चौक पूरना : भारतीय सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति

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Published By Anjali Singh
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मानव स्वभाव से ही रचनात्मक रहा है। आदि काल से लेकर वर्तमान तक उसने अपने अनुभवों, अनुभूतियों और जीवन में घटने वाली घटनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए विविध रूपों का सृजन किया है। उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों और साधनों के माध्यम से मानव ने अपने भावों को आकार दिया और यही प्रक्रिया कला के प्रारंभिक स्वरूपों की जननी बनी। समय के साथ मानव ने न केवल भौतिक विकास किया, बल्कि अपनी कल्पनाओं, विश्वासों और आध्यात्मिक अनुभूतियों को भी कला के माध्यम से साकार किया। लोककला इसी सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रूप है। यह लोकमानस से जन्म लेती है, उसी से पोषित होती है और समाज की सामूहिक चेतना को प्रतिबिंबित करती है। लोककला की विशेषता यह है कि इसमें कलाकार सीमित साधनों और सरल रेखाओं के माध्यम से भी प्रभावशाली एवं ओजपूर्ण चित्रांकन कर देता है। यह कला किसी औपचारिक प्रशिक्षण, विद्यालय या संस्थान की मोहताज नहीं होती, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारिवारिक परंपरा के रूप में आगे बढ़ती है। मां, दादी और नानी जैसे बुजुर्गों को बनाते देखकर अथवा उनसे सीखकर यह कला जीवन का अंग बन जाती है।

लोककला का एक अत्यंत महत्वपूर्ण रूप ‘चौक’ है। चौक में स्वस्तिक, कलश, चरण, कमल, शंख, सूर्य, चंद्र, सप्त-कमल और अष्ट-कमल जैसे प्रतीकों का निर्माण किया जाता है, जिनका गहरा दार्शनिक और धार्मिक महत्व है। उदाहरणस्वरूप कलश को मानव शरीर का प्रतीक माना जाता है और उसमें भरा जल जीवन-रस का द्योतक है। यह लक्ष्मी का भी प्रतीक है और लगभग सभी शुभ एवं मांगलिक कार्यों में कलश-स्थापना अनिवार्य मानी जाती है। प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्रों में लोककला के बीज रूप दिखाई देते हैं। सिंधु सभ्यता से प्राप्त मिट्टी के पात्रों और मुहरों पर अंकित चित्रों में भी लोकपरंपरा की स्पष्ट झलक मिलती है। मौर्य काल में यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां, सातवाहन तथा उत्तरवर्ती कालखंडों में शिल्प और चित्रकला के माध्यम से लोककला की निरंतरता दिखाई देती है। मध्यकालीन चित्रशैलियों—पाल, अपभ्रंश, राजस्थानी और पहाड़ी में भी लोकपरंपरा का सशक्त स्वरूप देखने को मिलता है। आगे चलकर इसी परंपरा ने आधुनिक भारतीय चित्रकला को भी गहराई और दिशा प्रदान की। 

चौक को उसके उपयोग और उद्देश्य के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है। मांगलिक चौक विवाह, गृहप्रवेश, छठी, वर्षगांठ और जन्मदिन जैसे शुभ अवसरों पर बनाए जाते हैं। विवाह के समय सगाई, तिलक, द्वार-पूजा और मंडप में आटे व हल्दी से चौक पूरने की परंपरा है। गृहप्रवेश के अवसर पर भूमि को गोबर से लीपकर, स्वच्छ कर पाटा पर कलश स्थापना हेतु चौक बनाया जाता है।

मांगलिक चौक

मांगलिक कार्य तिथि, माह, पक्ष, नक्षत्र और गणना के अनुसार किए जाते हैं। विवाह, गृहप्रवेश, वर्षगांठ, छठी आदि अवसरों पर चौक का निर्माण किया जाता है। विवाह में सगाई, तिलक, द्वार-पूजा और मंडप में सूखे आटे व हल्दी से चौक पूरने की परंपरा है। गृहप्रवेश या जन्मदिन के अवसर पर भूमि को गोबर से लीपकर, स्वच्छ कर पाटा पर कलश स्थापना हेतु अलंकरण किया जाता है, इसे ही मांगलिक चौक कहा जाता है।

कल्याणकारी चौक

यह धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। देवी-देवताओं को आसन देने हेतु चौक का निर्माण किया जाता है। सत्यनारायण कथा, श्रीमद्भागवत कथा, अखंड रामायण पाठ, विशेष अनुष्ठानों में मूर्ति-स्थापना, कलश-स्थापना, नवग्रह पूजन, अखंड दीप प्रज्वलन और यज्ञ-वेदी सजाने हेतु चौक पूरना कल्याणकारी माना जाता है।

संस्कार चौक

हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों की परंपरा है और लगभग सभी संस्कारों में चौक का विधान मिलता है। जन्म के समय दीवारों पर शक्ति-देवताओं का अंकन किया जाता है। छठी के अवसर पर आटे का चौक पूरकर दीप प्रज्वलित किया जाता है। बरही में घर से द्वार तक पांच रेखाओं और मध्य में वृत्त का निर्माण किया जाता है। अन्नप्राशन, पाटी पूजन और उपनयन संस्कार में ओम, स्वस्तिक, श्री आदि प्रतीकों से युक्त चौक बनाए जाते हैं।

व्रत-त्योहार चौक

हिंदू धर्म में अनेक व्रत-त्योहारों पर चौक पूरने की परंपरा है। नवरात्रि, नाग पंचमी, रक्षाबंधन, हरतालिका तीज, गणेश चतुर्थी, करवा चौथ, अहोई अष्टमी, दीपावली, गोवर्धन, भैया दूज, छठ, देवोत्थान एकादशी, दशहरा, होली आदि अवसरों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के चौक बनाए जाते हैं। ये आटा, हल्दी, रोली, गेरू, गोबर आदि से निर्मित होते हैं और जन-आस्था तथा सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करते हैं। 

चौक में गेरू, खड़िया, हल्दी, पीली मिट्टी, गोबर और रोली जैसी स्थानीय एवं प्राकृतिक सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इनसे निर्मित रूप केवल सजावटी नहीं होते, बल्कि लोगों की आस्था, विश्वास और धार्मिक मान्यताओं से गहराई से जुड़े होते हैं। आज के समय में कला के अनेक आधुनिक रूप देखने को मिलते हैं, किंतु लोककला आज भी अपनी सादगी, आत्मीयता और सर्वग्राह्यता के कारण समाज के हर वर्ग को समान रूप से आनंदित करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसका स्वपोषित और आत्मनिर्भर स्वरूप है। यह जनसामान्य से जुड़ी रही है, इसलिए इसे न तो राजाश्रय की आवश्यकता पड़ी और न ही प्रबुद्ध वर्ग के संरक्षण की।