोग्राफिकल त्रुटि हो या अधिवक्ता में बदलाव कर दिया जाए। दरअसल विपक्षी ने लघु वाद न्यायालय में एक मामला दाखिल किया, जिसमें याचियों ने वर्ष 2014 में एक लिखित बयान दाखिल किया था। इसके बाद यह पाया गया कि टाइपोग्राफिकल त्रुटि के कारण लिखित बयान के साथ संलग्न दस्तावेजों में 'लाइसेंस डीड' वाक्यांश के बजाय 'किराएदार' शब्द अंकित हो गया था। बहस करने वाले अधिवक्ता में बदलाव करने के बाद याचियों ने सीपीसी के आदेश 6 नियम 17 के तहत किराएदार शब्द को लाइसेंस धारक शब्द से बदलने के लिए एक संशोधन आवेदन दाखिल किया।
हालांकि उक्त आवेदन इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि लिखित बयान में की गई किसी भी स्वीकारोक्ति को वापस नहीं लिया जा सकता है, साथ ही कोर्ट ने यह भी निष्कर्ष दिया कि मुकदमे के विलंबित चरण में अधिवक्ता में बदलाव करना याचियों को संशोधन का हकदार बनाने के लिए पर्याप्त कारण उत्पन्न नहीं करता है।
हालांकि याचियों के अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट से संशोधन आवेदन पर निर्णय लेते समय उदार दृष्टिकोण अपनाने का अनुरोध किया, लेकिन विपक्षी के अधिवक्ता ने कहा कि एक बार लिखित बयान में कोई स्वीकारोक्ति के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता है। अंत में न्यायमूर्ति नीरज तिवारी की एकलपीठ ने महेंद्र प्रताप सिंह की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि टाइपोग्राफिकल त्रुटि लिखित बयान को वापस लेने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, साथ ही मुकदमे के विलंबित चरण में अधिवक्ता में बदलाव भी इसका आधार नहीं हो सकता है।
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