कौन थे भगवान परशुराम ?

कौन थे भगवान परशुराम ?

हमारी ऐश्वर्यमयी महान संस्कृति में भगवान परशुराम महान धनुर्धर, परशुधर‌, विद्याधर और धरा-धर के रूप में एक चमकते हुए आदर्श विन्दु हैं। पिछले दो दशकों में श्रीपरशुराम और श्रीराम की भक्ति में सामाजिक आयाम भी जुड़‌ गया है। इसके पहले हमारे ये नायक कथावार्ता और राम‌लीला के केंद्र तक सीमित होते थे। इनके अलौकिक चरित्र …

हमारी ऐश्वर्यमयी महान संस्कृति में भगवान परशुराम महान धनुर्धर, परशुधर‌, विद्याधर और धरा-धर के रूप में एक चमकते हुए आदर्श विन्दु हैं। पिछले दो दशकों में श्रीपरशुराम और श्रीराम की भक्ति में सामाजिक आयाम भी जुड़‌ गया है। इसके पहले हमारे ये नायक कथावार्ता और राम‌लीला के केंद्र तक सीमित होते थे। इनके अलौकिक चरित्र सर्व-सामान्य को समान रूप से आनंदित करते थे। सभी जाति-धर्म के लोग इनकी लीला का रसपान किया करते थे प्रायः प्रश्न उठता है कि क्या भगवान परशुराम केवल ब्राह्मणों के ही देवता हैं? अगर हां, तो इसके पीछे ब्राह्मणों में उनकी पूज्यता का आधार क्या हो सकता है? हर समाज को अपना प्रतीक चुनने और उस पर गर्व करने का अधिकार है। प्रतीक परशुराम ही क्यों हैं?

परशुराम जी ब्राह्मणों के आदर्श सिद्ध होते हैं या नहीं, पर क्या यह क्षत्रियों के प्रति दुर्भावना के प्रतीक हैं? आज समाज का तापमान धार्मिक नारों और जयकारों पर चढ़ता-उतरता है। अध्यात्म-रहित ‘जय श्रीराम’ का राजनीतिक प्रयोग अल्पसंख्यकों की स्वाभाविक अरुचि का विषय है तो परशुराम के जयघोष से क्षत्रियों का स्वाद खराब होता है। सीता-स्वयंवर जैसा माहौल हमेशा ही बना दिखाई देता है। इधर अनेक ब्राह्मण संस्थाओं की बाढ़‌ में परशुराम की जयकार करने ‌वाले मौका पाते ही ‘जय श्रीराम’‌‌ बोलते नजर आते हैं। फिर भी जाति विशेष की नाराजगी आम ब्राह्मणों के हिस्से में आ जाती है। कभी-कभी लगता है कि ब्राह्मण संगठन केवल नर्सरी की तरह सेवा कर रहे हैं। पौधे तैयार यहां होते हैं लेकिन किसी और के उद्यान में फल प्रदान करते हैं।

हमारी भारतीय संस्कृति और धर्मशास्त्र का ताना-बाना बड़ा गूढ़ है। इसके अलग-अलग धागे निकाल कर समाज के किसी भी वर्ग ‌द्वारा अपना‌ कण्ठहार बनाना कम से कम धर्म-सम्मत ‌तो नहीं ‌है। सबको जोड़कर ही पौराणिक कथानक का मूल्यांकन ठीक है। लेकिन यहां क्षत्रियों के दुर्भाव के मूल में सिर्फ यह बात बैठी‌ होती है कि परशुराम ने क्षत्रियों को मारा-काटा था और ठीक यही बात परशुराम को मानने वालों को जोश से भर दिया करती है। सचाई यह है कि परशुराम ने हयहयवंशी क्षत्रियों का बध करके उनके वर्चस्व से पृथ्वी को मुक्त किया। अगर सारे ही क्षत्रियों को मार देते तो उनके पिता की ननिहाल में कौशिकवंशी कोई एक न‌ बचता। रघुवंश का क्या होता? और भगवान राम कहां पैदा होते? इधर जनकपुर का राज्य कैसे सलामत रह पाता? जनक-नन्दिनी के स्वयंवर में इतने ढेर सारे राजे कहां से इकट्ठे हो जाते? अब यह विचारणीय है कि ब्राह्मणों के नायक परशुराम ही हैं‌‌ तो‌ आखिर इसका‌ आधार क्या है? जब हम ब्राह्मण भगवान परशुराम की महिमा का गान करते हैं तो सबसे पहले यही कहते हैं कि परशुराम ‌भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं।

