संपादकीय: शीर्ष अदालत की सीख

Amrit Vichar Network
Published By Deepak Mishra
On

उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस चौंकाने वाले असंवेदनशील और अमानवीय आदेश पर बुधवार को रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि नाबालिग लड़की के निजी अंग पकड़ना, उसके पायजामे की डोरी तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश करना दुष्कर्म के प्रयास के अपराध की श्रेणी में नहीं आता। गौरतलब है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 17 मार्च-2025 को अपने आदेश में कहा था कि इस तरह के कृत्य प्रथम दृष्टया यौन अपराध बाल संरक्षण अधिनियम (पास्को) के तहत ‘गंभीर यौन उत्पीड़न’ का अपराध बनेंगे, जिसमें कम सजा का प्रावधान है।

मामला कासगंज में 11 साल की एक लड़की से जुड़ा है, जिस पर 2021 में दो लोगों ने हमला किया था। उच्च न्यायालय का यह फैसला शुरू से ही विवाद के दायरे में था और कानून विशेषज्ञों ने उम्मीद जताई थी कि इस फैसले को उचित तरीके से पलटा जाएगा और न्याय होगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश में की गई विवादास्पद टिप्पणियों पर शुरू की गई स्वत: संज्ञान कार्यवाही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र, उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य को भी नोटिस जारी किया। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा कि यह एक चौंकाने वाला फैसला था। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि फैसला उच्च न्यायालय ने अचानक नहीं सुनाया बल्कि करीब चार महीने तक इसे सुरक्षित रखने के बाद सुनाया। इसका मतलब यह है कि न्यायाधीश ने उचित विचार-विमर्श के बाद फैसला सुनाया। चूंकि टिप्पणियां पूरी तरह असंवेदनशील और अमानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती हैं, इसलिए टिप्पणियों पर रोक लगाना मजबूरी है। 

हालांकि शीर्ष अदालत ने न्यायाधीश के खिलाफ कड़े शब्दों का उपयोग करने के लिए खेद जताया। वास्तव में सामान्य परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश इस स्तर पर किसी फैसले पर रोक लगाने से बचते हैं। परंतु संदर्भित फैसले में की गई टिप्पणियों पर रोक लगाते हुए जो अहम बात कही कि रोक का मतलब है कि किसी तरह की विधिक प्रक्रिया में इनका आगे प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। कानून विशेषज्ञों की राय में न्यायाधीशों को संयम बरतना चाहिए।

क्योंकि इस तरह की टिप्पणियों से न्यायपालिका में लोगों का भरोसा कम होता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने बलात्कार के प्रयास जैसे जघन्य अपराध को कमतर करके आंका है, जो न्याय का उपहास है। सतीश बनाम महाराष्ट्र राज्य जैसे मामलों के बाद शीर्ष अदालत ने यौन अपराधों को कमतर करके आंकने की निंदा की थी। फैसले पर रोक लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने जजों को नसीहत दी है कि न्यायाधीशों को ऐसे मामलों में ज्यादा संवेदनशील और मानवीय होना चाहिए।