प्राकृतिक खेती
देश के किसान को रासायनिक खेती के बाद अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है। किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती, सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग का मुकाबला करने वाली ‘जीरो बजट प्राकृतिक खेती’ बताई जा रही है। गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्राकृतिक खेती पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि प्राकृतिक खेती के …
देश के किसान को रासायनिक खेती के बाद अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है। किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती, सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग का मुकाबला करने वाली ‘जीरो बजट प्राकृतिक खेती’ बताई जा रही है। गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्राकृतिक खेती पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि प्राकृतिक खेती के माध्यम से 21वीं सदी में कृषि का कायाकल्प करने की जरूरत है। इसलिए सभी राज्य सरकारों को प्राकृतिक खेती को एक जन आंदोलन बनाने के लिए आगे आना चाहिए।
दरअसल, शून्य बजट खेती की अवधारणा वर्ष 2016 में पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त सुभाष पालेकर की है। इसके बारे में पहली बात तो यह कही गई कि खाद और रसायनों की खरीद बंद करने से उत्पादन लागत में काफी कमी आएगी। दूसरी बात यह कही गई कि ये खर्चे कम होने से कर्ज पर किसानों की निर्भरता कम होगी। शून्य बजट प्राकृतिक खेती देसी गाय के गोबर एवं गोमूत्र पर आधारित है। इसी के आधार पर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने की बात करती रही है। 2019 में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि यह कदम वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने में कामयाब रहेगा।
इससे पहले नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी शून्य बजट प्राकृतिक खेती को लेकर बताया था कि यह पर्यावरण और किसानों की हालत सुधारने के लिए अनोखा और सिद्ध समाधान है। जबकि नीति आयोग के सदस्य रमेश चन्द का मानना है कि हरित क्रांति कामयाब रही। रसायन-मुक्त कृषि हमारे अनुकूल नहीं है। इससे उपज घटेगी। बेशक हम खेती में कम रसायन का उपयोग कर सकते हैं। ऐसे में सवाल पूछे जा सकते हैं कि यह शून्य बजट खेती क्या है और इससे किसान को कैसे लाभ होगा? कहीं यह महज घोषणा भर तो नहीं होगी।
देश में 80 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले ही हैं। अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि इस पद्धति का लाभ छोटे किसान कैसे उठा पाएंगे। प्राकृतिक खेती के आर्थिक आयामों पर भी समग्र अध्ययन सामने नहीं आए हैं। फिर सरकार 2022 किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात कैसे कर रही है? वैसे भी जीरो बजट खेती का मतलब यह नहीं है कि किसानों की कोई लागत ही नहीं लगेगी। इसका मतलब यह है कि उत्पादन लागत को एक साथ दो फसलें उगाकर निकाला जा सकता है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार फसल की बुवाई से पहले वर्मीकम्पोस्ट और गोबर खाद खेत में डाली जाती है। जबकि देश में दिसंबर से फरवरी केवल तीन महीने ही ऐसे हैं, जब तापमान उक्त खाद के उपयोग के लिए अनुकूल रहता है। ऐसे में कृषि तकनीक में बदलाव से किसानों का क्या भला होने वाला है?
