‘हल्ला बोल’ अधूरा छोड़ गए सफदर हाशमी, उनके अधूरे नाटक को पत्नी ने किया पूरा

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2 जनवरी 1989, यही वो दिन था, जब महज 34 वर्ष की आयु में सफदर हाशमी की हत्या हुई थी। 1 जनवरी 1989 को गाजियाबाद के पास झंडापुर गांव में अंबेडकर पार्क के पास सफदर हाशमी अपने मशहूर नाटक ‘हल्ला बोल’ का प्रदर्शन कर रहे थे। ये उनके एक पुराने नाटक ‘चक्का जाम’का संस्करण था, …

2 जनवरी 1989, यही वो दिन था, जब महज 34 वर्ष की आयु में सफदर हाशमी की हत्या हुई थी। 1 जनवरी 1989 को गाजियाबाद के पास झंडापुर गांव में अंबेडकर पार्क के पास सफदर हाशमी अपने मशहूर नाटक ‘हल्ला बोल’ का प्रदर्शन कर रहे थे। ये उनके एक पुराने नाटक ‘चक्का जाम’का संस्करण था, जो दिल्ली और गाजियाबाद में हुए मज़दूर हड़ताल पर आधारित था। तभी कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे मुकेश शर्मा का काफिला वहां से निकल रहा था। मुकेश शर्मा के आदमियों ने सफदर से रास्ता खाली करने को कहा। जिसके जवाब में सफ़दर ने उन्हें थोड़ी देर ठहरने या फिर किसी दूसरे रास्ते से निकल जाने को कहा। इस बात से मुकेश शर्मा के अहम को ठेस लगी और इस बात से गुस्से में आकर उन्होंने अपने समर्थकों से कहा कि वो लाठी-डंडों के बल पर रास्ते को खाली करा दें। इसके बाद मुकेश शर्मा के समर्थकों ने सफदर हाशमी की नाटक मंडली पर हमला बोल दिया। इस हमले में सफदर बुरी तरह जख्मी हुए वहीं एक मजदूर राम बहादुर की मौके पर ही मौत हो गई।

सफ़दर हाशमी , वो जिसे सच कहने पर सज़ा ए मौत मिली

सफदर को गंभीर हालत में पास के सीटू ऑफिस ले जाया गया। मुकेश शर्मा और उनके समर्थक सफदर के पीछे-पीछे वहां भी घुस आए और उन पर दोबारा हमला किया। लोगों ने किसी तरह वहां से सफदर को निकाला और उन्हें दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल ले गये। जहां 2 जनवरी को भारतीय वामपंथी आंदोलन के सांस्कृतिक प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने वाले सफदर हाशमी हमेशा के लिए खामोश हो गये।

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अगले दिन सफदर हाशमी का जब अंतिम संस्कार हुआ, तब दिल्ली की सड़कों पर हजारों से ज्यादा लोग उमड़ आए थे। सफदर की मौत के 48 घंटे बाद उनकी पत्नी मल्यश्री और उनके साथियों ने हल्ला बोल नाटक का मंचन किया, जिसे सफदर अधूरा छोड़ गये थे। उस दिन तारीख थी 4 जनवरी।

Remembering Safdar Hashmi and the play that changed Indian street theatre forever

उन्होंने कई कविताएं भी लिखीं। उनकी मशहूर कविताओं में से एक ये भी है, “किताबें करती हैं बातें, बीते जमाने की, दुनिया की इंसानों की…’

सफदर हाशमी की कविता- ‘किताबें’
किताबें
किताबें
करती हैं बातें
बीते ज़माने की
दुनिया की इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
खुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की !
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़ियां चहचहाती हैं
किताबों में खेतियां लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रोकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान का भंडार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं 

नुक्कड़-चौराहों पर मुल्क के लिए लड़ने वाले और बड़ी ही साफगोई से अपनी बात कहने वाले सफदर हाशमी अक्सर अवतार सिंह संधू ‘पाश’की इन लाइनों को भी गुनगुनाया करते थे।

कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए

आपको बता दें कि तरबीयत से अपने हुनर के माहिर सफ़दर हाशमी ने 32 साल की उम्र में कुछ ऐसा मुकाम हासिल कर लिया था कि उनके जनाजे में दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग इकट्ठा थे। वो केवल एक नाटककार, रंगकर्मी और गीतकार ही नहीं थे, असल में वो समाज में दबे-कुचले और शोषित लोगों की आवाज थे। सत्ता की कान में बीन बजाने वाले सफदर सिंहासन पर बैठे नहीं बल्कि सोये हुए लोगों को जगाने का काम किया करते थे। उनके नुक्कड़ नाटकों में हर वो तीखे सवाल होते थे, जिनसे सत्ताधीशों की गद्दी कांपती थी। चलती हुई सड़क पर होने वाले उनके नाटक ठहरी हुई सरकारों को हांकने का काम किया करती थी। उनके नाटक आज भी समाज के हर गरीब की जेब में, उसकी पेट में और पेट में पलने वाली आग में जिंदा हैं। वो जम्हूरियत में उस मुखालफ़त की आवाज थे, जो कहने को आज भी लोकतांत्रिक है। अगर ऐसा था तो सरेराह ऐसे सफदर हाशमी का कत्ल नहीं किया जाता।

The luminous life of Safdar Hashmi

12 अप्रैल 1954 को हनीफ और कौमर आजाद हाशमी के घर पैदा हुए सफदर हाशमी की परवरिश अलीगढ़ और दिल्ली में हुई। 70 के दशक में सफदर जन नाट्य मंच और दिल्ली में स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया  के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अंग्रेजी में ग्रेजुएशन और पीजी करने वाले सफदर हाशमी ने जीवन के शुरूआती दौर में पत्रकार की, कई यूनिवर्सिटीज में लेक्चरर रहे और उसके बाद वो दिल्ली में पश्चिम बंगाल सरकार के ‘प्रेस सूचना अधिकारी के रूप में सेवा दी। नौकरी छोड़ने के बाद सफदर ने खुद को पूरी तरह से नाटकों के हवाले कर दिया। 70 के दशक में सरकारी तंत्र में बढ़ते भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और शोषण के खिलाफ गहरे तंज करने वाले सफ़दर के नुक्कड़ नाटकों ने इंदिरा सरकार को काफी नुकसान पहुंचाया।

Safdar Hashmi: A death foretold - Telegraph India

सत्ता के दमन के खिलाफ लिखा सफदर का नुक्कड़ नाटक ‘कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’ सबसे लोकप्रिय नाटकों में शुमार किया जाता है। मंझे हुए साथी कलाकारों के साथ जब सफदर हाशमी की टोली सड़कों पर निकलती थी तो ऐसा मजमा लगता था कि आसपास के बिल्डिंगों में काम करने वाले सरकारी कर्मचारी भी दफ्तर से निकलकर भीड़ का हिस्सा हो जाते थे और जिस सरकार के वो मुलाजिम थे, उसी के खिलाफ हो रहे नाटक को बड़ी तन्मयता देखा करते थे।

Theatre, Resistance and SFI: Safdar's Delhi University

सफदर हाशमी ने छात्रों, महिलाओं और किसानों के खिलाफ हो रहे अत्याचार का विरोध अपने नाटकों से किया। मंडी हाउस को हमेशा अपनी जोशीले आवाज से जगाने वाले सफदर हाशमी ने साल 1979 में साथी नुक्कड़कर्मी मल्यश्री से शादी की। सफदर के कुछ मशहूर नाटकों में ‘गांव से शहर तक’,‘हत्यारे’, ‘अपहरण भाईचारे का’, ‘तीन करोड़’, ‘औरत’ और ‘डीटीसी की धांधली’ शामिल हैं।