संपादकीय : जनापेक्षा की अभिव्यक्ति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन कि ‘व्यवस्था को दुरुस्त करने की प्रक्रिया में जनता को परेशानी नहीं होनी चाहिए’- दरअसल आम नागरिक की अपेक्षाओं की सच्ची अभिव्यक्ति है। सुधारों की गति तेज तो हुई है, परंतु कई सुधारों ने नागरिकों पर अतिरिक्त बोझ और असुविधा भी थोपी है। ऐसे में प्रधानमंत्री की यह स्वीकारोक्ति शासन की संवेदनशीलता और नागरिक-केंद्रित प्रशासन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का साफ संकेत है। सिस्टम में सुधार के नाम पर जनता को परेशान नहीं करना, एक व्यवहारिक दृष्टिकोण है, पर इसे लागू करना आसान नहीं है।
भारतीय प्रशासनिक ढांचा अभी भी जटिल प्रक्रियाओं, फाइल संस्कृति और ‘अनावश्यक अनुपालन’ से आबद्ध है। इस कथन को लागू करने के लिए सबसे पहले सरकारी मशीनरी की मानसिकता बदलनी होगी, जहां सुधार का अर्थ सिर्फ सख्ती नहीं, बल्कि दक्षता, पारदर्शिता और सहूलियत के रूप में समझा जाए। प्रधानमंत्री की चाहत है ‘पेनलेस सर्जरी।’ यानी विसंगतियों से राहत बिना दर्द के, पर वास्तविकता यह है कि प्रशासनिक सुधार अक्सर दो स्तरों पर दर्द पैदा करते हैं- एक, नागरिकों के लिए प्रक्रियागत बोझ, दूसरा सरकारी तंत्र के लिए पुरानी आदतें बदलने की चुनौती।
यदि सरकार इन दोनों मोर्चों पर समन्वय बिठा सके, तभी यह ‘दर्द रहित’ शल्य चिकित्सा संभव होगी। कानून का उद्देश्य भय पैदा करना नहीं, नागरिकों को सुरक्षा देना है। यदि इसी भावना के साथ बिना राजनीतिक पक्षपात और बिना जन-दुःख के नियम कानून लागू हों, तो निश्चित ही यह टिप्पणी व्यवस्था को अधिक मानवीय बनाने की दिशा में संकेत देती है। प्रधानमंत्री ने बार-बार डेटा जमा करने की बाध्यता को खत्म करने की बात कही है। डिजिटल भारत के इस दौर में यह पूर्णतः संभव है, क्योंकि आधार, पैन, बैंक केवाईसी और विभिन्न सरकारी डेटाबेस पहले से ही नागरिकों की अधिकांश जानकारी को केंद्रीकृत रूप से उपलब्ध कराते हैं।
फिर भी एसआईआर जैसे सरकारी उपक्रमों में बार-बार वही कागज़ात मांगे जाना बताता है कि डिजिटल ढांचा भले विकसित हो गया हो, पर सरकारी तंत्र की प्रक्रियाएं अभी डिजिटल सोच को आत्मसात नहीं कर पाई हैं। इस संस्कृति में सुधार के बिना इन घोषणाओं का असर सीमित रहेगा। सरकार द्वारा सेल्फ-सर्टिफिकेशन को स्वीकार करने के बावजूद कई विभाग अब भी कागजी सत्यापन और अनावश्यक औपचारिकताएं जारी रखे हैं। इससे साफ है कि जमीनी स्तर पर अनुपालन तंत्र अभी मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं।
ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस और ईज ऑफ लिविंग के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण प्रगति जरूर हुई है। ऑनलाइन सेवाएं बढ़ीं, पासपोर्ट-ड्राइविंग लाइसेंस जैसी सेवाएं सरल हुईं, कई अनुमतियों को स्वचालित किया गया, लेकिन नागरिकों को आज भी टैक्स, नगर निकाय, राजस्व विभाग, पुलिस सत्यापन और कल्याण योजनाओं में अनावश्यक चक्कर लगाने पड़ते हैं। प्रधानमंत्री की यह घोषणा तभी सार्थक होगी जब सभी विभागों में ‘वन-टाइम डेटा सबमिशन’ प्रणाली लागू हो। कागजी फाइलों की जगह डिजिटल फार्म लें और कानून प्रवर्तन पारदर्शी तथा मानवीय हो।