जी! छठे अवतार हैं। लेकिन २४ अवतारों में ब्राह्मण शरीर में भगवान विष्णु के और अवतार‌‌ भी तो हुए। नारद अवतार हुआ, वामन अवतार हुआ, कपिल अवतार हुआ और व्यास जी का भी अवतार हुआ है। लेकिन ये सब हमारे आदर्श नहीं बन सके। कारण बताता हूं। दूसरी महिमा। भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। हां, चिरंजीवी भी हैं। लेकिन चिरंजीवी हनुमान जी भी हैं। हनुमान जी की जाति का निर्धारण नहीं है तो‌‌ भी बाकी अश्वत्थामा, विभीषण, कृपाचार्य, व्यास जी, महाराज बलि, भक्त विभीषण सब के सब चिरंजीवी भी हैं और ब्राह्मण भी हैं। लेकिन इनमें से भी कोई ब्राह्मणों के प्रतीक बनने से रहे। अगर भगवान परशुराम महान ऋषि होने के‌ कारण पूज्य हैं तो ब्राह्मणों के लिए वशिष्ठ, पराशर, व्यास, वामदेव, गौतम, कश्यप, गर्ग, शांडिल्य, पुलस्त्य आदि श्रेष्ठ महर्षि कोई परशुराम की जगह क्यों नहीं ले सके?
जबकि भगवान परशुराम के साथ एक समस्या भी जुड़ी हुई है कि इनकी अग्रतर वंश-परंपरा नहीं है न ही ब्राह्मणों में इनका गोत्र ही चलता है।

वस्तुतः परशुराम का गोत्र है ही नहीं। इनका जन्म जिस वंश में हुआ है, उसमें क्षत्रिय वंश का सर्वविदित सम्मिलन है। भगवान परशुराम जी की सगी दादी महाराज गाधि की पुत्री और विश्वामित्र जी की सगी बहन थीं। पौराणिक वर्णन के अनुसार महाराज गाधि के जामाता और परशुराम के पितामह ऋषि ऋचीक द्वारा सिद्ध की गई खीर की अदला-बदली से विश्वामित्र में ब्राह्मणों का और परशुराम में क्षत्रियों का संस्कार आ गया। फिर वह कौन सी विशेषता है जो परशुराम को ब्राह्मण समाज में श्रेष्ठ बनाती है? मेरा मत‌ है कि समाज जब अपना‌ आदर्श नायक चुनता है तो वह चाहता है, उसमें क्रांतिकारी चेतना हो, परिवर्तन की क्षमता हो, शस्त्र का बल हो, संघर्ष का इतिहास हो, विजय की गाथा हो। यह सब केवल ‌परशुराम में ही है। इनके स्वभाव की विलक्षणता केवल ब्रह्मतेज से नहीं बल्कि क्षत्रिय तेज के संयोग से है। भगवान परशुराम विष्णु के आवेश-अवतार हैं।

इसलिए क्रोध इनका स्वभाव ही नहीं इनकी शोभा भी है। होना तो यह चाहिए था कि भगवान परशुराम को ब्राह्मण और क्षत्रियों की एकता का प्रतीक होना चाहिए था। लेकिन अल्प-बुद्धिवाद से ग्रसित होकर कुछ‌ क्षत्रियों द्वारा परशुराम को क्षत्रिय-द्रोही समझा जाता है और यही रूढ़िवाद ब्राह्मणों को‌ भी ज्यादा प्रोत्साहित करता है। यह दोनों बातें गलत‌ हैं। मूर्खता यहीं पर जाकर विराम‌‌ नहीं लेती अपितु परब्रह्म परमात्मा भगवान राम को लोग क्षत्रिय बताने के लिए कमर कसे दिखाई देते हैं। यहां पर ब्राह्मणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की जाएगी कि ऋषि पुलस्त्य के पुत्र महान विद्वान, अप्रतिम योद्धा रावण का बध करने के बाद भी राम के प्रति ब्राह्मणों की श्रद्धा में अब तक खरोच‌ भी नहीं आई है। वस्तुतः भगवान परशुराम और भगवान राम दोनों इस बात के लिए पूज्य नहीं हैं कि‌ एक ने ब्राह्मण को मारा और एक ने क्षत्रियों का संहार किया।

