बोध कथा: किसी को चोट न लगे
मैं जब छोटी थी, तब उन दिनों गर्मी की छुट्टियों की बात ही कुछ और थी। तब मैं एक महीने पहले से ही मम्मी-पापा से गांव जाने के लिए पूछने लगती थी। एकाध बार तो मम्मी मेरे बार-बार पूछने की वजह से झल्ला जातीं और उसी झल्लाहट में मुझे डांट भी देती थीं, लेकिन तब पापा प्यार से गोद में लेकर बताते कि अगले हफ्ते हम सभी अपने गांव चलेंगे, बिटिया। यह सुनकर मैं खुश हो जाती।
फिर घंटों सोचने बैठ जाती कि इस बार गांव में क्या-क्या और कौन-कौन सी शरारत मुझे करनी है। जिस दिन गांव पहुंचती, उसी दिन से मेरी धमा-चौकड़ी शुरू हो जाती और घर के सभी बड़े कहते कि इसकी सारी आदतें लड़कों से मिलती हैं, लगता ही नहीं कि यह लड़की है। आखिर मैं परिवार की अकेली लड़की जो थी और बाकी सभी लड़के थे।
उन दिनों गर्मी की छुट्टियों में मुझे गिल्ली-डंडा खेलना सबसे ज्यादा पसंद था। मैं गिल्ली-डंडा ज्यादा देर तक खेल सकूं, इसके लिए मैं बेईमानी करने से भी बाज़ नहीं आती थी। लेकिन मम्मी को मेरा गिल्ली-डंडा खेलना बिल्कुल पसंद नहीं था। वह अक्सर मेरे गिल्ली-डंडा खेलने की वजह से झल्ला जाती थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि दादा-दादी मेरा ही पक्ष लेंगे।
पर एक दिन मेरी गिल्ली सामने से आ रही पड़ोस की चाची की आंख में जा लगी और वह चीखती हुई बोलीं, “हाय! मार डाला रे, मेरी आंख फूट गई!”
चाची के इस शोर-शराबे की वजह से अगल-बगल के लोगों के साथ ही उसके घर के लोग भी बाहर आ गए। और मैं मारे डर के थर-थर कांप रही थी। मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह अचानक से कैसे हो गया। चाची की आँख से खून रिस रहा था। आंख फूलकर ऐसे ढक गई थी, जैसे इससे पहले वहां आंख थी ही नहीं। फिर मम्मी को मानो मौका मिल गया। उन्होंने ऐसी डांट लगाई कि मेरी घिग्घी बंध गई।
मैं चार-पांच दिन तक घर से निकली ही नहीं। एक दिन चाची खुद घर आईं और उन्होंने प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “बिटिया, इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं।” उनके इतना कहते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने उनकी आंखों की तरफ देखा तो उनकी आंख पहले से ठीक थी, पर उसमें कुछ सूजन अब भी बाकी थी। उन्होंने गिल्ली मेरे हाथों में पकड़ाते हुए कहा, “तुम खूब गिल्ली-डंडा खेलो, लेकिन मैदान में, ताकि किसी को चोट न लगे।” उनके जाते ही मानो मेरे पैरों में पर लग गए हों और मैं झट गिल्ली-डंडे के साथ मैदान में जा पहुंची। जैसे ही मैं डंडे से गिल्ली को मारने वाली थी, वैसे ही मेरी बेटी सिम्मी ने आवाज़ लगाई— “मम्मी, मुझे कुछ खाने दे दो, बड़ी भूख लगी है।”और मैं बिना डंडे से उस गिल्ली को मारे ही अपने वर्तमान में लौट आई। -रंगनाथ द्विवेदी, लेखक
