Moradabad News : पर्यावरण को शुद्ध बनाने वाले गिद्धों की प्रजातियां हुईं विलुप्त, पशुओं को दी जाने वाली डाइक्लोफेनॉक दवा बनी जहर

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Published By Bhawna
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पारिस्थितिकी संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं गिद्ध, सरकारी महकमे लापरवाह, ठोस प्लान नहीं बनाया

रईस शेख, अमृत विचार। पार्क, खेत, खलिहान हों या घने कंटीले जंगल, गिद्धों का अस्तित्व मिट गया है। दूर-दूर तक गिद्ध नजर नहीं आते। विलुप्त हुई इस प्रजाति की ओर न शासन का ध्यान है न ही महकमे को इसकी चिंता? इनके खत्म होने से पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है। इनका भोजन मृत पशु जंगल, पगडंडी एवं सड़क किनारे में पड़े रहने से वातावरण दूषित और सांस लेना मुश्किल हो गया है। विलुप्त गिद्धों की प्रजातियों को सुरक्षित रखने के लिए पशुपालन और वन विभाग भी लापरवाह हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने वाले गिद्धों के विलुप्त होने के कारण जानने की कोशिश भी नहीं की गई है।

वन विभाग की मानें तो डेढ़ दशक पहले हसनपुर रेंज में एक गिद्ध देखा गया था। तत्कालीन डीएफओ विभाष रंजन ने उसकी सुरक्षा, संरक्षण एवं नस्ल बढ़ाने की योजना तैयार की। वन क्षेत्राधिकारी हसनपुर को निर्देशित भी किया लेकिन उनके स्थानांतरण के बाद पूरा प्लान चौपट हो गया। तब से अब तक मंडल में गिद्धों का नामोनिशान मिट गया है यानी एक भी गिद्ध नहीं है।

अध्ययन में ये बात सामने आई है कि देशभर में गिद्धों की नौ प्रजातियां हैं जिनमें वाइड बैक्ड वल्वर व दो अन्य प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। अन्य प्रजातियां भी विलुप्त होने के कगार पर हैं। पार्कों, जंगल वमैदानी क्षेत्र में भी गिद्ध नजर नहीं आते हैं। पारिस्थितिकी संतुलन में अहम् भूमिका निभाने वाले इन गिद्धों की संख्या 1980 के दशक में देशभर में करोड़ों में थी जो अब घटकर हजारों में रह गई है।


गिद्धों के विलुप्त होने के कारण

  • किसानों द्वारा पशुओं के चारे में प्रयोग किए जाने वाले रसायन। मरने के बाद इन पशुओं का मांस खाने से गिद्धों में बीमारी।
  • वन विभाग द्वारा गिद्धों की गणना के लिए ठोस योजना तैयार नहीं करना और लापरवाही बरतना।
  • गिद्धों के संरक्षण के लिए योजना नहीं, बनाना।
  •  पेड़ों का अंधाधुंध कटान और नई बस्तियां।
  • गिद्धों के लिए टास्क फोर्स का गठन नहीं होना।

घटती संख्या का कारण-
मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी अनिल बंसल कहते हैं कि रायल सोसायटी फार प्रोटेक्शन आफॅ वड्र्स व दीगर समितियों ने अपने अध्ययन में पाया है कि गिद्धों की विलुप्ती का कारण डाइक्लोफेनॉक दवा थी जो पशुओं को दी जाती थी। पशुओं के मृत शरीर पर आश्रित गिद्धों के लिए ये दवा जहर बन गई।

प्रयास-
प्रभागीय निदेशक सामाजिक वानिकी सुरेश कुमार कहते हैं कि वर्ष 2006 में गिद्धों की घटती संख्या से चिंतित केंद्र साकार ने इसका कारण बनी डाइक्लोफेनॉक दवा पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद गिद्धों को विलुप्त होने से बचाने के लिए संरक्षण ब्रीडिंग कार्यक्रम किए गए।

बुद्धिजीवियों की राय
चौधरी सदाकत हुसैन एडवोकेट कहते हैं कि गिद्धों के विलुप्त होने से पर्यावरण खतरे में है। पगडंडी व सड़क किनारे मृत पशुओं के कंकाल सड़ने से पर्यावरण दूषित हो रहा है जो जनजीवन के लिए बड़ा खतरा है। दूषित पर्यावरण से जल भी प्रदूषित हो रहा है। जिसके पीने से पशुओं में भी अनेक संक्रामक रोग फैलते हैं। पानी का दूषित होना फसलों के अलावा आम, अमरूद के बाग, इंसान, जानवर व पक्षियों के जीवन के लिए बेहद खतरनाक है। लिहाजा पर्यावरण शुद्ध रखने के लिए गिद्धों का होना भी लाज्मी है।


बुद्धिजीवी शाहनवाज मलिक कहते हैं पर्यावरण की सुरक्षा जरूरी है। पर्यावरण का दूषित होना इंसान व जानवरों के जीवन के लिए खतरे की घंटी है। गिद्ध पर्यावरण को सुरक्षित रखने में अहम् भूमिका निभाते हैं। मृत पशु गिद्धों का पसंदीदा भोजन है। गिद्ध इस विशुद्ध मांस को खा जाते हैं जिससे माहौल सुरक्षित रहा है। प्रदूषण की संभावनाएं कम हो जाती हैं। लोगों को भी पर्यावरण सुरक्षा के लिए चलाई जा रही योजनाओं में सहयोग करना चाहिए।

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