Birthday Special: मेरा जिस्म फिर से नया रूप धर आया है…ताजगी बहुत है क्योंकि तुमने सजाया है… गिरिजा कुमार माथुर
‘मेरे युवा आम में नया बौर आया है’, यह गीत मुझे बहुत प्रिय है। लखनऊ में रहते हुए उनके कई संग्रह पढ़ चुका था। ‘मंजीर’, ‘शिलापंख चमकीले’, ‘धूप के धान’, बाद में – ‘भीतरी नदी की यात्रा’, ‘मैं वक्त के हूँ सामने’ और उनका कविता चयन ‘छाया मत छूना मन।’ कहना न होगा कि मालवा …
‘मेरे युवा आम में नया बौर आया है’, यह गीत मुझे बहुत प्रिय है। लखनऊ में रहते हुए उनके कई संग्रह पढ़ चुका था। ‘मंजीर’, ‘शिलापंख चमकीले’, ‘धूप के धान’, बाद में – ‘भीतरी नदी की यात्रा’, ‘मैं वक्त के हूँ सामने’ और उनका कविता चयन ‘छाया मत छूना मन।’ कहना न होगा कि मालवा की मिट्टी से आने वाले पत्रकारों में राजेंद्र माथुर हों, प्रभाष जोशी या राहुल बारपुते, अथवा कवियों में कवि शिरोमणि नरेश मेहता, माखन लाल चतुर्वेदी और गिरिजा कुमार माथुर तथा आलोचना में प्रभाकर श्रोत्रिय, हिंदी के पद्य और गद्य के सांचे में जिस तरह की सौष्ठवता और प्राणवत्ता इन लेखकों में दिखती है वैसी सुगंध और प्राणवत्ता अन्यत्र दुर्लभ है।
जब भी गीत के गलियारे से होकर गुजरना हुआ बच्चन, नीरज, रामावतार त्यागी व शंभुनाथ सिंह आदि के प्रारंभिक प्रभावों के बाद गिरिजाकुमार माथुर और उमाकांत मालवीय के गीतों ने छुआ। हिंदी कविता के बड़े कवियों के संपर्क में आने के बाद जहां केदारनाथ सिंह के प्रांजल बिम्बों वाले गीत लुभाते थे तो गिरिजाकुमार माथुर के मांसल बिम्बों वाले गीत ‘ले चल मुझे भुलावा देकर’ (जयशंकर प्रसाद) वाले दिनों में उड़ा ले जाते थे. कविता में धीरे-धीरे गिरिजा कुमार माथुर की एक बड़ी प्रतिमूर्ति बने।

जिन दिनों बनारस में शंभुनाथ सिंह लिख रहे थे, ‘मन का आकाश उड़ा जा रहा, पुरवइया धीरे बहो’, उन्हीं दिनों गिरिजा कुमार माथुर का गीत ‘छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन’ हर उदास मन का गीत बन गया था। यों उनका व्यक्तित्व चमकीले कागज जैसा प्रभावान लगता था पर भीतर के तहखाने में ऐसे उदास कर देने वाले गीत भी थे। अपने इन्हीं गुणों के कारण वे अज्ञेय के ‘तारसप्तक’ के कवि बने। एक ऐसी पैस्टोरल इमेजरी उनके गीतों में थी जैसी कभी ठाकुरप्रसाद सिंह के संथाली गीतों में देखी गयी थी। ‘वंशी और मादल’ की मादकता कहीं दूर गिरिजाकुमार माथुर के गीतों में भी खनकती दिखती थी।
ऊपर उद्धृत गीत का दूसरा पद देखें जिसमें वे कह रहे थे —
आएगी फूल-हवा अलबेली मानिनी
छाएगी कसी-कसी अँबियों की चाँदनी
चमकीले, मँजे अंग
चेहरा हँसता मयंक
खनकदार स्वर में तेज गमक-ताल फागुनी
मेरा जिस्म फिर से नया रूप धर आया है
ताज़गी बहुत है क्योंकि तुमने सजाया है।
ऐसे सौंदर्यधायी गीतों का वह दौर ही था। पर उस दौर में अनेक सीप-शंखों के बीच गिरिजाकुमार माथुर की अपनी आवाज थी, अपनी शैली थी जो किसी अन्य से न मिलती थी। वह लौकिक सौंदर्य को दूर से सलाम न कर उसे अपने कवि सुख के लिए व्यवहृत करने वाली थी।

