आपबीती: जिंदा रहने के लिए जरूरी है काम

Amrit Vichar Network
Published By Anjali Singh
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बीते दिनों ‘जोमेटो’ से कुछ खाने का आर्डर किया। बताया गया कि पौन घंटे में डिलीवर हो जाएगा। हम तसल्ली से मैच देखते हुए खाने का इंतजार करते रहे। बीच-बीच में कुछ-कुछ पढ़ते भी रहे थे। इसके साथ मोबाइल में आए नोटिफिकेशन भी टनटन बजते तो उनको भी देख लेते। कुल मिलाकर एक ‘व्यस्त इंतजार’ करते रहे। थोड़ी देर में जोमैटो से मेसेज आया। डिलीवर करने वाले का नाम और संदेश कि वह निकल चुका है। बताया कि बीस मिनट में पहुंचेगा। 

मैच में भारत की स्थिति मजबूत दिख रही थी। पहले बॉलिंग और फिर बैटिंग दोनों में बढ़िया रहा प्रदर्शन खिलाड़ियों का। थोड़ी देर में मैच जीत भी गया भारत, लेकिन खाना नहीं आया। डिलीवरी करने वालो को करीब घंटे भर से सत्ताईस मिनट की दूरी पर ही दिखाता रहा जोमैटो। मैच खत्म होने के बाद रेस्टोरेंट वाले ने बताया कि डिलीवरी वाला तो उनके यहां से तो निकल चुका है खाना लेकर। डिलीवरी वाले को फोन लगाया तो पता चला कि वह तो अभी गोमतीनगर में है। वहां से डिलीवरी करने के बाद आएगा हमारा खाना लेकर। गोमतीनगर हमारे घर से करीब बीस किलोमीटर की दूरी पर है। 
मतलब करीब आधा घंटा की दूरी। 

डिलीवरी वाला काफी देर तक सत्ताईस मिनट की दूरी पर ही रहा। शायद वह पहले वाली डिलीवरी ही निपटा रहा होगा। इसके बाद उसने चलना शुरू किया। हमारे पास पहुंचने के मिनट कम होते गए। अंतत: वह आ ही गया। अपना सामान लेने के बाद हमने देरी का कारण पूछा तो उसने बताया कि साथ ही उसको तेलीबाग में डिलीवरी का आर्डर मिला था (तेलीबाग हमारे घर के पास ही है)। वहां पहुंचने पर पता चला कि डिलीवरी गोमती नगर करनी है। जोमैटो वालों ने 

कहा-“जाना ही पड़ेगा, तो जाना ही पड़ा।”  

गलती किसकी है पता नहीं, लेकिन इस चक्कर में डिलीवरी वाले को करीब चालीस किलोमीटर अतिरिक्त गाड़ी चलानी पड़ी। ग्राहक भगवान होता है। भगवान की सेवा जरूरी है। जाड़े के मौसम में मोटरसाइकिल पर चालीस किलोमीटर गाड़ी अतिरिक्त चलानी पड़ी डिलीवरी वाले को। बातचीत करने पर डिलीवरी वाले ने बताया कि सुबह ग्यारह बजे से रात नौ बजे तक उसने 14 आर्डर निपटाए। सात सौ रुपये करीब कमाई हुई। दो सौ रुपए करीब पेट्रोल के निकालकर पांच सौ रुपये बचे। डिलीवरी वाला बालक जाड़े के हिसाब से कपड़े पहने था। टोपा भी लगाए था, लेकिन हाथ में दास्ताने नहीं पहने था। 

पूछने पर बोला –“गाड़ी चलाने में असुविधा होती है।” 
 
हमारा खाना काफी देर से मिला। ठंडा भी हो गया था, लेकिन हमने डिलीवरी में सबसे अच्छी रेटिंग ही दी। खाना गर्म करके खा लिया। खाने के बाद हर बार की तरह यह भी सोचा कि खाना घर में ही बनाकर खाना चाहिए। सामान डिलीवरी करने वाले लोगों को देखता हूं, तो लगता कि कितना कठिन काम है यह। ऐसा काम, जिसमें आगे कोई उन्नति का स्कोप नहीं है, लेकिन लोग कर रहे हैं। मजबूरी है। करना पड़ता है। जिंदा रहने के जरूरी है।   – अनूप शुक्ल