बोधकथा: ज्ञान कक्षा का मोहताज नहीं

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Published By Anjali Singh
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एक समय की बात है, एक विद्यार्थी पढ़ाई में अत्यंत होशियार माना जाता था। उसकी लगन और समझदारी की चर्चा पूरे विद्यालय में थी, लेकिन अचानक वह एक गंभीर बीमारी की चपेट में आ गया। कई दिनों तक बिस्तर पर रहने के कारण उसकी विद्यालय में उपस्थिति बहुत कम हो गई। स्थिति ऐसी बन गई कि वह परीक्षा में बैठने की शर्त भी पूरी न कर सका। 

यह बात उसके लिए अत्यंत चिंता का विषय बन गई। उसे लगने लगा कि अब एक साल पीछे रह जाना तय है। उसका मन घबराहट और निराशा से भर गया। अंततः अपने मन का बोझ हल्का करने के लिए वह प्रख्यात विद्वान और मार्गदर्शक मदन मोहन मालवीय जी के पास पहुंचा। विद्यार्थी ने कांपती आवाज में अपनी व्यथा रखी, “बाबूजी, मैं बीमारी के कारण परीक्षा में नहीं बैठ पाऊंगा। लगता है मुझे एक साल और उसी कक्षा में रहना पड़ेगा।” मालवीय जी बड़े ध्यान से उसकी बातें सुनते रहे। फिर अत्यंत शांति से बोले, “एक बात बताओ बेटा, पढ़ना अच्छी चीज है या बुरी?”

विद्यार्थी ने तुरंत उत्तर दिया, “अच्छी चीज है।” मालवीय जी मुस्कुराए और बोले, “तो फिर पढ़ने से डर कैसा? विद्यार्थी को दर्जे का, कक्षा का, साल का इन सबका विचार छोड़कर पूरे मन से सीखने पर ध्यान देना चाहिए। ये दर्जे तो मनुष्य ने अपने सुविधा के लिए बना दिए हैं, ज्ञान इन्हें नहीं मानता।” 

उनकी बात सुनकर भी विद्यार्थी का चेहरा उदास बना रहा। उसकी मायूसी देखकर मालवीय जी ने गहरी आवाज़ में समझाया, “मेरा विश्वास मानो, असली पढ़ाई स्कूल और कॉलेज की चार दीवारों में सीमित नहीं रहती। जिन्हें सचमुच पढ़ना होता है, वे हर परिस्थिति में सीखते हैं। 

विद्या पाने के लिए तपस्या करनी पड़ती है और यह तपस्या जीवनभर चलती है। दुनिया के अनुभव, परिस्थितियां, कष्ट- यही सबसे बड़े गुरुकुल हैं, जिसे सीखने की आग होती है, उसके लिए साल पीछे रह जाना कोई बाधा नहीं।” वे आगे बोले, “जीवन में हमें बहुत-सी बातें किताबों से नहीं, बल्कि परिस्थितियों से सीखने को मिलती हैं। बीमारी, कठिनाइयां, संघर्ष- ये सब भी शिक्षक हैं। 

इसलिए यदि तुम सचमुच विद्वान बनना चाहते हो, तो दर्जे की चिंता छोड़कर ज्ञान का पथ पकड़े रहो।” मालवीय जी के इन शब्दों ने विद्यार्थी के मन का बोझ हल्का कर दिया। उसे समझ आ गया कि पढ़ाई सिर्फ परीक्षा पास करने का साधन नहीं, बल्कि जीवन को सही दृष्टि देने वाली साधना है। वह नए उत्साह से भरकर वापस लौटा। सच यही है, जो सीखने वाला हृदय रखता है, उसके लिए हर दिन, हर अनुभव, हर संघर्ष एक नई पाठशाला बन जाता है। यही इस कथा का संदेश है।-नृपेन्द्र अभिषेक नृप

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