साधना: साधक से साध्य तक की यात्रा
साधन को समझने से पूर्व यदि साधक साधना को समझ ले, तो साधन को समझना सरल हो जाता है। साधना शब्द को इसके मूल स्वरूप में ही समझें। इस भौतिक शरीर को अपने अनुकूल ‘साधना’ है। इस शरीर में स्थित इन्द्रियों को, वासनाओं को साधना है, मन को साधना है। इन्हें किस क्रिया द्वारा साधना है और क्यों साधना है इस प्रश्न का उत्तर साधक को साधन निश्चित करने में सरलता प्रदान करता है। वह सारी क्रियाएं, जिनसे मनसा, वाचा, कर्मणा को साधना है, साधन है। इस साधन का अन्वेषण करने में ही साधकों का अधिकतर जीवन व्यतीत हो जाता है। साधक को सबसे पहले लक्ष्य निश्चित करना होगा। अब लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है अथवा सिद्धियों की प्राप्ति या भगवद् प्राप्ति? विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण क्यों करता है-ज्ञान के लिए जिज्ञासा के लिए या केवल डिग्री प्राप्त करने के लिए केवल डिग्री धारण करने से ज्ञान नहीं मिल सकता। बहुतों के पास ज्ञान है, डिग्री के बिना भी। मोक्ष डिग्री है, भगवद् प्राप्ति ज्ञान है। अध्यात्मिक सुख भगवद् प्राप्ति में मिलेगा। इस शरीर को भगवद् प्राप्ति के लिए तत्पर करना ही साधना की पहली सीढ़ी है। भगवान सच्चिदानंद स्वरूप हैं। अतः साधना पथ का गुरु भी सत्, चित्त एवं आनंद स्वरूप ही होना चाहिए।
साधना सिद्धियां प्राप्त करने का साधन नहीं
साधना के लिए वैराग्य धारण करने की आवश्यकता नहीं है। वैराग्य से तप हो सकता है, भजन भी हो सकता है। तप भी एक साधन है, परंतु आज के इस कठिन काल में यह एक बहुत ही कठिन साधन है। वैराग्य में विरह का प्रभाव होता है। वैराग्य में विरह का आधिक्य होता है और प्रेम का अभाव होता है। परंतु भगवद् प्राप्ति के लिए तो प्रेम से भरा हुआ भावुक हृदय होना चाहिए। एक बात और समझनी होगी कि कहीं आपकी साधन का लक्ष्य और संपूर्णता सिद्धि तो नहीं है। यदि ऐसा है, तो समझ लें कि हम गलत मार्ग पर चल रहे हैं। साधना सिद्धियां प्राप्त करने का साधन कदापि नहीं है। सिद्धि धोखा है। सिद्धियां तो साधना पथ पर ईश्वर द्वारा फेंके गए अवरोध अथवा टुकड़े हैं। साधना भक्ति से होती है, ज्ञान से नहीं। भक्ति भी निर्मल, प्रेममयी बिना प्रतिकार की इच्छा और स्वार्थ के। ज्ञान से अभिमान तो हो सकता है, भक्ति नहीं। ज्ञान से अभिमान का दोष दूर होता है, परंतु ज्ञान से भक्ति नहीं की जा सकती है। बुद्धि और ज्ञान तो भौतिक सुखों के साधन ढूंढने में लग जाते हैं। साधना में सबसे बड़ा अवरोध है- अभिमान एवं आसक्ति और कुछ हद तक आलस्य भी। आलस्य को तो थोड़ा साधना करके मिटाया जा सकता है, परंतु अभिमान और आसक्ति को हटाना कठिन है और यह साधना पथ की एक क्रिया है। जिस प्रकार सैनिक बिना शस्त्र के अधूरा है, उसी प्रकार साधना बिना साधन के अधूरी है। साधन गुरु बताते हैं, परंतु ध्यान रखें कि साधन भी गुरु ही हैं। गुरु परमात्मा से मिलने का मार्ग बताते हैं, तो साधन भी परमात्मा से मिलने का मार्ग ही है। साधन सीढ़ी है, उस परमेश्वर से मिलने की। जिस प्रकार गुरु का स्थान गोविंद से बड़ा है, उसी प्रकार साधन को भी परमात्मा से बढ़कर मानना चाहिए।
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख यहां सत्संग में सो बैकुंठ न होय।।
अपने साधन पर अभिमान न करें
ऐसी सभी क्रियाएं जो भगवद् प्रेम को बढ़ाएं, साधन है। “एहि कलिकाल न साधन दूजा, जोग, यज्ञ, जप, तप, व्रत, पूजा।” यह सभी साधन हैं, परंतु इनमें से पूजा के अतिरिक्त इस युग में अन्य अत्यंत कठिन हैं। पूजा भक्ति का ही दूसरा रूप है। ऐसी सभी क्रियाएं, जो ठाकुर को प्रसन्न करने के लिए की जाती हैं, भक्ति हैं और एक साधन है। भक्ति के लिए सर्वप्रथम श्रद्धा का होना अति आवश्यक है। बिना श्रद्धा के की गई भक्ति से प्रेम उत्पन्न नहीं होगा, जो कि साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है। सभी साधन मार्ग ईश्वर के द्वार पार ही मिलते हैं। अपने साधन पर अभिमान न करें। साधन चुन लें और उस पर चल पड़ें, परेशान न हों। रास्ता अपने आप मिलता चला जाएगा। साधना में ज्ञान का अथवा बुद्धि का कोई स्थान नहीं है। केवल प्रेम से भरा हुआ हृदय चाहिए। यहां यह समझ लें कि यह लक्ष्य की प्राप्ति नहीं है- यह प्रारंभ है। यहां से साधना प्रारंभ होगी। ईश्वर का स्मरण होने लगेगा। ईश्वर का स्मरण करना नहीं होगा। वह स्वयमेव ही होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि हम साधना पथ पर ठीक चल रहे हैं।
