पहली शादी वैध होने पर लिव-इन पार्टनर से भरण-पोषण की मांग अमान्य: हाईकोर्ट
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भरण पोषण से जुड़े एक मामले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी महिला की पहली शादी कानूनी रूप से कायम है, तो वह अपने साथ रहने वाले पार्टनर से सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की हकदार नहीं होगी।
कोर्ट ने कहा कि बिना वैध तलाक के लिव-इन पार्टनर के साथ लंबे समय तक रहना या विवाह जैसा रिश्ता महिला को ‘पत्नी’ का कानूनी दर्जा नहीं देता। ऐसे दावों की अनुमति देने से “हिंदू परिवार कानून की नैतिक और सांस्कृतिक नींव” कमजोर होगी और धारा 125 का उद्देश्य व पवित्रता नष्ट हो जाएगी।
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह की एकलपीठ ने मधु उर्फ अरुणा वाजपेयी द्वारा दाखिल आपराधिक पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए की, जिसमें परिवार न्यायालय, कानपुर नगर के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें उनकी भरण-पोषण याचिका अस्वीकार कर दी गई थी। याची ने दावा किया था कि उसने जून 2009 में विपक्षी से शादी की और लगभग एक दशक तक पति-पत्नी की तरह साथ रही, उसके नाम सरकारी दस्तावेज़ों में भी दर्ज हैं। उसने यह भी आरोप लगाया कि 2018 में उसके साथ क्रूरता हुई और उसे छोड़ दिया गया।
वहीं दूसरी ओर विपक्षी ने कोर्ट को बताया कि उनकी कोई वैध शादी नहीं हुई और याची ने अपने पहले पति से तलाक का अंतिम आदेश कभी प्राप्त नहीं किया। रिकॉर्ड की जांच में कोर्ट ने पाया कि याची की पहली शादी अब भी वैध थी। अतः तलाक याचिका डिफ़ॉल्ट में खारिज हो चुकी थी, साथ ही विपक्षी की भी एक पूर्व शादी कायम पाई गई।
अंत में कोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 का हवाला देते हुए कहा कि जीवित पति/पत्नी के रहते की गई शादी शुरू से ही शून्य होती है, इसलिए दोनों के बीच कानूनी रूप से पति-पत्नी का संबंध नहीं बन सकता है।
कोर्ट ने याची द्वारा सुप्रीम कोर्ट के बादशाह बनाम उर्मिला बादशाह गोडसे मामले पर जताए मामले की सीमाओं को स्पष्ट करते हुए कहा कि उस मामले में दूसरी पत्नी को पहली शादी की जानकारी नहीं थी, जबकि यहां याची ने स्वयं अपनी वैवाहिक स्थिति स्वीकार की है।
अंत में कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि याची “कानूनी रूप से विवाहित पत्नी” नहीं है और इसलिए वह धारा 125 के तहत भरण-पोषण की पात्र नहीं है। ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखते हुए पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गई।
