महिलाओं को सबसे अधिक सामाजिक और मानसिक रूप से प्रभावित करती है दीर्घकालिक पीड़ा : विशेषज्ञ

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Published By Vishal Singh
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नई दिल्ली। विशेषज्ञों के मुताबिक दीर्घकालिक पीड़ा जिससे उबरने में तीन महीने से अधिक समय तक लग जाता है उसके जटिल मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आयाम होते हैं। विशेषज्ञों ने लोगों से खासतौर पर अधिक भावुक महिलाओं से अपील की है कि वे इनसे उबरने में मनोवैज्ञानिकों की सेवा लेने से न झिझके। 

विशेषज्ञों ने कहा कि कई तृतीयक या मल्टी-स्पेशियलिटी अस्पतालों में स्थापित पीड़ा क्लीनिक किसी व्यक्ति की शारीरिक समस्या को लक्षित करने के बजाय समग्र रूप से इलाज करने के लिए मनोवैज्ञानिकों के साथ-साथ विशेषज्ञों की सेवा लेते हैं। दिल्ली के पंचशील स्थित मैक्स अस्पताल और लाजपत नगर स्थित मैक्स इंस्टीट्यूट ऑफ कैंसर केयर की वरिष्ठ सलाहकार डॉ. मैरी अब्राहम ने कहा, ‘‘आज-कल चलन व्यक्ति के बजाय बीमारी पर ध्यान केंद्रित करने का है। हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि दर्द एक ‘बायोसाइकोसोशल’ घटना है।’’ 

‘बायोसाइकोसोशल मॉडल’ बताते हैं कि जैविक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-पर्यावरणीय कारकों का संयोजन मानव विकास से लेकर स्वास्थ्य और बीमारी तक व्यापक मुद्दों को कैसे प्रभावित करता है। ‘द लांसेट’ में दर्द अनुसंधान के 2023 राउंड-अप में कहा गया है कि एक सामान्य ‘बायोसाइकोसोशल’ जोखिम कारक खराब नींद, निराशा, थकान, तनाव और 30 से अधिक का बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) है जो दर्द को दीर्घकालिक दर्द, अंतर्निहित दर्द-संबंधी चिकित्सा स्थिति में पहुंचा सकते हैं। 

मैक्स मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल की मनोचिकित्सा की वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. वंदना वी. प्रकाश ने कहा,‘‘दिमाग और शरीर को अलग नहीं किया जा सकता। ये सभी समस्याएं दर्द के व्यवहार के रूप में जानी जाती हैं।’’ ब्रिटिश उपशामक देखभाल चिकित्सक, डेम सिसली सॉन्डर्स ‘संपूर्ण दर्द’ की अवधारणा 1960 के दशक में पेश की थी। उन्होंने इसे ‘एक व्यक्ति के सभी शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और व्यावहारिक संघर्षों को शामिल करने वाली पीड़ा’ के रूप में परिभाषित किया था। सॉन्डर्स ने आधुनिक चिकित्सा में उपशामक (दर्द से संबंधित) देखभाल के महत्व पर जोर दिया। 

चिकित्सकों ने देखा है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को दीर्घकालिक दर्द का अनुभव अधिक होता है। मुंबई स्थित आशीर्वाद इंस्टीट्यूट फॉर पेन मैनेजमेंट एंड रिसर्च की निदेशक डॉ. लक्ष्मी वास ने इस प्रवृत्ति के लिए महिलाओं की चक्रीय हार्मोनल गतिविधि को जिम्मेदार ठहराया, जिसमें गर्भावस्था में वृद्धि के साथ-साथ उनकी सहज संवेदनशीलता और सहानुभूति से उत्पन्न परिवेश के प्रति आम तौर पर उच्च भावनात्मक प्रतिक्रियाएं शामिल हैं। 

वास ने  कहा, ‘‘ उनकी समस्या में इसलिए भी मदद नहीं मिली क्योंकि दुनिया भर के समाज काफी हद तक पितृसत्तात्मक हैं, जो महिलाओं की सोच और विचारों को दूसरे स्थान पर रखने के लिए मजबूर करते हैं। हालांकि कुछ समायोजित कर सकती हैं और जीत सकती हैं, अन्य नहीं करते हैं और जीवन भर उनमें असमानता, भेदभाव और संघर्ष की वजह से आंतरिक तनाव पैदा हो सकता है।’’ 

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