हल्द्वानी: मकर सक्रांति पर लगता है जियारानी का दरबार, कुमाऊं और गढ़वाल से जुटते हैं कत्यूरी वंशज

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हल्द्वानी, अमृत विचार। उत्तराखंड को यूं ही देवों की स्थली नहीं कहा जाता। यहां कदम-कदम पर देवों के धाम यहां आने वाले श्रद्धालुओं को बरबस ही अपनी ओर खींच लेते हैं। रानीबाग स्थित चित्रशिला घाट भी उन सिद्ध पीठों में से एक है जहां साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहा है। लेकिन मकर संक्रांति …

हल्द्वानी, अमृत विचार। उत्तराखंड को यूं ही देवों की स्थली नहीं कहा जाता। यहां कदम-कदम पर देवों के धाम यहां आने वाले श्रद्धालुओं को बरबस ही अपनी ओर खींच लेते हैं। रानीबाग स्थित चित्रशिला घाट भी उन सिद्ध पीठों में से एक है जहां साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहा है। लेकिन मकर संक्रांति पर यहां की रौनक देखते ही बनती है।

हर साल मकर संक्रांति से एक दिन पहले कत्यूरी वंशज रानीबाग पहुंचते हैं। रात में जागर के माध्यम से जिया रानी का गुणगान होता है और मकर संक्रांति को गार्गी नदी में स्नान करने के बाद मंगल की कामना के साथ अपने घरों को लौटते हैं। यह परंपरा कई वर्षों से चल रही है।

कुमाऊं व गढ़वाल के अलग-अलग हिस्सों से जत्थे के रूप में आने वाले कत्यूरी वंशज बाजे के साथ पहुंचते हैं। पुरुष सफेद कुर्ता, धोती और सिर पर सफेद पगड़ी पहने रहते हैं। हुड़का, ढोल, दमाऊं व थाली के आवाज पर जिया रानी की महिमा आधारित गाथा का बखान किया जाता है। पूरी रात आग की धूनी जली रहती है। अवतरित देव डांगरों के माध्यम से लोक कल्याण की कामना करने के उद्देश्य से गढ़वाल व कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों से कत्यूरी वंशज रानीबाग चित्रशिला घाट में पहुंचते हैं।

मकर सक्रांति पर रानीबाग स्थित चित्रशिला घाट पर एकजुट श्रद्धालु।

कत्यूरी वंश की महारानी का इतिहास
कुमाऊं में चंद राजवंश से पहले कत्यूरी शासन था। जानकार बताते हैं कि जिया रानी के बचपन का नाम मौला देवी था। फल्दकोट गढ़ राजघराने की पुत्री मौला देवी कत्यूरी राजा प्रीतम देव यानी पृथ्वी पाल की दूसरी रानी थीं। जिया रानी से पुत्र धामदेव का जन्म हुआ, जो न्यायकारी देवता बने। राजा धामदेव के संरक्षण में जियारानी नौ लाख कत्यूरियों की राजमाता बनी थीं। धामदेव के साथ वह रानीबाग स्थित चित्रशिला चली आईं। करीब 12 साल चित्रशिला में रहते हुए उन्होंने यहां बाग लगवाया, जो बाद में रानीबाग नाम से प्रसिद्ध हो गया।

गुफा से जुड़ी है श्रद्धालुओं की आस्था
किवदंती के मुताबिक, एक बार जिया रानी ने गार्गी नदी (गौला नदी) में स्नान करने के बाद अपना घाघरा सुखाने डाल दिया था। तभी किसी दीवान ने अपनी सेना की मदद से रानी को घेर लिया। आत्मरक्षा में रानी नजदीक की एक गुफा में चली गईं। रानीबाग की जिया रानी गुफा में आज भी दो छिद्र देखे जा सकते हैं।

मकर संक्रांति और उत्तरायणी की पूर्व संध्या पर नैनीताल रोड पर रानीबाग स्थित गार्गी नदी के किनारे कत्यूरी वंशजों ने अपनी कुलदेवी की आराधना को लेकर जागर लगाई जाती है। इस दौरान ढोल-दमाऊं और थाली की थाप के साथ जिया रानी की वीर गाथा से माहौल भक्तिमय हो जाता है।

गौला नदी के किनारे विशाल रंग बिरंगा पत्थर, जिसे जियारानी के घाघरे का प्रतीक मानकर पूजा जाता है।

कत्यूरी राजवंश का इतिहास
कत्यूरी राजवंश उत्तराखंड का एक मध्ययुगीन राजवंश था। इस राजवंश के बारे में माना जाता है कि वे अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज थे और इसलिए वे सूर्यवंशी कहलाते थे। इनका कुमाऊं क्षेत्र पर छठी से 11वीं सदी तक शासन था। कत्यूरी शैली में निर्मित द्वाराहाट, जागेश्वर, बैजनाथ समेत अन्य स्थानों के प्रसिद्ध मंदिर कत्यूरी राजाओं ने ही बनाए हैं।

प्रीतम देव 47वें कत्यूरी राजा थे जिन्हें पिथौराशाही नाम से भी जाना जाता है। इन्हीं के नाम पर वर्तमान पिथौरागढ़ जिले का नाम पड़ा। कुछ इतिहासकार कत्यूरों को कुषाणों के वंशज मानते हैं। बागेश्वर-बैजनाथ स्थित घाटी को भी कत्यूर घाटी कहा जाता है। कत्यूरी राजाओं ने गिरिराज चक्रचूड़ामणि की उपाधि धारण की थी। उन्होंने अपने राज्य को कूर्मांचल कहा अर्थात कूर्म की भूमि। कूर्म भगवान विष्णु का दूसरा अवतार था, जिस वजह से इस स्थान को इसका वर्तमान नाम कुमाऊं मिला। कत्यूरी राजवंश उत्तराखंड का पहला ऐतिहासिक राजवंश माना गया है।

ऐसे पहुंचे चित्रशिला घाट
नैनीताल हाईवे पर रानीबाग क्षेत्र में स्थित चित्रशिला घाट पहुंचने के लिए हल्द्वानी से टैंपो अथवा बस की सेवा ली जा सकती है। दिल्ली से हल्द्वानी के लिए रोडवेज और प्राइवेट बस सेवा है। मकर संक्रांति पर चित्रशिला घाट के लिए हल्द्वानी से खास तौर पर टैंपों, बस सेवा संचालित होती है।

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