वे प्रगतिशील खेमे के कवियों में जरूर थे पर कविता पर वैचारिक प्रभुता का भार लादने के कतई हिमायती न थे। इसलिए अपने प्रेमगीतों में मांसलता और सौंदर्यधायी मिजाज के बावजूद वे जीवन की आत्यंतिक आवश्यकताओं को नजरंदाज कर के चलने वाले कवि न थे। उनकी वाणी में ओज का बल था, एक वैज्ञानिक चेतना थी जिससे पृथ्वीकल्प जैसे काव्य की अवधारणा को मूर्त किया।
गिरिजा कुमार माथुर जीवन में रोशनी के हिमायती थे. धूप को धान की तरह कह कर उसे पृथ्वी पर दाने की तरह छींट देने के सौदर्य के द्रष्टा थे. प्रकृति के दुकूल को निहार कर खुश होने वाले माथुर की कवि चेतना में सौदर्य का एक नया स्वरूप दिखता था. मेरे ऊपर उनके गीतों का सर्वाधिक असर है तो भीतरी नदी की यात्रा और पृथ्वी कल्प की वैचारिक प्रतिश्रुति का भी. पर हम उस गिरिजाकुमार को नहीं भूलते जो यह कहने में सुकून पाता था :
इतना मत दूर रहो
गंध कहीं खो जाए
आने दो आंच रोशनी न मंद हो जाए।
श्रृंगार में उनके यहां मिलन और विरह, दोनों के विरल चित्र मिलते हैं। एक ऐसा ही विदा गीत अक्सर किसी विदा प्रसंग में स्मृति की कोरों पर आकर ठिठक जाता है–
अब न उदास करो मुख अपना
बार-बार फिर कब है मिलना
जिस सपने को सच समझा था
वह सब आज हो रहा सपना
याद भुलानी होंगी सारी
भूले भटके याद न करना
चलते समय उमड़ आए इन पलकों में जलते सावन हैं
विदा समय क्यों भरे नयन हैं।

गिरिजा कुमार माथुर के ऐसे गीतों की भले ही कोई सार्थक साहित्यिक महत्ता न हो पर ये गीत उनकी कवि- निर्मिति को समझने में सहायक हैं। पर उनका मन असमानताओं और आजादी के बाद भी देश में गरीबी-बदहाली के ज्यों के त्यों हालात से दुखी होता था। उन्होंने लिखा था- ‘आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना।’ पर पहरुए कहां सावधान रहे। आजादी के बाद साठ के दौर का मोहभंग साहित्य में उत्तरोत्तर छाता गया। एक कविता में उन्होने अपने इस क्षोभ का इजहार इन शब्दों में किया है —
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
आसुँओं में चाँदनी कैसे भरूँ?
शहर, कस्बे, गाँव, ठिठकी चाँदनी
एक जैसी पर न छिटकी चाँदनी
कागजों में बन्द भटकी चाँदनी
राह चलते कहाँ अटकी चाँदनी
हविस, हिंसा, होड़ है उन्मादिनी
शहर में दिखती नहीं है चाँदनी
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
कुटिलता में चाँदनी कैसे भरूँ?
गाँव का बूढ़ा कहे सुन चाँदनी
रात काली हो कि होवे चाँदनी
गाँव पर अब भी अँधेरा पाख है
साठ बरसों में न बदली चाँदनी
फिर मिलेगी कब दही-सी चाँदनी
दूध, नैनू, घी, मही-सी चाँदनी
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
डण्ठलों में चाँदनी कैसे भरूँ?
यें हैं गिरिजा कुमार माथुर. अपने गीतों व कविताओं से मन मोह लेने वाले। मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला है। अनेक सभा-समारोहों ने उन्हें बोलते सुना है। वे उस पीढ़ी के कवि हैं जिसे आज की पीढ़ी भूलती जा रही है। बाजार ने सब कुछ इस तरह इंस्टैंट कार्रवाई में बदल दिया है कि हम अपने पुरखों के प्रति उदासीन हो गए हैं।
हिंदी कविता की अदालत में आज गिरिजा कुमार माथुर की कोई सुनवाई नहीं है। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। निरवधि काल और विपुल वसुंधरा पर कवियों को ऐसी ही लंबी प्रतीक्षाएं करनी पड़ी हैं। हम जब भी उदास होंगे, उनका गीत गुनगुनाएंगे –‘छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन’। और जब जीवन के रस से भरे होंगे तो उनका यह गीत हमें याद आएगा, जीवंतता का अहसास दिलाएगा–
मेरे युवा आम में नया बौर आया है
खुशबू बहुत है क्योंकि तुमने लगाया है।
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