भागवत धर्म भारतीय सनातन संस्कृति का मेरुदंड

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भारतीय सनातन संस्कृति का मेरुदंड है -भागवत धर्म। यह ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकांड एवं यज्ञव्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप सुधारात्मक स्वरूप में स्थापित होने वाला , पहला संप्रदाय भागवत संप्रदाय ही है। भागवत धर्म वैदिक हिंसा का विरोधी रहा। भागवत धर्म का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान हैं। भगवान के …

भारतीय सनातन संस्कृति का मेरुदंड है -भागवत धर्म। यह ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकांड एवं यज्ञव्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप सुधारात्मक स्वरूप में स्थापित होने वाला , पहला संप्रदाय भागवत संप्रदाय ही है। भागवत धर्म वैदिक हिंसा का विरोधी रहा। भागवत धर्म का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान हैं। भगवान के स्वरूप वासुदेव कृष्ण हैं। भागवत का महामंत्र है -ओउम नमो भगवते वासुदेवाय -जो द्वादशाक्षर मन्त्र। है। यह प्राचीन धर्म है जो वैदिक धर्म के बाद ही स्थापित हुआ,मानवीय नायक वासुदेव के दैवीकरण के साथ।

गुप्त सम्राट अपने को परम भागवत की उपाधि से विभूषित करते थे। उनके शिलालेखों में इसका उल्लेख मिलता है। पाणिनि और पातंजलि के महाभाष्य में भागवत का उल्लेख है। भागवत पुराण का यह प्रख्यात कथन भागवत धर्म के महत्त्व को स्पष्ट करता है।
किरात हुनाध्राम पुलिंद पुल्सका अभिरकंका यवना खश्यपदय
येन्ये पापा यदुपाश्रयाश्रयाह शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः
अर्थात किरात ,हूण ,आंध्र ,पुलिंद ,पुल्कस ,आभीर ,कंक, यवन ,खश आदि अन्य जंगली जातियों ने भगवान के भक्तों का आश्रय लेकर शुद्धि प्राप्त की है उन प्रभावशाली भगवान को नमस्कार।

भागवत धर्म भक्ति का धर्म है जो भगवान की कृपा से प्राप्त होती है। भक्ति मुक्ति से बढकर है। आनंदमयी मुक्ति ही जीवन का लक्ष्य है भक्त ऐसा नहीं समझता। उसकी दृष्टि में तो मुक्ति नितांत हेय और नगण्य वस्तु है ,प्रभु की सेवा ही एक मात्र लक्ष्य है। भागवत धर्म का केंद्र है श्रीकृष्ण चेतना ,जहाँ भाव की पूर्णता है प्रेम का उदात्त स्वरूप है। प्रेम ही जगत में बीजरूप है जो फलता फूलता और जीवन को चेतनशील बनाये रखता है।

मनीषियों ने कृष्ण को परात्पर तत्व कहा कृष्णात्परं कमपि तत्वमहं न जाने। यह प्रेमतत्व अकेले पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता ,उसे कोई आश्रय चाहिए ,कोई आधार चाहिए। प्रेम का आधार है सौंदर्य ,माधुर्य ,लावण्य ,असीम रूप जो राधा तत्व है। राधाकृष्ण का युग्म पूर्णता को पूर्ण कर देता है। यह युग्मरूप में राधाकृष्ण की लीला ही रस की सम्पूर्णता है रसो वै सः। राधाकृष्ण मानव की विशुद्ध चेतना के ज्योतिर्मय स्वरूप हैं। आज के सन्दर्भ में सारे देश को सूक्ष्मनित्य वृन्दावन बनाने की आवश्यकता है। रसिकाचार्यों की अनुभूति है –चार चरण नृत्यत जहाँ तहाँ न आनंद अंत। आनंद ही भयमुक्त मानव की उपासना यात्रा का पूर्ण प्रतिफल है। आनंद का न तो कोई समुदाय है न कोई विशिष्ट परंपरा। यह सम्प्रदायों से परे है समस्त धर्मों का आश्रय है।

द्राविण देश और व्रात्यों -बंगाल से वैदिक परंपरा का लुप्त वेदांत भावभक्तिमयी कृष्ण चेतना के रूप में उद्भूत हुई जो कर्णाटक ,महाराष्ट्र ,गुजरात ,बंगाल उड़ीसा आदि क्षेत्रों से होता हुआ वृन्दावन की रसभूमि में पहुंचा। यहाँ भक्ति को पुनर्यौवन प्राप्त हुआ। भक्ति के पुत्र ज्ञान और वैराग्य भी चेतनशील हुए। वस्तुतः भागवत धर्म समस्त भारत की रसचेतना और आध्यात्मिक सौंदर्यबोध की विभिन्न धाराओं से सिंचित होता हुआ सनातन भारतीय संस्कृति का बोध करता है। आज जब तथाकथित धर्मों में प्रेमरस की निष्पत्ति नहीं हो पा रही है ,आध्यात्मिक सौंदर्य कुंठित होता जा रहा है ,भारतीय संस्कृति में प्रेमरस के निष्पत्ति की ग्रंथि संक्रमित है सौंदर्यबोध कुंठित होता जा रहा है भागवत धर्म और राधाकृष्ण की चेतना की ओर निहारने की आवश्यकता है।

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