बोधकथा : अनुशासन का दीप

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Published By Anjali Singh
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साल 1926 की बात है। महात्मा गांधी अपने दक्षिण भारत के प्रवास पर थे। उनके साथ उनके घनिष्ठ सहयोगी और श्रेष्ठ चिंतक काकासाहेब कालेलकर भी थे। यात्रा आगे बढ़ते-बढ़ते वे नागर कोइल पहुंचे, जो कन्याकुमारी के बहुत निकट है। इससे पहले की यात्रा में गांधी जी कन्याकुमारी जाकर वहां के मनोहर दृश्य देख आए थे। इस बार वे नागरकोइल के एक सरल, सज्जन गृहस्थ के घर ठहरे हुए थे।

उसी दिन गांधी जी ने उस गृहस्वामी को बुलाकर कहा, “मैं काका को कन्याकुमारी भेजना चाहता हूं, कृपया उनके लिए मोटर का प्रबंध कर दीजिए।” गृहस्वामी तुरंत व्यवस्था जुटाने में लग गए। कुछ देर बाद गांधी जी ने देखा कि काकासाहेब अभी भी वहीं बैठे हुए हैं। उन्हें आश्चर्य हुआ, फिर उन्होंने गृहस्वामी से पूछा, “काका के जाने की व्यवस्था हो गई या अभी बाकी है?”

गांधीजी की यह पूछताछ देखकर काकासाहेब को थोड़ा कौतूहल हुआ, क्योंकि बापू तो किसी को काम सौंप देने के बाद दुबारा पूछने की आदत नहीं रखते थे। वे सहज भाव से बोले, “बापू, आप भी साथ चलेंगे न?” इस प्रश्न पर गांधी जी मुस्कुराए, फिर शांत स्वर में बोले, “नहीं काका, बार-बार जाना मेरे भाग्य में नहीं है। एक बार देख आया, वही काफी है।” बापू का उत्तर सुनकर काकासाहेब कुछ उदास से हो गए। वे चाहते थे कि बापू भी उस प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद फिर एक बार उनके साथ उठाएं। बापू ने उनके मन की अवस्था भांप ली। 

क्षणभर मौन रहने के बाद वे गंभीर स्वर में बोले, “काका, हम एक विशाल आंदोलन का बोझ अपने कंधों पर लिए चल रहे हैं। हजारों स्वयंसेवक देशसेवा में जुटे हुए हैं। यदि मैं स्वयं रमणीय स्थलों के आकर्षण में पड़ जाऊं, तो वे सब भी यही अनुकरण करेंगे। मेरे लिए संयम ही श्रेयस्कर है। जब राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है, तो अपने व्यक्तिगत सुख-सौंदर्य के लोभ को त्याग देना ही उचित है।”

बापू की बातें सुनकर काकासाहेब के मन का गुबार क्षण भर में उड़ गया। उन्हें समझ आया कि गांधीजी का जीवन केवल उनके लिए नहीं, बल्कि उन सभी के लिए एक आदर्श था, जो स्वतंत्रता के पथ पर चल रहे थे। एक नेता की हर छोटी-बड़ी क्रिया, हर इच्छा और हर त्याग अनगिनत अनुयायियों को दिशा देता है। इससे हमें यह सीख मिलता है कि सच्चा नेतृत्व केवल शब्दों से नहीं, बल्कि आचरण से प्रकट होता है। लोभ और आकर्षण हर किसी के जीवन में आते हैं, परंतु जो व्यक्ति बड़े उद्देश्य के लिए स्वयं पर नियंत्रण रख पाता है, वही समाज का वास्तविक मार्गदर्शक बनता है। वास्तव में महानता बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि भीतर के अनुशासन, त्याग और दृढ़ संकल्प में निहित है।- नृपेन्द्र अभिषेक नृप