जानें कब हुआ हिन्दी का पहला कवि सम्मेलन

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हिन्दी का पहला कविसम्मेलन 1922 में हुआ था। संगीत-काव्य-कला-साहित्य के तीन आश्रय रहे हैं लोक , भक्ति और राजदरबार ! हिन्दी काव्य का भक्तिकाल प्रसिद्ध ही है। रीतिकाल में काव्य को राजदरबार का आश्रय मिला। भारतेन्दु ने उसे फिर लोकोन्मुखी बनाया काव्यगोष्ठियों की परिपाटी खूब फली-फूली। पढन्तगोष्ठियों में काव्यप्रेमी-जन सम्मिलित होते थे। जमाना लोकोन्मुखी होने …

हिन्दी का पहला कविसम्मेलन 1922 में हुआ था। संगीत-काव्य-कला-साहित्य के तीन आश्रय रहे हैं लोक , भक्ति और राजदरबार ! हिन्दी काव्य का भक्तिकाल प्रसिद्ध ही है। रीतिकाल में काव्य को राजदरबार का आश्रय मिला। भारतेन्दु ने उसे फिर लोकोन्मुखी बनाया काव्यगोष्ठियों की परिपाटी खूब फली-फूली। पढन्तगोष्ठियों में काव्यप्रेमी-जन सम्मिलित होते थे। जमाना लोकोन्मुखी होने लगा तो साहित्य की संस्थाए स्थापित होने लगीं।

सन 1922 में कानपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक-अधिवेशन होने को था , कविरत्न श्री गया प्रसाद शुक्ल सनेही वार्षिक-अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष थे उनके मन में कविसम्मेलन की कल्पना कौंधी। कविसम्मेलन में श्री धर पाठक ,अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ,राम नरेश त्रिपाठी ,दुलारे लाल भार्गव ,अनूप शर्मा ,रूप नारायण पांडेय आदि कवि मंच पर विराजमान थे। श्रोताओं के बीच राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन भी विराजमान थे।

कविसम्मेलन की यह परंपरा बहुत आगे बढी। कविसम्मेलन के मंच पर बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन जैसे कवि भी उपस्थित हुए। इससे कविता लोकोन्मुखी भी हुई और लोकप्रिय भी। विकार कविसम्मेलन की परंपरा में भी आये और अब तो जो रूप हैवह व्यवसाय -प्रधान अधिक हो गया और उस टक्कर के कवि भी नहीं रहे। श्री अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ कभी कभार में लिखा है कि हिन्दी के वर्तमान लोकप्रिय कवियों में प्रायः कोई भी नहीं है जिसे बच्चन-दिनकर-नागार्जुन-भवानी प्रसाद मिश्र आदि के कद का माना जा सके।

यह तो ठीक है कि आम-जनता के बीच में हिन्दी का पहला कविसम्मेलन सन्‌ 1922 में कानपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर ही हुआ था किन्तु धर्मयुग : 1 अप्रिल 1984 में स्व.भैयासाहब [श्रीश्री नारायण चतुर्वेदी] का एक लेख छपा था ,उसमें उन्होंने लिखा है कि हिन्दी का सबसे पहला कविसम्मेलन 1895 में फतेहगढ में हुआ था।

ग्राउस का नाम भारत-भक्त और हिन्दी-भक्त अंग्रेजों में लिया ही जाता है। उसने बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किये थे। अपने कार्यकाल को संपन्न करके वह जब इंग्लेंड लौटने लगा, तब वह फतेहगढ में कलक्टर था।

इंग्लेंड लौटने से पहले उसने हिन्दी के मित्रों से विदा लेने के लिये एक कविसम्मेलन अपनी ही कोठी में किया था ,उसमें 50 कवियों ने समस्यापूर्ति की थी। लगभग 50 कवियों ने भाग लिया था, जिनमें नाथूरामशंकरजी भी थे। श्रीधर पाठक ने ग्राउस की प्रशंसा में कहा था-

अंग्रेजी अरु-फरासीस भाषा को पण्डित।
संस्कृत-हिंदी-रसिक विविध-विद्यागुन-मण्डित॥
निज वानी में कीन्हीं तुलसी कृत रामायन।
जासु अमी-रस पियत आज अंगरेजी बुधगन॥

*राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी*

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