हिंदुओं में लड़कियों के बाल विवाह का आरंभ क्या मध्यकाल में हुआ? जानें इतिहास…

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हमें यही बताया जाता रहा है कि हिंदुओं में लड़कियों का बाल-विवाह मुसलमान आक्रांताओं के भय से मध्यकाल में आरंभ हुआ। यह मान्यता घृणा के कारण गढ़े गए अनेक ‘मिथकों’ में से एक है; क्योंकि हमारे शास्त्र दूसरी ही बात कहते हैं। विवाह के मुख्य रूप से तीन उद्देश्य बताए गए हैं: घरेलू बलि अनुष्ठान …

हमें यही बताया जाता रहा है कि हिंदुओं में लड़कियों का बाल-विवाह मुसलमान आक्रांताओं के भय से मध्यकाल में आरंभ हुआ। यह मान्यता घृणा के कारण गढ़े गए अनेक ‘मिथकों’ में से एक है; क्योंकि हमारे शास्त्र दूसरी ही बात कहते हैं।

विवाह के मुख्य रूप से तीन उद्देश्य बताए गए हैं: घरेलू बलि अनुष्ठान कर्मों के माध्यम से धर्म का उन्नयन; संतानोत्पत्ति से वंशवृद्धि एवं मृत्योपरांत पूर्वजों के सुखमय जीवन की सुनिश्चितता; और रतिसुख। आदि काल में सामान्य रूप से स्त्रियों की शादी वयस्क होने के बाद हुआ करती थी। आरंभिक वैदिक काल में शादी के बाद भी वे स्वतंत्र थीं। ऋग्वेद में यदि पति जुआरी और नशेड़ी हो तो पत्नी को उसे छोड़कर किसी दूसरे पुरुष के पास चले जाने का उदाहरण मिलता है। इसके अलावा इसमें पति के मरने के बाद पत्नी के सामान्य जीवन बिताने की आजादी का भी उल्लेख है।

बाद में परिस्थियाँ बदल जाती हैं। स्मृतियों में वर की न्यूनतम आयु 20 और वधू की वय:संधि (10-14) से तुरत पहले की आयु बताई गई है। कट्टरपंथी वर्ग का संतानप्रेम कितना बढ़ गया था, उसे बौधायन सूत्र (संकलन काल – 800-600 ईसा पूर्व) में निहित इस घोषणा से समझा जा सकता है- जो पिता अपनी बच्ची का विवाह रज:स्राव से पहले नहीं करेगा, वह भ्रूण-हत्या (हत्या से भी बड़े अपराध) का भागी होगा और जब तक उसका विवाह नहीं कर दिया जाता, हर रज:स्राव के बाद उसके इस अपराध की संख्या बढ़ती जाएगी।

यह आम धारणा थी कि विवाह के समय वधू की उम्र वर की उम्र से एक तिहाई हो तो वह आदर्श विवाह है; अर्थात 24 साल के वर को आठ साल की ‘स्त्री’ से विवाह करना चाहिए। (मनुस्मृति, अध्याय-8, श्लोक-93)। इसी अध्याय के एक श्लोक (89) में यह भी है कि ऋतुमती होने के तीन वर्षों तक पिता द्वारा उसके लिए वर निश्चित करने की प्रतीक्षा करे; किंतु इस अवधि में पिता के सफल न होने पर लड़की स्वयं अपने लिए योग्य व्यक्ति से विवाह कर ले।

वाल्मीकि रामायण में विवाह के समय सीता की आयु को लेकर चार बार में दो किस्म की बातें कही गई हैं। पहली बार बालकांड में जनक विश्वामित्र से कहते हैं, ‘भूतल से प्रकट हुई वह कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई’ (भूतलादुत्थितां सा तु व्यवर्धत ममात्मजा)। अपनी इस अयोनिजा कन्या के विषय में मैंने यह दृढ़ निश्चय किया कि जो अपने पराक्रम से इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी के साथ मैं इसका व्याह करूँगा। दिनों-दिन बढ़ने वाली पुत्री को कई राजाओं ने आकर माँगा। परंतु वे लोग शिवजी का धनुष हिलाने में समर्थ नहीं हो सके। यही कारण है कि मैंने आज तक किसी को अपनी कन्या नहीं दी।’(सर्ग- 66)।

