सीलमपुर में कभी फल-फूल रहा था कबाड़ कारोबार, अब मंदी की मार झेल रहे लोग
नई दिल्ली। पूर्वी दिल्ली के न्यू सीलमपुर की घुमावदार, भीड़भाड़ वाली गलियों में कभी काफी चहल-पहल हुआ करती थी, लेकिन अब यहां खामोशी पसरी है। यहां हर घर कबाड़ के कारोबार में लगा हुआ है। पुराने कंप्यूटर, फोन, फ्रिज और उनके अंदरूनी हिस्सों को तोड़कर अलग करके यहां बेचा जाता है। हालांकि इस काम में अब पहले जैसी बात नहीं है।
भारत में ‘ई-वेस्ट’ यानी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के कबाड़ के लिए एक नीति तैयार की जा रही है, ऐसे में प्रवर्तन एजेंसियों की सक्रियता बढ़ रही है। इस सक्रियता के चलते सीलमपुर समेत इस तरह के कबाड़ के लिए पहचाने जाने वाले इलाकों में कारोबार मंदा पड़ता जा रहा है। यह कारोबार सीलमपुर तक सीमित नहीं है, बल्कि लोनी, मुरादाबाद, मेरठ और छोटे शहरों में फैला हुआ है।
पर्यावरण से जुड़ी एक गैर सरकारी संस्था ‘टॉक्सिक्स लिंक’ के अधिकारी विनोद ने कहा, ‘‘वास्तव में कारोबार में कमी नहीं आई है। यह कारोबार अभी भी चल रहा है, लेकिन दिल्ली में अब यह उतना दिखाई नहीं देता।’’ उन्होंने कहा, ‘‘दो चीजें हो रही हैं - बाजार बाहर जा रहा है, और इस कारोबार को कुछ हद तक संगठित तरीके से किया जा रहा है, लेकिन अनौपचारिक तरीका अभी भी हावी है।’’
हाल ही में न्यू सीलमपुर झुग्गी बस्ती के दौरे के दौरान ‘पीटीआई-भाषा’ की संवाददाता ने देखा कि कभी चहल-पहल वाले इस कबाड़ बाजार में अब खामोशी पसरी है। जब संवाददाता झुग्गी बस्ती की संकरी गलियों से गुजरीं तो देखा कि लगभग हर परिवार ई-वेस्ट अलग करने में लगा हुआ था। छह फुट चौड़े और इतने ही फुट लंबे एक मंद रोशनी वाले कमरे में, 50 वर्षीय सलीमा तारों के ढेर के बीच झुकी हुई बैठी हैं।
गठिया के कारण मुड़ चुकीं उनकी उंगलियां सुबह से रात तक तारों को छांटती रहती हैं, और उन्हें केवल टिन की छत से लटकते कम-वाट के बल्ब की मदद से रोशनी मिलती है। दस किलो तार को अलग करने के लिए उन्हें 50 रुपए मिलते हैं - अगर उन्हें तांबे के टुकड़े मिल जाएं तो थोड़ा ज़्यादा मेहनताना मिलता है।
सलीमा तीन बच्चों की मां हैं और घर में अकेली कमाने वाली हैं। उन्होंने बताया कि उनका पति शराब का आदी था और कई साल से लापता है। सबसे बड़ा बेटा चोरी के आरोप में एक साल से अधिक समय से तिहाड़ जेल में बंद है, और मामले की सुनवाई जारी है। सलीमा कहती हैं, ‘‘मैं यह काम 30 साल से कर रही हूं। मैंने इसी में जिंदगी गुजार दी है।’’
सलीमा से अगले मकान में 19 वर्षीय शाहिदा अपने एक कमरे के मकान के बाहर बैठी हैं। शाहिदा की एक महीने पहले शादी हुई थी और उनके हाथों की मेंहदी अभी नहीं उतरी है। मुरादाबाद में विवाह होने के कारण, वह इस काम से अनजान नहीं हैं।
