मायके की यादों की सौगात है कुमाऊं की विशिष्ट परंपरा ‘भिटौली’
पद्मसम्भव सिहं परमार, अमृत विचार। चैत्र यानि चैत का महीना हमारे पहाड़ में भिटौली महीने के नाम से भी जाना जाता है, भिटौली शब्द भेंट से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ स्थानीय भाषा में ‘मिलने’ से होता है। भिटौली उत्तराखंड की एक लोक परम्परा है। इस परम्परा में शादीशुदा लड़की के मायके वाले अपनी बहन, …
पद्मसम्भव सिहं परमार, अमृत विचार। चैत्र यानि चैत का महीना हमारे पहाड़ में भिटौली महीने के नाम से भी जाना जाता है, भिटौली शब्द भेंट से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ स्थानीय भाषा में ‘मिलने’ से होता है। भिटौली उत्तराखंड की एक लोक परम्परा है। इस परम्परा में शादीशुदा लड़की के मायके वाले अपनी बहन, बेटी को उसके ससुराल में जाकर भेंट यानी कि उपहार देते हैं, जिसे “भिटौली” कहा जाता है।
इस भेंट में मायके वालों की ओर से माता-पिता इसे लेकर लड़की के ससुराल जाते हैं और माता-पिता के बाद भाई या अन्य मायके वाले इस कार्य को आगे बढ़ाते हैं। भिटौली के रूप में लड़की के मायके वाले घर में बनाये हुये कुछ पकवान जैसे- पूरी, पूवे, खीर, और फल, वस्त्र इत्यादि लाते हैं, और साथ ही चावल का आटा, तेल, गेहूं का आटा भी लाते हैं, जिससे लड़की अपने ससुराल में उस दिन कुछ पकवान बनाती हैं और फिर गांव में आस-पड़ोस में बांटती हैं।

शादी के बाद की पहली भिटौली लड़की को उसकी शादी के समय या शादी के बाद के पहले फाल्गुन माह में ही दी जाती है और फिर हर साल चैत्र के महीने में दी जाती है। शादी के बाद का जो पहला चैत का महीना होता है उसे ‘काला महीना’ (शुभ कार्यों के लिए अशुभ समय) स्थानीय भाषा में ‘काव मेंहन’ कहा जाता है, लड़की उस महीने के पहले 5 दिन या पूरे महीने अपने मायके में ही रहती है।
यह भी प्रचलन है कि शादी होने के बाद के पहले चैत महीने के 5 दिन तक पत्नी को अपने पति के मुख को भी नहीं देखना होता है इसिलिये वह मायके चली जाती है। यह प्रथा प्राचीन समय से ही चली आ रही है। ये इसलिये भी शुरू हुई होगी कि पहले आवागमन के सुगम साधन उपलब्ध नहीं थे और ना ही लड़की को मायके जाने की ज्यादा छूट इत्यादी थी। लड़की किसी निकट समबन्धी के शादी ब्याह या दुख बीमारी में ही अपने ससुराल से मायके जा पाती थी। इस प्रकार अपनी शादीशुदा लड़की से कम से कम साल में एक बार मिलने और उसको भेंट देने के प्रयोजन से ही यह त्यौहार बनाया गया। भाई-बहन के प्यार को समर्पित यह रिवाज सिर्फ उत्तरांचल के लोगों के द्वारा ही मनाया जाता है।
विवाहित बहनों को चैत का महीना आते ही अपने मायके से आने वाली ‘भिटौली’ का इंतजार रहने लगता है। उत्तराखंड की हर विवाहित महिला चैत माह में अपने मायके वालों का इंतजार करती है। इस चैत महीने का हमारी पहाड़ी महिलाओं के लिये कितना महत्व है, हमारे पहाड़ी लोकगीतों के माध्यम से आसानी से जाना जा सकता है। स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी के एक गीत की कुछ पंक्तियां इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करती है: “ना बासा घुघुती चैत की, याद आ जैछे मैके मैत की।”
चैत्र माह के दौरान पहाडों में सामान्यतः खेतीबाड़ी के कामों से भी लोगों को फुरसत रहती है, जिस कारण यह रिवाज अपने नाते-रिश्तेदारो से मिलने जुलने का और उनके हाल-चाल जानने का एक माध्यम बन जाता है।
आधुनिकता की दौड़ में ये सब अब धीरे धीरे कम होता जा रहा है, पहले इनके प्रति जिस प्रकार से उत्साह एक ललक होती थी वो अब कम देखने को मिलती है। कहीं कहीं तो अब भी ये उसी तरह से निभाये जाते हैं, पर उतना नहीं। इसके पीछे कारण हैं गांव से शहरों की ओर होता हुआ पलायन। अब अधिकांश लड़की के मायके से उसके मायके वाले कुछ रुपये भेज देते हैं, जिनसे वो सामान खरीद कर एक दिन भिटौली पकाती है और आस पड़ोस में बांट देती है।