स्पष्ट है कि सीता के सयानी होने के (एक-दो साल) बाद ही धनुष तोड़ने पर राम से विवाह हुआ होगा।
दूसरी बार, अयोध्याकांड के अंतिम दो सर्गों में अत्रि के आश्रम में सीता-अनसूया संवाद में सीता का कथन है, ‘जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गई, तब वे बड़ी चिंता में पड़ गए’ (पतिसंयोगसुलभं वयो दृष्ट्वा तु मे पिता)।

तीसरी बार ब्राह्मण अतिथि बनकर आए रावण के पूछने पर सीता अपना परिचय देते हुए कहती हैं, ‘विवाह के बाद बारह वर्षों तक इक्ष्वाकुवंशी (महाराज दशरथ) के महल में पति के साथ सभी मानवोचित भोग भोगे हैं। (राम के अभिषेक के समय) मेरे महातेजस्वी पति की अवस्था पचीस साल से ऊपर थी और मेरे जन्मकाल से लेकर वनगमन-काल तक मेरी अवस्था वर्षगणना के अनुसार अठारह साल की हो गई थी (अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते)। (अरण्यकांड, सर्ग 47, श्लोक 9-10)।
इस कथन के अनुसार विवाह के समय सीता की अवस्था छह साल की थी।

चौथी बार का प्रसंग युद्धकांड का है जब राम सीता के चरित्र पर लांछन लगाते हुए उन्हें अस्वीकार कर के अन्यत्र चले जाने को कहते हैं। राम के आरोप भरे कड़वे कथन के उत्तर में सीता कहती हैं कि ‘बाल्यावस्था में आपने मेरा पाणिग्रहण किया है, इसकी ओर भी ध्यान नहीं दिया। आपके प्रति मेरे हृदय में जो भक्ति है और मुझमें जो शील है, वह सब आपने एक साथ भुला दिया (न प्रमाणीकृत: पाणिर्बाल्ये मम निपीडित:। मम भक्तिश्च शीलं च सर्वं ते पृष्ठत: कृतम्॥) यदि युद्धकांड में दुखी सीता की राम के सम्मुख कही गई बात को सत्य मानें तो उनका विवाह बाल्यकाल में हो गया था।

बाल-विवाह में वृद्धि के लिए कोई ठोस कारण नहीं मिलते। कुछ लोगों का मानना है कि मुसलमानों के डर से माता-पिता अपनी पुत्रियों का विवाह बचपन में कर दिया करते थे और अपनी पत्नियों को घर में बंद कर दिया करते थे। किंतु ऊपर के दृष्टांतों से स्पष्ट है कि ये दोनों प्रथाएँ पहले से मौजूद थीं। अत: इसे कारण मानना उचित नहीं जान पड़ता।

‘धार्मिक आग्रह (संतानोत्पत्ति की जरूरत) हमेशा से रहा है। शास्त्रों के अनुसार कामुकता ने भी अपनी भूमिका निभाई हो सकती है। स्त्री को प्राकृतिक रूप से कामुक माना जाता था। एक अविवाहित लड़की युवारंभ होने के साथ ही अपना प्रेमी ढूंढ़ने लगेगी, यह डर माता-पिता को लगा रहता था। हालाँकि माता-पिता उसकी कठोरतापूर्व रखवाली करते थे, किंतु अगर एक बार कौमार्य भंग हो जाय तो उसका विवाह होना असंभव होगा और माता-पिता को उसका भरण-पोषण का भार वहन करना पड़ेगा तथा अपमान झेलना होगा, यह डर लगा रहता था। माता-पिता के लिए लड़की उनके लिए भार समान थी।’ (ए एल बाशम, The Wonder, that was India, पेज-168)।

अनसूया से सीता ने आगे जो कहा था, उसे इसके प्रमाण में उद्धृत किया जा सकता है कि लड़की भार के समान थी, ‘जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गई, तब इसके लिए वे चिंता में पड़ गए। जैसे कमाए हुए धन का नाश हो जाने से निर्धन मनुष्य को बड़ा दुख होता है, उसी प्रकार मेरे विवाह की चिंता से वे बड़े दुखी हुए। संसार में कन्या के पिता को, वह भूतल पर इंद्र के ही तुल्य क्यों न हो, वर पक्ष के लोगों से, वे अपने समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों, प्राय: अपमान उठाना पड़ता है।’

-नारायण सिंह

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