अपने परिवार के लिए नाश्ता बनाने के बाद, वह पति और ससुराल वालों के साथ मिलकर तारों को अलग करने का काम करती हैं। वह कहती हैं, ‘‘तांबा देख रहे हैं... अगर हमें अच्छी रकम मिल जाए तो इससे हमें रोजमर्रा के खर्च चलाने में मदद मिलती है।’’ पास ही में साजिद खान का पांच सदस्यीय परिवार भी पुराने इलेक्ट्रॉनिक सामान को नष्ट करने में जी-जान से लगा हुआ है। वह कहते हैं, ‘‘पहले से काम बहुत कम हो गया है। खरीदार तो हैं, लेकिन जीएसटी और ऊंची कीमतों की वजह से काम दूसरी जगह चला गया है।’’
साजिद की बेटी सुबह स्कूल जाती है और शाम को वापस आकर परिवार की मदद करती है। यहां लगभग हर घर में ऐसा देखने को मिलता है। भारत में ई-कचरा (प्रबंधन) नियम, 2022 लागू किया गया था, जिसका मकसद इस काम में लगे लोगों को अधिक जिम्मेदार बनाना था। लेकिन इसके कार्यान्वयन का ज्यादा असर देखने को नहीं मिला है। इस क्षेत्र पर नजर रखने वाली संस्था ‘टॉक्सिक्स लिंक’ के एसोसिएट डायरेक्टर सतीश सिन्हा कहते हैं, ‘‘कैसे कानून बनाए जाते हैं यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि कार्यान्वयन कैसे होता है यह महत्वपूर्ण होता है।”
उन्होंने कहा, ‘‘दिल्ली का बाजार भले ही आकार में छोटा हो गया हो और कहीं और चला गया हो, लेकिन मेरी समझ से, आकार में वास्तव में कमी नहीं आई है।’’ सिन्हा कहते हैं, ‘‘कई औपचारिक ‘रीसाइकिलर्स’ बाजार में प्रवेश कर चुके हैं, जिनकी संख्या में वृद्धि हुई है। इसलिए बहुत सारे उत्पाद सीधे औपचारिक बाजार में जा सकते हैं, और यही कारण है कि अनौपचारिक बाजार में मंदी हो सकती है।’’
वर्ष 2021-22 में केवल लगभग 5,00,000 टन ई-वेस्ट ही औपचारिक माध्यम से एकत्रित किया गया, जबकि उत्पन्न ई-कचरा 30 लाख टन से अधिक था। सार्वजनिक नीति विश्लेषक धर्मेश शाह का कहना है कि हालांकि कंपनियों को अधिकृत ‘रिसाइकिलर्स’ के पास अपशिष्ट भेजने का आदेश दिया गया है, फिर भी इसमें खामियां बहुत हैं।
शाह कहते हैं, ‘‘नियम जमीनी हकीकत की जटिलता से निपटने में विफल रहे हैं।’’ उन्होंने कहा कि भारत में पुराने माल के रूप में ई-कचरे के आयात से मुश्किलें और बढ़ गई हैं क्योंकि ऐसे उत्पादों और वास्तव में नयी वस्तुओं के बीच अंतर करने के लिए कोई स्पष्ट तंत्र नहीं है।
चीन में बनी ‘वायर स्ट्रिपिंग’ मशीनों के चलते मानव श्रम की संख्या में कमी आई है, लेकिन पूरी तरह नहीं। तारों की छंटाई, चीर-फाड़, जलाने आदि का काम अब भी काफी हद तक हाथ से किया जाता है। न्यू सीलमपुर का ई-अपशिष्ट व्यवसाय अब फल-फूल नहीं रहा है, लेकिन यह खत्म भी नहीं हुआ है। यह दिल्ली के बाहरी इलाकों में कुछ जगह सिमटकर रह गया है।
