पौराणिक कथा : नारद की दीक्षा और ध्रुव का उत्थान

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Published By Anjali Singh
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मनु और शतरूपा के दो पुत्र थे—प्रियव्रत और उत्तानपाद। राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं—सुनीति और सुरुचि। सुनीति से उन्हें ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र प्राप्त हुए। यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थीं, फिर भी राजा का विशेष स्नेह सुरुचि के प्रति था। एक दिन बालक ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठकर खेल रहा था। तभी सुरुचि वहाँ आ पहुँची। सौतन के पुत्र को राजा की गोद में देखकर उसके मन में ईर्ष्या की ज्वाला भड़क उठी। उसने ध्रुव को झपटकर राजा की गोद से उतार दिया और अपने पुत्र उत्तम को बैठा दिया। क्रोध में उसने ध्रुव से कहा—“राजा की गोद और सिंहासन पर बैठने का अधिकार केवल उसी को है, जो मेरी कोख से जन्मा हो। तुम इसके अधिकारी नहीं हो।” सौतेली माँ के कठोर शब्दों से पाँच वर्ष का ध्रुव व्यथित हो उठा। आँखों में आँसू और हृदय में पीड़ा लिए वह अपनी माँ सुनीति के पास पहुँचा और सारी बात कह सुनाई। सुनीति ने धैर्यपूर्वक कहा—“पुत्र! यदि राजा का प्रेम हमें नहीं मिला, तो क्या हुआ? भगवान को अपना सहारा बनाओ। वही तुम्हारे सच्चे रक्षक हैं।”

माता के वचनों से ध्रुव के मन में वैराग्य और भक्ति का बीज अंकुरित हुआ। वह भगवान की प्राप्ति के दृढ़ संकल्प के साथ राजभवन त्यागकर निकल पड़े। मार्ग में उनकी भेंट देवर्षि नारद से हुई। नारद जी ने बालक को समझाने का प्रयास किया, किंतु ध्रुव अपने निश्चय पर अडिग रहे। उनके दृढ़ संकल्प को देखकर नारद ने उन्हें मंत्र की दीक्षा दी। उधर राजा उत्तानपाद को पुत्र के चले जाने का गहरा पश्चाताप हो रहा था। देवर्षि नारद ने उन्हें ढाढ़स बंधाया और कहा कि ध्रुव भगवान की कृपा से महान यश प्राप्त करेंगे, जिससे राजा की कीर्ति भी संसार में फैलेगी। 

 इधर ध्रुव यमुना तट पर पहुँचकर नारद से प्राप्त मंत्र द्वारा भगवान नारायण की कठोर तपस्या में लीन हो गए। अनेक कष्टों और बाधाओं के बावजूद उनका संकल्प डिगा नहीं। उनकी तपस्या का तेज तीनों लोकों में फैलने लगा और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ की गूंज वैकुंठ तक पहुँच गई। भगवान नारायण योगनिद्रा से जागे और बालक ध्रुव की भक्ति से प्रसन्न होकर प्रकट हुए। उन्होंने कहा—“वत्स! तुम्हारी भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम्हें ऐसा लोक प्रदान करता हूँ, जो प्रलय में भी नष्ट नहीं होगा। वह तुम्हारे नाम से ध्रुवलोक कहलाएगा।” भगवान के वरदान से ध्रुव कालांतर में ध्रुव तारा बने—अटल, अमर और भक्ति के शाश्वत प्रतीक।

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