दुर्लभ ‘इंडियन स्कीमर’ से आबाद है चंबल घाटी
इटावा। विलुप्ति की कगार पर पहुंचे खूबसूरत और आकर्षक पक्षी ‘इंडियन स्कीमर’ से चंबल घाटी गुलजार बनी हुई है। चंबल नदी के शुद्ध जल और नेस्टिंग के लिए टापू की उपलब्धता से यह दुर्लभ पक्षी गर्मियों के मौसम में यहां अपना घरौंदा बनाते हैं। देश में अपनी कुल आबादी के करीब 80 फीसदी स्कीमर चंबल …
इटावा। विलुप्ति की कगार पर पहुंचे खूबसूरत और आकर्षक पक्षी ‘इंडियन स्कीमर’ से चंबल घाटी गुलजार बनी हुई है। चंबल नदी के शुद्ध जल और नेस्टिंग के लिए टापू की उपलब्धता से यह दुर्लभ पक्षी गर्मियों के मौसम में यहां अपना घरौंदा बनाते हैं।
देश में अपनी कुल आबादी के करीब 80 फीसदी स्कीमर चंबल सेंचुरी में प्रवास करता है। उत्तर प्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश और राजस्थान में पसरी राष्ट्रीय चंबल सेंचुरी में दुर्लभ घडियाल, मगरमच्छ और कछुओ समेत अन्य जलीय जीवों के लिए संरक्षित है लेकिन यहां मनमाफिक वातावरण मिलने से ‘इंडियन स्कीमर’ अपना बसेरा बनाये हुए हैं।
एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में इस दुलर्भ प्रजाति की आबाद दस हजार से भी कम रह गयी है लेकिन यहां के रमणीय वातावरण में स्कीमर की उपस्थिति दर्ज कराना और संख्या में बढ़ोत्तरी पर्यावरणविदों और पंक्षी प्रेमियों के लिये एक शुभ संकेत है।
चंबल अभ्यारण्य के शोध अधिकारी डा. ऋषिकेश शर्मा ने कहा कि भारत ही नहीं अब दुनिया में इंडियन स्कीमर की सर्वाधिक संख्या चंबल नदी में बची है। वर्ष 1994 में की गई पक्षी गणना के दौरान चंबल में इन पक्षियों की संख्या 3555 थी लेकिन इसके बाद इनकी संख्या घटती चली गई।
साल 2003 में इनकी संख्या घटकर 2332 रह गई और 2011 में घटकर मात्र 1524 रह गई, लेकिन चालू वर्ष में 1839 पक्षी दिखाई देने से वन विभाग को उम्मीद है कि इंडियन स्कीमर का यह आंकड़ा जल्दी ही फिर से 1994 की संख्या के आसपास तक पहुंच जाएगा।
चंबल का मोती नाम से पुकारे जाने वाले इस पक्षी के चंबल टापूओं पर घोंसलों में कुनबा चहचहा रहा है। 17वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक इस पक्षी की सुंरदता और शिकार करने की खासियत ने इसे कई नए नाम भी दिलाए। जो अब 21वीं सदी में भी इसे नए नाम मिल रहे हैं। कोई से चंबल का मोती, पनचीरा, ज्वैल्स ऑफ चंबल इत्यादि नाम से जानते हैं। यानि की जिला पक्षी ऐसा है जो कलाबाजी खाते हुए और पानी को चीरते हुए मछली का शिकार कर यह सिद्ध करता है की वह एक अचूक और माहिर शिकारी है।
इस समय चंबल टापूओं पर नेस्ट बनाकर प्रजनन काल के बाद अब इनके अंडों से बच्चे बाहर निकल रहे हैं, जो कि बारिश होने के बाद जुलाई लास्ट में अपने परिवार के संग यहां से विदा ले लेंगे। मानवीय हस्तक्षेपों और घटते आवास के कारण अब ये एक संकटग्रस्त प्रजाति है। इंडियन स्कीमर मुख्य रूप से नदियों, झीलों और नमभूमियों में रहना पसंद करता है।
वर्तमान में राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य भारतीय स्कीमर की एक बड़ी आबादी का प्रजनन स्थान है। साल में 8 महीने चंबल में अच्छी संख्या में आकर बच्चे पैदा करने के बाद यहां से जाते हैं। इतिहास की बात करे तो इंडियन स्कीमर का जिक्र सबसे पहले एडवर्ड बक्ले (1602-1709) द्वारा बनाए गए उनके चित्र में किया गया। एडवर्ड बक्ले मद्रास में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्जन और एक अग्रणी प्रकृतिवादी थे। ये पहले इंसान थे जिन्होंने भारतीय पक्षियों की प्रजातियों के चित्र बनाकर दस्तावेजीकरण किया था।
इन्होंने मद्रास स्थित फोर्ट सेंट जार्ज के आसपास के इलाके से कुल 22 पक्षियों के चित्र व विवरण तैयार किए थे। एडवर्ड बक्ले ने ही स्कीमर का सबसे पहला चित्र बनाया जिसे उस समय मद्रास सी क्रो का नाम दिया था। 1731 में अल्फ्रेड हेनरी माइल्स ने एन एनसाइक्लोपीडिया ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में जिक्र किया है कि किसी अमेरिकी लेखक ने समुद्र के ऊपर पानी को चीरते हुए उड़ने वाले पक्षी को कट वाटर नाम से संबोधित किया था जो कि बाद में साइसर्स बिल नाम से जाना जाने लगा।
इंडियन स्कीमर का प्रजनन काल भीषण गर्मी के दिनों में (मार्च से मई) होता है। यह मुख्य रूप से खुले रेतीले तट पर अपना घोंसला बनाते हैं। अंडे भूरे धब्बों और लकीरों के साथ सफेद व भूरे रंग के होते हैं। पक्षी प्रेमी संजीव चौहान बताते हैं कि तेज गर्मियों में यह अपने अंडों को गर्मी से बचाने के लिए बार-बार पानी में जाकर पंखों को भिगोकर अंडों पर बैठ उन्हें ठंडा करते हैं।
यह पक्षी दीवाली से पहले लेह-लद्दाख से हजारों किमी का सफर तय कर चंबल तक आते हैं लेकिन सही ढंग से बारिश होने से पहले अपने बच्चों के साथ यहां से वापस लेह-लद्दाख के लिए चले जाएंगे।