अपितु इसलिए पूज्य हैं कि दोनों ने ही जन-विरोधी, धर्म-विरोधी, नीति-विरोधी और न्याय-विरोधी सत्ता का शस्त्र उठा कर प्रतिकार और अंत किया। इस शस्त्र को किसी दंगाई का हथियार जैसा कुछ मानकर बुद्धि को संकुचित करना ठीक नहीं है। शस्त्र उसे कहते हैं जो शास्त्र द्वारा अनुमोदित हो और लोक कल्याण के लिए प्रयुक्त हो। जिसका प्रयोग व्यवस्था परिवर्तन के लिए किया जाय। इसीलिए श्रीवैष्णव साधुओं में भी धनुष-बाण की छाप भुजा पर अंकित की जाती है। यह शस्त्र भी देव-विग्रह की तरह पूजनीय होते हैं। शस्त्र और शास्त्र के समन्वय से ही धर्म की प्राणप्रतिष्ठा हुई है। दोनों राम अर्थात परशुराम और राम ने यही आचरण किया‌ है। जहां शस्त्र की आवश्यकता थी, शस्त्र उठाया और हेतु समाप्त होने के उपरांत शस्त्र से विरत भी हो गए।

राम और परशुराम के बीच काल्पनिक अन्तर्द्वन्द्व और विभेद का सृजन करने वालों को संस्कृत ग्रंथ पढ़ना सुलभ न हो तो केवल रामचरितमानस ही पढ़ लेना चाहिए। भगवान राम ने परशुराम के समक्ष कैसा विनीत आचरण किया है और अंत में भगवान परशुराम ने भगवान राम की कैसी भावपूर्ण वंदना की है। वंदना ही नहीं की है बल्कि राम‌ के‌ वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होते ही जगत-कल्याण के प्रति आश्वस्त होकर अपना शस्त्र ही त्याग दिया है। भगवान परशुराम विष्णु के अवतार थे किंतु उन्हें मालूम था, राम वह हैं जिनके अंश मात्र से नाना विष्णु, नाना विरिञ्चि और नाना शिव की उत्पत्ति होती है।

संभु बिरंचि विष्णु भगवाना।
उपजहिं जासु अंस ते नाना।।
भगवान परशुराम के पावन जन्मोत्सव पर मेरी प्रार्थना है कि भगवान परशुराम को लौकिक दृष्टि से ऊपर उठकर न्याय के योद्धा के रूप में और धर्म-संस्थापक के रूप में देखा जाना चाहिए। जब भी मैं ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग करता हूं तो वह मानवधर्म होता है और जो मानवधर्म होता है, सनातनधर्म उससे तनिक भिन्न नहीं है। भगवान परशुराम ब्रह्मबल, तपबल, पराक्रम, पौरुष और शौर्य के प्रतिमान हैं। अतः ब्राह्मणों के ही नहीं सनातन संस्कृति में विश्वास रखने वाले प्रत्येक के पूज्य परशुराम हैं। हमारी आस्था के केंद्र राम-त्रय‌ यानी‌ तीन राम सदा वरेण्य रहे हैं। भगवान परशुराम, भगवान राम और भगवान बलराम। इनके बिना संस्कृति शून्य है। हनुमान जी की ही तरह भगवान परशुराम चिरंजीवी और अमर हैं।

इसका भी अपना एक‌ संदेश है। जैसे हनुमान जी जब तक धरती पर हैं तब तक सच्ची भगवद्भक्ति का विलोप नहीं हो सकता। इसी तरह परशुराम के चिरंजीवी होने का अभिप्राय है कि उनके मानने वाले चाहे ब्राह्मण हों चाहे कोई और, निरंकुश राज-सत्ता के प्रतिकार और अन्याय का अंत करने की क्षमता भी चिर-चिरंतन उनमें विद्यमान रहेगी। ब्राह्मण अग्रजन्मा है इसलिए भगवान परशुराम के इस आदर्श का निर्वहन करना प्रथमत: उसकी विरासत होनी चाहिए। भगवान राम और परशुराम दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही शिवभक्त हैं। शिवभक्त‌‌ होने का अर्थ ही होता है प्राणिमात्र के कल्याण में विश्वास रखने वाला। परशुराम की पूज्यता ही रामराज्य का आधार ‌है। परशुराम की पूज्यता ही सामाजिक न्याय का आधार है।

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