गंगा नदी में बह रहा toxic chemicals, डॉल्फिंस के लिए बन रहा खतरा, अध्ययन में आया सामने 

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Published By Anjali Singh
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नई दिल्ली। गंगा में मिले विषैले रसायनों का खतरनाक स्तर लुप्तप्राय ‘गंगेटिक डॉल्फिन’ के स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। एक वैज्ञानिक अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है। ‘हेलियन’ पत्रिका में प्रकाशित भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि मीठे पानी के ये जलीय जीव अपने भोजन के माध्यम से रसायनों के खतरनाक मिश्रण के संपर्क में आ रहे हैं। 

शोधकर्ताओं ने ‘गंगेटिक डॉल्फिन’ द्वारा खाए जाने वाली मछली की प्रजातियों में 39 प्रकार के अंतःस्रावी-विघटनकारी रसायनों का विश्लेषण किया। अध्ययन के मुताबिक, निष्कर्षों से पता चला कि डॉल्फिन द्वारा शिकार की जाने वाली मछलियों में औद्योगिक प्रदूषक ‘डाइ (टू-एथिलहेक्सिल) फथलेट’ (डीईएचपी) और ‘डाइ-एन-ब्यूटाइल फथलेट’ (डीएनबीपी) जैसे महत्वपूर्ण जैव संचयन होते हैं। अध्ययन में बताया गया कि इन मछलियों में डीडीटी और लिंडेन (-एचसीएच) जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों के अवशेष भी मिले हैं, जो गंगा बेसिन में पर्यावरण नियमों को खराब तरीके से लागू किये जाने की ओर इशारा करते हैं। 

गंगा में रहने वाली डॉल्फिन की आबादी में 1957 के बाद से 50 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है और भारत के राष्ट्रीय जलीय जानवर के रूप में नामित होने के बावजूद उनकी संख्या लगभग एक चौथाई कम हो गई है। दुनियाभर में नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन की केवल पांच प्रजातियां बची हैं और ये सभी खतरे में हैं। अध्ययन में चेतावनी दी गयी कि भारत में यांग्त्जी नदी त्रासदी जैसी घटना हो सकती है, जहां अनियंत्रित मानवीय गतिविधियों के कारण एक समान प्रजाति विलुप्त हो गई थी। 

अध्ययन में प्रदूषण के लिए कई स्रोतों को जिम्मेदार ठहराया गया है, जिसमें खेती में इस्तेमाल किये जाने वाले कीटनाश्क व खरपतवार, कपड़ा क्षेत्र से अनुपचारित औद्योगिक अपशिष्ट, वाहनों से उत्सर्जन, खराब ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बढ़ता पर्यटन शामिल है। अंतःस्रावी-विघटनकारी रसायनों के प्रभाव विशेष रूप से चिंताजनक हैं क्योंकि ‘गंगेटिक डॉल्फिन’ के अंदर हार्मोनल प्रणालियों को प्रभावित कर सकते हैं, उनमें प्रजनन संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र में लंबे समय तक बने रह सकते हैं।

‘गंगेटिक डॉल्फिन’ को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची ‘आई’ के तहत संरक्षित किया गया है लेकिन अध्ययन में इस बात पर जोर दिया गया कि अगर इस प्रजाति को जीवित रखना है तो कागज पर संरक्षण को कार्रवाई योग्य नीति व प्रदूषण नियंत्रण में बदलना होगा। पिछले वर्ष का यह शोध, जल शक्ति मंत्रालय द्वारा पारिस्थितिक डेटा और संरक्षण संबंधी अंतर्दृष्टि तक पहुंच को बढ़ावा देने के लिए शुरू किए गए एक नए पोर्टल पर जारी किए गए कई प्रमुख दस्तावेजों में से एक है।

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