संपादकीय:सख्ती और समाधान
भारतीय नागरिक उड्डयन क्षेत्र की संरचनात्मक कमजोरियों को उजागर करने वाले इंडिगो संकट पर सरकार और अदालत द्वारा उठाए गए सख्त कदम सराहनीय हैं, क्योंकि यह पहली बार है, जब किसी एयरलाइन के परिचालन संकट को केवल तकनीकी या प्रबंधन त्रुटि न मानकर उपभोक्ता अधिकारों और बाजार अनुशासन की दृष्टि से देखा गया। इन हस्तक्षेपों से विमानन परिदृश्य में सुधार की उम्मीद बढ़ी है, परंतु यह बदलाव कितना स्थायी होगा, यह व्यवस्था की पारदर्शिता, नियामकीय सख्ती और राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा।
इस मामले में कोर्ट द्वारा जांच समिति की रिपोर्ट को ‘सीलबंद लिफाफे’ में मांगना यह संकेत देता है कि न्यायालय बाहरी दबावों या लॉबिइंग से बचना चाहता है, हालांकि विमानन क्षेत्र से जुड़ा यह संकट न केवल लाखों यात्रियों बल्कि व्यापक आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करता है, इसलिए इसका सार्वजनिक होना भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पारदर्शिता न होने पर यह आशंका बनी रहेगी कि कहीं गंभीर चूक की जानकारी दब न जाए। फिलहाल डीजीसीए के नए नियम देरी, कैंसिलेशन और यात्री सुरक्षा को मजबूती देंगे, बशर्ते उनका कड़ाई से पालन हो। इंडिगो मुख्यालय में डीजीसीए अधिकारियों की तैनाती एक तरह का ‘माइक्रो-रेगुलेशन’ है, जिससे परिचालन की निगरानी बेहतर होगी और कंपनी को नियामकों से दूरी की सुविधा अब नहीं मिलेगी।
यदि कॉम्पिटिशन कमीशन एंटीट्रस्ट जांच शुरू करता है, तो एयरलाइन को बाजार शक्ति के दुरुपयोग, प्रतिस्पर्धा घटाने और उपभोक्ता शोषण के आरोपों का सामना करना पड़ सकता है। इससे उद्योग में अनुशासन स्थापित होगा और अन्य कंपनियों को साफ संदेश जाएगा कि बाजार एकाधिकार का गलत इस्तेमाल नहीं हो सकता। यह संकट छोटा नहीं था, पांच हजार से अधिक उड़ानें रद्द, दस लाख टिकट कैंसिल, पर्यटन–व्यापार को बड़ा झटका और हजारों करोड़ का आर्थिक नुकसान, इसलिए स्वतंत्र न्यायिक जांच आवश्यक है, ताकि समस्या की जड़ें सामने आएं और भविष्य में इसके पुनरावृत्ति की संभावना समाप्त हो। अब जब सरकार कारण खोजने और जवाबदेही तय करने की बात कर रही है, तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि संकट प्रबंधन में किस स्तर पर विफलता हुई- कंपनी, नियामक या मंत्रालय।
सरकार से पूछना जरूरी है कि टिकटों की कीमतें कुछ ही दिनों में ₹4–5 हजार से बढ़कर ₹30 हजार तक कैसे पहुंच गईं? क्या नियामक तंत्र सोया हुआ था? महज सख्त रवैये से सरकार इस जवाबदेही से बच नहीं सकती, क्योंकि संकट रोकना नियामकों की जिम्मेदारी थी। यात्रियों के लिए अनिवार्य मुआवजे का ‘पैसेंजर रिलीफ फंड’, विमान सेवा को ‘राइट टू सर्विस’ के दायरे में लाना और हर्जाने के स्पष्ट स्लैब बनाना- ये सब उपभोक्ता अधिकारों को मजबूत करने के व्यावहारिक सुझाव हैं। स्पष्ट बहुमत की सरकार चाहे तो कुछ ही महीनों में इस दिशा में ठोस कानून ला सकती है। भविष्य में इस बाबत कानून और ट्रिब्यूनल बनाकर एयरलाइन एकाधिकार पर अंकुश भी समाधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। नए नियम और सख्त रवैया आश्वस्त तो करता है, पर यह मान लेना कि अब ऐसी समस्या दोबारा नहीं आएगी, जल्दबाजी होगी।
