रिक्तियों की संख्या निर्धारित करना राज्य सरकार का नीतिगत क्षेत्राधिकार : हाईकोर्ट
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता (सिविल) भर्ती से जुड़े विवाद का निस्तारण करते हुए न केवल राज्य सरकार के निर्णय को वैध ठहराया, बल्कि सेवा कानून से जुड़े कुछ अहम सिद्धांतों को भी स्पष्ट रूप से रेखांकित किया। इस संदर्भ में सत्य प्रकाश यादव और अन्य के साथ कई अन्य संबंधित अपीलों और याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता, न्यायमूर्ति अजीत कुमार और न्यायमूर्ति विकास बुधवार की खंड न्यायपीठ ने स्पष्ट किया कि रिक्तियों की संख्या निर्धारित करना राज्य के नीतिगत और प्रशासनिक क्षेत्राधिकार में आता है।
राज्य, एक नियोक्ता के रूप में, परिस्थितियों और नियमों के अनुसार यह निर्णय ले सकता है कि वह विज्ञापित सभी पदों को भरेगा या नहीं। कोर्ट ने याचियों के इस तर्क कि विज्ञापन जारी हो जाने के बाद रिक्तियों की संख्या घटाई नहीं जा सकती, को भी अस्वीकार कर दिया। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि केवल चयनित हो जाना नियुक्ति का अविच्छिन्न या स्वाभाविक अधिकार नहीं देता और नियोक्ता के रूप में राज्य किसी भी चरण में पदों की संख्या में संशोधन कर सकता है। जब तक राज्य का निर्णय मनमाना या दुर्भावनापूर्ण सिद्ध न हो, उसमें न्यायिक हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं बनता।
मामले के अनुसार उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (यूपीपीएससी) ने 24 दिसंबर 2013 को सहायक अभियंता (सिविल) सहित विभिन्न पदों के लिए विज्ञापन जारी किया था। इस विज्ञापन में सिंचाई विभाग के लिए 640 पद दर्शाए गए थे। ये पद वर्ष 2011-12 से 2015-16 तक की रिक्तियों को जोड़कर दिखाए गए थे, जिनमें कुछ भविष्य की संभावित रिक्तियां भी शामिल थीं। बाद में राज्य सरकार ने यह कहते हुए रुख बदला कि रिक्तियों की गणना में त्रुटि हो गई थी।
सेवा नियमों और वास्तविक पद-स्थिति की समीक्षा के बाद सरकार ने निर्णय लिया कि विज्ञापन जारी होने वाले भर्ती वर्ष 2013-14 तक केवल 394 पद ही वास्तव में उपलब्ध थे, इसलिए चयन भी इन्हीं पदों तक सीमित किया जाएगा। राज्य सरकार के इस निर्णय के खिलाफ कई अभ्यर्थियों ने विशेष अपीलें और रिट याचिकाएं दाखिल कीं। उनका तर्क था कि एक बार 640 पदों का विज्ञापन जारी हो जाने के बाद रिक्तियों की संख्या घटाई नहीं जा सकती और भविष्य की रिक्तियों को भी चयन में शामिल किया जाना चाहिए।
इस पर कोर्ट ने भविष्य में अर्ह अभ्यर्थियों के हितों की रक्षा करते हुए निष्कर्ष दिया कि भविष्य की रिक्तियों को शामिल करना उन अभ्यर्थियों के अधिकारों का हनन होगा, जो अगले भर्ती वर्षों में पात्रता प्राप्त करेंगे और ऐसा करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत समान अवसर के सिद्धांत के विपरीत होगा। सरकारी आदेश या नीतिगत निर्णय वैधानिक सेवा नियमों को न तो बदल सकते हैं और न ही उनसे ऊपर हो सकते हैं। जब नियम 'भर्ती वर्ष' को सीमित करते हैं, तो प्रशासनिक आदेश के आधार पर उसका विस्तार नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने विवादित मुद्दा "भर्ती वर्ष" को व्याख्यायित करते हुए बताया कि उत्तर प्रदेश सेवा अभियंता (सिंचाई विभाग) समूह ‘बी’ सेवा नियम, 2007 में ‘भर्ती वर्ष’ की परिभाषा स्पष्ट रूप से दी गई है, जिसके अनुसार यह अवधि एक जुलाई से शुरू होने वाले 12 महीनों की होती है। नियम 14 के अनुसार चयन प्रक्रिया केवल उसी भर्ती वर्ष के दौरान उत्पन्न और उपलब्ध रिक्तियों के लिए की जा सकती है। भविष्य में उत्पन्न होने वाली रिक्तियों को वर्तमान चयन में शामिल करने की अनुमति नियम नहीं देते। अंत में कोर्ट ने राज्य सरकार के निर्णय को पूरी तरह नियमसम्मत, तर्कसंगत और संवैधानिक मानते हुए सभी विशेष अपीलों और संबंधित याचिकाओं को खारिज कर दिया।
