जानिए गायिका जानकीबाई कैसे कहलाईं छप्पनछुरी !
बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध ने भारतीय उपशास्त्रीय संगीत का स्वर्णकाल देखा था। ठुमरी, दादरा, पूरबी, चैती और कजरी जैसी गायन शैलियों के विकास और ग़ज़ल गायिकी को नए अंदाज देने में उस दौर की तवायफ़ों के कोठों का सबसे बड़ा योगदान था। तब के कोठे देह व्यापार के नहीं, संगीत के केंद्र हुआ करते थे। …
बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध ने भारतीय उपशास्त्रीय संगीत का स्वर्णकाल देखा था। ठुमरी, दादरा, पूरबी, चैती और कजरी जैसी गायन शैलियों के विकास और ग़ज़ल गायिकी को नए अंदाज देने में उस दौर की तवायफ़ों के कोठों का सबसे बड़ा योगदान था। तब के कोठे देह व्यापार के नहीं, संगीत के केंद्र हुआ करते थे। उन कोठों की कुछ बेहतरीन गायिकाओं में एक थी जानकीबाई उर्फ़ छप्पनछुरी।
जानकी के जीवन के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं है। यत्र-तत्र बिखरी जानकारियों और जनश्रुतियों के मुताबिक बनारस में उनका आरंभिक जीवन संघर्षों में बीता था। अपनी परित्यक्ता मां मानकी बेटी के साथ वह धोखे से इलाहाबाद के एक कोठे के हाथों बिक गई थी। कालांतर में मानकी उस कोठे की मालकिन बनी। बेटी जानकी की संगीत में रूचि को देखते हुए मानकी ने उसे संगीत और तहज़ीब की शिक्षा दिलाने के साथ उर्दू, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं की जानकार भी बनाया।
जानकी बड़ी हुई तो संगीत कीउसकी समझ और मधुर, रेशमी आवाज़ की वज़ह से उसके कोठे को शोहरत मिलने लगी। सांवले रंग और मोटे नाक-नक्श की जानकी देखने में सुन्दर नहीं थी, लेकिन संगीत की उनकी प्रतिभा और आवाज़ के जादू ने उनकी इस कमी की भरपाई की। संगीत की गरिमा को बरकरार रखने की उन्होंने हर मुमकिन कोशिश की। प्रलोभनों के बावजूद संगीत मेंअश्लीलता को कभी बढ़ावा नहीं दिया। खुद्दार तो वे थीं ही।
एक बार किसी प्रशंसक की अश्लील फरमाईश पर वे उससे बुरी तरह लड़ बैठी। अपराधी किस्म के उस व्यक्ति ने उनके चेहरे पर छुरी से छप्पन बार वार कर उनका चेहरा बिगाड़ दिया। ‘छप्पनछुरी’ का नाम तब से जानकी के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया। इतने जख्म खाकर भी जानकी के दिल से संगीत का जुनून कम नहीं हुआ। वह घूंघट से अपने जख्मों को छुपाकर गाती रही। धीरे-धीरे उनका यश फैला तो उन्हें संदेश की गीत-सभाओं और राजाओं, नवाबों, रईसों की महफ़िलों से बुलावा आने लगा। उनकी कला उनके चेहरे पर हावी होती चली गई। कहते हैं कि संगीत सभाओं में उनपर पैसे बरसते थे।
जानकी की लोकप्रियता को भुनाने में ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ इंडिया भी पीछे नहीं रहीं। गौहर जान के साथ जानकी देश की पहली गायिका थीं जिनके गीतों के डेढ़ सौ से ज्यादा डिस्क बने। इन गीतों में ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी, भजन और ग़ज़ल सब शामिल थे
उस दौर की दूसरी बड़ी गायिका गौहर जान के साथ जानकी की प्रतिद्वंदिता के किस्से आज भी कहे-सुने जाते हैं। उन दोनों की लोकप्रियता और प्रतिद्वंदिता को भुनाने के मक़सद से कई संगीत मंचों पर उन्हें एक साथ बुलाया गया। ऐसे सभी आयोजन बेहिसाब सफल रहे। दोनों का एक बहुचर्चित मुकाबला 1910 में इलाहाबाद में हुआ था। पहले गौहर का गायन चला। आधी रात को जब जानकी ने गाना शुरू किया तो महफ़िल उनकी गिरफ्त में आ गई।
उसके बाद श्रोताओं की गुज़ारिश पर गौहर को फिर बुलाया गया, लेकिन तबतक उनका गला जवाब दे चुका था। जानकी सुबह तक गाती रही। 1911 में किंग जार्ज पंचम जब दिल्ली आए तो उनके स्वागत में दोनों ने मिलकर एक बंदिश सुनाई थीं – ये है ताजपोशी का जलसा, मुबारक हो मुबारक हो ! सभा में मौजूद विदेशी पत्रकारों और कलाप्रेमियों ने अखबारों में लेख लिखकर दोनों की युगलबंदी की तारीफ़ की थी। जिन लोगों ने दोनों गायिकाओं को एक साथ सुना था, उनमें से ज्यादातर लोग मानते थे कि गौहर जानकी से ज्यादा खूबसूरत थीं, लेकिन जानकी गौहर से बेहतर गायिका थीं।
गायन के अलावा जानकी गीत भी लिखती थीं। अपने तमाम गाए गीत उन्होंने ख़ुद ही लिखे थे। उनके गीतों का एक संग्रह तब ‘दीवान-ए-जानकी’ नाम से छपा था। उनका एक गीत ‘इस नगरी के दस दरवाज़े / ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी / सैया निकल गए मैं ना लड़ी थी’ बेहद लोकप्रिय हुआ था। राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ में कुछ फेरबदल के साथ एक गीत के मुखड़े के तौर पर इसका इस्तेमाल किया था।
उनके कुछ और प्रसिद्द गीत हैं – राम करे कहीं नैना न उलझे, यार बोली न बोलो चले जाएंगे, नाहीं परत मोहे चैन,प्यारी प्यारी सूरत दिखला जा, एक काफिर पे तबियत आ गई, रूम झूम बदरवा बरसे, मैं भी चलूंगी तोरे साथ, और कान्हा न कर मोसे रार। अपने लिखे गीतों की धुन भी वे ख़ुद बनाती थीं। गायिका के तौर पर तो अद्भुत वे थीं ही।
पिछली सदी के दूसरे दशक के कुछ आखिरी साल गायन के क्षेत्र में जानकी की लोकप्रियता में उतार का दौर था। वह समय रसूलन बाई जैसी गायिकाओं के उत्कर्ष और बेगम अख्तर जैसी गायिका के उदय का था। गीतों की रिकार्डिंग की तकनीक में भी बड़े बदलाव आने लगे थे। जानकी ने ढलती उम्र में एक वकील से शादी कर ली, लेकिन वह रिश्ता ज्यादा चला नहीं। तब उन्होंने खुद को पूरी तरह सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। 1934 में उनकी मौत हुई। उनकी मृत्यु के साठ साल बाद एच.एम.वी ने 1994 में ‘चेयरमैन्स चॉइस’ श्रृंखला के अंतर्गत उनके कुछ गीतों के ऑडियो ज़ारी किए थे।
आज भले ही उन्नत तकनीक और प्रयोगों के कारण उपशास्त्रीय और सुगम संगीत पहले से बहुत बदल गए हैं, लेकिन इन्हें शोहरत दिलाने में जानकी के योगदान को कभी भुलाया न जा सकेगा। उन्हें सुनने वाले संगीत प्रेमियों की संख्या आज भी कुछ कम नहीं है।
- ध्रुव गुप्त
